सनातन धर्म के विरुद्ध विपक्षी नेताओं के बयानों की गाली-गलौज भरी बौछारें देखकर पुरानी हिन्दी फिल्म का चर्चित गीत ‘अच्छों को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है’ याद आता है। दुनिया की यह आदत रही होगी किन्तु भारतवर्ष की सनातन संस्कृति में उसकी मूलभूत विशेषता सहिष्णुता के कारण यह आदत कभी नहीं रही।
गुलामी के काले दिनों में अंग्रेजों ने भारतवर्ष के धर्म, संस्कृति, शिक्षा आदि समस्त अस्मिता सूचक महान संदर्भों के विरुद्ध षड्यन्त्रपूर्वक विष उगलना प्रारम्भ किया। उनके इसी विष को यहाँ के कम्युनिस्टों ने शिक्षा, साहित्य और कला के धरातल पर स्वतंत्र भारत में निरन्तर फैलाया और आज यही जहर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए विपक्ष के कुछ नेता उगल रहे हैं।
सनातन धर्म, समानता के खिलाफ है, वह कुष्ठ रोग की तरह है, उसे डेंगू-मलेरिया और कोरोना की तरह मिटाना होगा- आदि अपमान सूचक वाक्य देश की फिजा में गूँजकर देश-विदेश में बसे एक अरब से अधिक सनातनी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करके उनकी सहिष्णुता का खुला मजाक उड़ा रहे हैं। उन्हें समर्थन देने वाले इसे अभिव्यक्ति की आजादी कह रहे हैं और इसका समर्थन कर रहे हैं।
यदि स्वयं को चर्चा में लाने और मीडिया में छाने के लिए ऐसी अनर्गल बयानबाजी अभिव्यक्ति की आजादी है तो इस पर कठोर प्रतिबंध लगाए जाने पर विचार करना आज की बड़ी आवश्यकता बन गई है, क्योंकि ऐसे बयानों से विपक्ष को सत्ता मिले या न मिले किन्तु सामाजिक समन्वय, सद्भाव और सहयोग अवश्य क्षत-विक्षत होगा। समाज में संघर्ष बढ़ेगा। इसलिए ऐसे नफरत भरे बयानों पर नियंत्रण अनिवार्य है।
सनातन भारतवर्ष का अपना धर्म है। उसके सिद्धान्त शाश्वत हैं और न केवल भारतवर्ष के लिए अपितु समस्त विश्व के कल्याण के लिए संकल्पित हैं। हजारों वर्ष पूर्व सनातन धर्म ने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उदार भाव व्यक्त किया और आज भी वह अपने धार्मिक अनुष्ठानों की समापन वेला में ‘विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो‘ – जैसे उद्घोष गुंजित कर अपनी मूल्य चेतना को स्वर देता है। प्रकृति के साथ उसकी गहरी रागात्मकता है जो नदी, सागर, पर्वत, वन, बादल, भूमि, वायु आदि में देवत्व का दर्शन कराती है और प्राकृतिक पर्यावरण की शुद्धता के लिए आवश्यक वातावरण का निर्माण करती है।
सनातन धर्म के अद्वैत दर्शन ने मनुष्य के साथ-साथ जीवमात्र में परम सत्ता का दर्शन देकर पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों तक की रक्षा का प्रावधान किया है। सनातन धर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता ब्राह्मण, गाय हाथी, कुत्ता, चाण्डाल सब में एक ही ईश्वर की उपस्थिति निर्देशित कर जीवमात्र की समानता का शंखनाद करता है। वैदिक युग से लेकर आज तक उसका प्रवाह निर्बाध रहा है।
शास्त्र और शस्त्र सनातन धर्म की दो सशक्त भुजाएँ हैं। राम, कृष्ण और शिव उसके प्रतीक आदर्श हैं। भारत में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैले छोटे-बड़े करोड़ों मंदिर, चैरे, चबूतरे उसके ऊर्जा केन्द्र हैं और असंख्य साधु-संन्यासी उसके संरक्षक हैं। उसे मिटाने की बात करना दिन में सपने देखने जैसा है।
सनातनी धर्म की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगाने में अग्रणी हैं। शकों और हूणों जैसे बर्बर आक्रान्ताओं पर विजय प्राप्त करने वाला सनातन धर्म गजनवी, गोरी, तैमूर, औरंगजेब, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे आक्रान्ताओं से टकराकर भी नहीं टूटा। ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ आए पादरियों के कुचक्र और प्रलोभन उसे लुभा न सके। हजारों वर्ष के संघर्ष के बाद भी उसकी विजय-पताका सबसे ऊँची है। शिकागो के सर्वधर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान की सर्वस्वीकृति उसकी साक्षी है।
सनातन दूर्वा है। उसमें दूर्वा की तरह झुककर पैरों तले रौंदे जाने पर भी अपने अस्तित्व को बचा ले जाने की अद्भुत क्षमता है। विधर्मी आक्रमणों और कुटिल षड्यंत्रों की कड़ी धूप में सूख जाने पर भी वह अवसर पाकर हरी हो उठती है।
सनातन अमरवेल है। उसे अपने विस्तार के लिए कभी राजसिंहासन का सहारा नहीं लेना पड़ा। वह राजपुत्रों और राजवंशों से पोषण पाकर नहीं फैली। उसे अपने प्रसार के लिए आक्रमणकारी सैनिकों और सेवा का आडम्बर रचते प्रलोभनकारी व्यापारियों का सहारा नहीं लेना पड़ा। सनातन धर्म की अमरवेल अपने उदार चिन्तन और मानवीय मूल्यों के कारण बिना आश्रय के ही फल-फूल रही है। विश्व में प्रतिष्ठित हो रहे नए मंदिर इसके प्रमाण हैं। सऊदी अरब जैसे इस्लामिक देश में मंदिर निर्माण सनातन की नई प्रतिष्ठा है। इस्कॉन द्वारा स्थापित कृष्ण मंदिरों की बढ़ती संख्या सनातन धर्म की अमर बेल का नूतन विकास है।
सनातन धर्म अक्षयवट है, जिसकी छाया में मनुष्यता सुरक्षित है। उसकी जड़ें जितनी गहरी हैं, उसका विस्तार आकाश में भी उतना ही अपार है। उसके आदर्श काल्पनिक नहीं, यथार्थपरक हैं। वह जड़ अथवा स्थिर नहीं है, गतिमान और परिवर्तनशील है। उसमें अपने अंदर समय के साथ आने वाली विकृतियों को स्वयं दूर करने की अद्भुत क्षमता है। गति, परिवर्तन, परिष्करण, संशोधन उसके मूलतत्व हैं। इसलिए वह चिर पुरातन और नित नवीन है। उसकी पृष्ठभूमि में विराट इतिहास है और उसके समक्ष अनन्त भविष्य। सनातन मनुष्य की रचनात्मक प्रज्ञा का अक्षय प्रवाह है। नकारात्मक नारों का भ्रामक प्रचार उसे रोक नहीं सकता।
विगत शताब्दियों में परतंत्रता जनित प्रभावों के कारण सनातन में आई छुआछूत, पर्दा, बालविवाह, आदि विकृतियों पर विजय पाने की ओर सनातन का विजय-रथ निरन्तर अग्रसर है। सनातन को कोसकर समाज में जहर घोलने वाले इन तथाकथित बुद्धिजीवियों, समाज सुधारकों और नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि अब से लगभग पंद्रह सौ वर्ष पूर्व सम्राट हर्षवर्धन के समय में भारत भ्रमण पर आने वाले विदेशी चीनी यात्री हवेनसांग ने भारतीय समाज की जिस सुख, शान्ति, समृद्धि का उल्लेख किया है, वह सनातन चिन्तन परम्परा की ही देन है।
भारत सोने की चिड़िया सनातन व्यवस्था की छाया में ही रहा। अयोध्या नरेश सत्यवादी हरिश्चन्द्र को काशी के डोम ने खरीदा था, इस संदर्भ से भी प्राचीन भारत में सनातन व्यवस्था में दलित समझे जाने वाले वर्ग की आर्थिक स्थिति का अनुमान करना चाहिए। लगभग सौ वर्ष पूर्व सवर्ण वर्ग में जन्मे महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर सनातन धर्म में संशोधन करते हुए अस्पृश्यता के अभिशाप को दूर करने की दिशा में देशव्यापी सार्थक प्रयत्न किए।
कथित ऊँची जातियों में जन्म लेने वाले वीर सावरकर, महात्मा गाँधी, डॉ. हेडगेवार, प. श्रीराम शर्मा आचार्य आदि ने सनातन में आए सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए गंभीर प्रयत्न किए, जिनका शुभ परिणाम स्वतंत्र भारत में धार्मिक, सामाजिक और संवैधानिक धरातल पर आज सबके सामने हैं। मंदिरों के द्वार सबके लिए खुले हैं। आज चाय की गुमठियों, होटलों और चाट के ठेलों पर खाने-पीने का सामान बनाने वालों की जाति नहीं पूछी जाती। सामाजिक समरसता के इन प्रयत्नजनित सकारात्मक परिवर्तनों ने सनातन को नई शक्ति दी है। जिन गाँवों-कस्बों में अभी भी हठपूर्वक छुआछूत जैसे अपराध यदि कुछ लोग कर रहे हैं तो उनके विरुद्ध कठोर कानूनी कार्यवाहियाँ हो रही हैं। जितना घना अँधेरा कल तक था, उतना आज नहीं है। जो आज बचा है वह कल नहीं रहेगा।
इस आशा और विश्वास के साथ सनातन समाज आगे बढ़ रहा है। उसने तुलसीदास के उस रामराज्य की स्थापना को चुना है, जिसमें चारों वर्णों के लोग राजघाट पर साथ-साथ स्नान करते हैं;
राजघाट सब विधि सुंदर वर।
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।
किंतु सामाजिक समरसता के इस राजघाट का निर्माण दलित और सवर्ण की राजनीति करने वाले कुछ नेताओं को रास नहीं आ रहा है। वह उनकी आँख की किरकिरी बन रहा है, क्योंकि इसके कारण उन्हें सत्ता स्वयं से छिटकती दिख रही है। उनकी बौखलाहट बढ़ रही है और वे वाणी का विवेक और संयम खोकर स्वयं को ही कोस रहे हैं। सनातन को कोसने वालों का मूल भी सनातन में ही है, क्योंकि सनातन ही भारत की पहचान है। संसार के अन्य देश भारत की सनातन सांस्कृतिक विरासत यहाँ के मठों, मंदिरों, धर्म ग्रंथों, पर्व-उत्सवों, राम-कृष्ण आदि महापुरुषों से ही जानते हैं।
सनातन है तो भारत है। सनातन नहीं तो भारत नहीं, भारत की पहचान नहीं। सनातन की छाया में ही भारत में अन्य धर्म सुरक्षित रह सकते हैं। विगत सात दशकों का इतिहास साक्षी है कि पाकिस्तान और बंगलादेश में सनातन के अल्पमत में आते ही वहाँ अन्य धर्मों के अनुयायी सुरक्षित नहीं रहे। अफगानिस्तान में सनातन पूरी तरह निर्मूल हुआ है तो वहाँ बौद्ध, जैन और सिख आदि भी नहीं बचे हैं। जिस धर्म-निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की दुहाई हमारे विपक्षी नेता देते हैं उसकी सुरक्षा सनातन की पुष्टि में ही है, उसके निर्मूलन में नहीं।
(लेखक डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र, शासकीय नर्मदा महाविद्यालय, नर्मदापुरम्, मध्य प्रदेश में हिन्दी के विभागाध्यक्ष हैं)