बेटियाँ आज किसी भी क्षेत्र में बेटों से कम नहीं हैं। अपनी मेहनत के बल पर वह दुनिया भर में अपने नाम का परचम लहरा रही हैं। समाज में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल 24 जनवरी को ‘राष्ट्रीय बालिका दिवस’ (National Girl Child Day) मनाया जाता है। राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने के पीछे सरकार का उद्देश्य लड़कियों के सम्मान और महत्व को बढ़ावा देना है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 2008 में इसकी शुरुआत की थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत अन्य नेताओं ने इस अवसर पर देश की बेटियों को शुभकामनाएँ दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, “आज का दिन विशेष रूप से बालिकाओं को सशक्त बनाने की दिशा में काम करने वाले सभी लोगों की सराहना करने और यह सुनिश्चित करने का दिन है कि वह सम्मान और अवसर प्राप्त करें।”
Today is also a day to specially appreciate all those working towards empowering the girl child and ensuring she leads a life of dignity and opportunity. #DeshKiBeti
— Narendra Modi (@narendramodi) January 24, 2021
उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय बालिका दिवस पर, हम अपनी देश की बेटी और विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियों को सलाम करते हैं। केंद्र सरकार ने कई पहल की हैं, जो बालिकाओं को सशक्त बनाने पर केंद्रित हैं। इसमें शिक्षा तक पहुँच, बेहतर स्वास्थ्य सेवा शामिल है।”
मोदी सरकार के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान का अब असर दिखने लगा है। भारत के सेक्स अनुपात में जबरदस्त सुधार हुआ है। साल 2014-15 में जन्म के समय प्रति एक हजार लड़कों पर 918 लड़कियाँ थी। साल 2019-20 में यह आँकड़ा सुधर कर अब 934 तक पहुँच गया है।
प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर इस अभियान की शुरुआत 22 जनवरी 2015 को की गई थी। मोदी सरकार ने इस योजना के जरिए समाज में लड़कियों के जन्म को लेकर मौजूद पूर्वाग्रहों को तोड़ने का उल्लेखनीय कार्य किया है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के कारण ज्यादातर लड़कियाँ स्कूल जाने लगी हैं।
इन अभियानों से लोगों की मानसिकता को बदलने में मदद मिली है। खासकर, ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा को लेकर काफी जागरुकता आई है। समाज के लोगों की मानसिकता पर इन अभियानों का काफी असर हुआ है। अब लोग लड़कियों को लड़कों के बराबर सम्मान और अधिकार दे रहे हैं।
वर्तमान समय में भी केंद्र और राज्य सरकारें लड़कियों को समानता का हक दिलाने के लिए विभिन्न योजनाएँ व कार्यक्रम चला रही हैं, जिनके चलते समाज में जागरुकता फैली है और लोगों ने लड़कियों की महत्ता को समझा है। पहले जहाँ लोग अपनी बच्चियों को घर से बाहर नहीं निकलने देते थे वहीं आज विभिन्न क्षेत्रों में लड़कियों की भागीदारी देखी जा सकती है।
भले ही आज देश की बेटियाँ हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रहीं है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी बालिकाओं का जन्म परिवार पर बोझ माना जाता है, लेकिन समाज में बेटियों की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भारत में एक लड़की का बड़ा होना आसान नहीं है। एक महिला और एक कामकाजी महिला होना और भी कठिन है। कई बार तो ऐसा भी कहा जाता है कि अगर आप पुरुष नहीं हैं तो यह दुनिया की सबसे खतरनाक जगह है। यहाँ पर लैंगिक विभाजन बहुत अधिक है, हालाँकि यह धीरे-धीरे बंद हो सकता है।
ऐसे देश में जहाँ यौन अपराध हर सुबह अखबारों के पहले पेज पर होते हैं, वहाँ हजारों अनदेखी, अपरिचित महिलाओं ने लैंगिक पूर्वाग्रह और अपमान के साथ रहना सीख लिया है। उन्हें लगता है कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। पिछले साल सरकार ने सेना में महिलाओं को अधिक समानता देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि महिलाएँ कमांडिंग पदों के लिए उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि पुरुष सैनिक उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है।
यह भी तर्क दिया गया कि अलग-अलग शारीरिक मानदंडों की वजह से तैनाती के लिए महिला और पुरुष अफसरों को समान नहीं आँका जा सकता। अधिक पारिवारिक जरूरत, युद्धबंदी बनाए जाने का डर और युद्ध की स्थिति में महिला अफसरों पर संदेह जैसे अनेक कारणों से कहा गया कि वे इस कार्य के योग्य नहीं हैं। सौभाग्य से अदालत ने इन ओछे और लैंगिक भेदभाव वाले तर्कों को खारिज कर दिया और आदेश दिया था कि अब पुरुषों की ही तरह महिलाएँ भी स्थायी कमीशन पा सकेंगी।
गरीब और मध्यम वर्ग की लाखों महिलाएँ सामाजिक निंदा के डर से आज भी एक प्रेमहीन व नाखुश विवाह में फँसी हैं। यह खासकर भारत के उन हिस्सों में हो रहा है, जहाँ पर परंपराएँ सुनिश्चित करती हैं कि किससे शादी करनी है यह तय करने में महिलाओं की इच्छा न्यूनतम हो। यह फैसला समुदाय या फिर परिवार के बड़े लोग करते हैं और इसकी वजह प्रेम के अलावा ही होती है। मान्यता यह है कि प्रेम शादी के बाद होना चाहिए न कि अन्य तरीके से।
यह सच है कि अधिक से अधिक महिलाएँ अब खुद का अधिकार जता रही हैं। वे चाहे अपनी पसंद का साथी चुन रही हों जाति, समुदाय, गोत्र या फिर कुछ मामलों में तो लिंग को भी नकार रही हैं। यही नहीं वे इस विचार को भी खारिज कर रही हैं कि ‘शादी जरूरत है।’ अधिक से अधिक महिलाएँ कैरियर चुन रही हैं, ताकि उनमें एक गर्व की भावना आए।
उन्हें इस बात का डर नहीं लगता कि समाज उनके बारे में क्या सोचेगा। शिक्षा और वित्तीय स्वतंत्रता ने उन्हें यह चुनने का अधिकार दिया है, दंभ नहीं। यह लैंगिक न्याय की चाहत से आया है। यह सही है कि परिवार टूट रहे हैं। लेकिन ये इसलिए टूट रहे हैं कि महिलाएँ अब उस विवाह को छोड़ने से डर नहीं रही हैं, जो चल नहीं पा रहा है। यह खुद को बचाने की भावना से आता है, दंभ से नहीं। दंभ तो वह है जब पुरुष मासिक धर्म की उम्र वाली महिलाओं को मंदिर में जाने से रोकते हैं। दंभ तब होता है, जब विधवाओं का सामजिक तिरस्कार होता है। या तब होता है, जब दहेज न लाने पर दुल्हनों को जला दिया जाता है।
एक आधुनिक कार्यस्थल पर अवसरों व वेतन में असमानता और महिलाओं के प्रति व्यवहार दंभ है। लैंगिक समानता की लड़ाई जारी रहेगी। असल में तो यह गति पकड़ेगी। पुरुषों को अब समानता की हकीकत में रहना सीखना होगा। परंपराओं को नए सामाजिक बदलावों बीच से रास्ता निकालकर यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएँ वह सब कुछ कर सकें जो पुरुष कर सकते हैं और वह भी बिना इस डर के कि उनसे पूछताछ होगी या सजा मिलेगी।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगी-
दुश्मनों का मुकाबला डटकर कर सकती है “बेटियाँ”
मत बाँधों बेड़ियों में ऊँची उड़ान भर सकती है “बेटियाँ”