“जो आँखें देशहित जागी, वो हरगिज़ सो नहीं सकती।
जिस्म के ख़ाक होने पर भी, शोहरत खो नहीं सकती।
भले दौलत की ताक़त से खरीदो, सारी दुनिया को,
शहादत की मगर कोई भी क़ीमत हो नहीं सकती।।”
भारत को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के दो मुखर स्वर थे, एक अहिंसक आंदोलन तो दूसरा सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन। सन् 1857 से लेकर 1947 तक भारतीय स्वतंत्रता हेतु जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें क्रांतिकारियों का आंदोलन सर्वाधिक प्रेरणादायक रहा।
भारत को मुक्त कराने के लिए सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा रही है। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। वस्तुतः क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का गौरवशाली स्वर्ण युग ही था। अपनी मातृभूमि की सेवा, उसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने की जो भावना उस दौर में प्रस्फुटित हुई, आज उसका नितांत अभाव हो गया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आधुनिक नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरान्त यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कॉन्ग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस नए विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।
23 मार्च 1931 का दिन भारतीय इतिहास में अत्यन्त ही हृदयविदारक घटना के रुप में याद किया जाता है। ये वही काला दिन है, जब क्रूर अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने मात्र 23 वर्षीय भगत सिंह और सुखदेव थापर तथा 22 वर्षीय शिवराम हरि राजगुरु को राष्ट्रप्रेम के अपराध में फाँसी दे दी और आज़ादी के ये मतवाले सदा के लिए अमर हो गए।
लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध
सन् 1927 में काकोरी कांड के सिलसिले में भगत सिंह ने अपना नाम बदलकर ‘विद्रोही’ नाम से एक लेख लिखा था, जिसके कारण उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया था। लाहौर में दशहरे के मेले में बम विस्फोट का आरोप भी उन पर लगाया गया था। बाद में अच्छे व्यवहार के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था।
उसी वर्ष जब साइमन कमीशन भारत आया तो लाला लाजपत राय ने उसका पुरजोर विरोध किया। विरोध प्रदर्शन के दौरान एसपी जेए स्कॉट ने निर्दोष भीड़ पर लाठीचार्ज करने का आदेश दे दिया। उसने दूर से ही लाला लाजपत राय को देख लिया। उसने उन पर बेंत बरसाना शुरू कर दिया और तब तक बेंत चलाता रहा, जब तक वो लहूलुहान होकर ज़मीन पर नहीं गिर गए। लाला जी ने घोर पीड़ा में भी दहाड़ते हुए कहा था:
“हमारे ऊपर चलाई गई हर लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में ठोकी गई कील साबित होगी।”
उनकी शहादत से समूचा भारतवर्ष आहत और आक्रोशित था। भगत सिंह जैसे तमाम क्रांतिकारी लाला जी को अपना आदर्श मानते थे और वे चुप नहीं बैठने वाले थे। 10 दिसंबर 1928 को भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी की अध्यक्षता में देश भर के क्रांतिकारियों की लाहौर में एक बैठक हुई। इसमें यह तय हुआ कि लाला जी की मौत का बदला लिया जाएगा।
सैंडर्स की हत्या
योजना अनुसार भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद और जयगोपाल स्कॉट को मारने के अभियान में निकल पड़े। स्कॉट की कार का नंबर 6728 था। उसके थाने पहुँचने की सूचना देने की ज़िम्मेदारी जय गोपाल को सौंपी गई। उन्होंने स्कॉट को पहले कभी नहीं देखा था। उस दिन स्कॉट छुट्टी पर था। थाने से बाहर आ रहे असिस्टेंट एसपी जेपी सैंडर्स को उन्होंने स्कॉट समझ लिया।
इसके बाद जय गोपाल ने अपने साथियों को हमले का संकेत दे दिया। राजगुरू ने अपनी जर्मन माउज़र पिस्टल से असिस्टेंट एसपी जेपी सैंडर्स पर गोली चला दी। भगत सिंह चिल्लाते ही रह गए, ‘नहीं, नहीं, नहीं… ये स्कॉट नहीं हैं’, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जब सैंडर्स गिरा तो भगत सिंह ने भी उस पर कुछ गोलियाँ दाग दीं।
स्वतंत्रता सेनानी शिव वर्मा अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फ़ेलो रिवोल्यूशनरीज़’ में लिखते हैं, “जब भगत सिंह और राजगुरू सैंडर्स को मारने के बाद भाग रहे थे तो एक हेड कॉन्सटेबल चानन सिंह उनका पीछा करने लगा। जब आज़ाद के चिल्लाने पर भी वो नहीं रुका तो राजगुरु ने उसे भी गोली मार दी।”
अगले दिन शहर की दीवारों पर लाल स्याही से बने पोस्टर चिपके पाए गए, जिन पर लिखा था, “सैंडर्स इज़ डेड। लाला लाजपत राय इज़ एवेंज्ड।”
बहरों को सुनाने के लिए सेंट्रल असेंबली में धमाका
आगरा में ही भगत सिंह और उनके साथियों की एक बैठक हुई, जिसमें सैंडर्स को मारे जाने के परिणाम पर बड़ी बहस हुई। सबका मानना था कि इस हत्या का वो असर नहीं हुआ, जिसकी वो सब उम्मीद कर रहे थे। उनको उम्मीद थी कि इससे डरकर बड़ी संख्या में अंग्रेज़ भारत छोड़ देंगे।
उन्हीं दिनों असेंबली में दो बिलों पर विचार किया जाना था। एक था ‘पब्लिक सेफ़्टी बिल’, जिसमें सरकार को बिना मुक़दमा चलाए किसी को भी गिरफ़्तार करने का अधिकार दिया गया था। दूसरा था ‘ट्रेड डिस्प्युट बिल’, जिसमें श्रमिक संगठनों को हड़ताल करने की मनाही हो गई थी।
जिस दिन ये बिल पेश किए जाने थे यानी 8 अप्रैल को, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ख़ाकी कमीज़ और शॉर्ट्स पहने हुए सेंट्रल असेंबली की दर्शक दीर्घा में पहुँच गए। उस समय असेंबली में कई बड़े नेता- जैसे कि विट्ठलभाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना और मोतीलाल नेहरू मौजूद थे।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास
कुलदीप नैयर लिखते हैं, भगत सिंह ने बहुत सावधानी से उस जगह बम लुढ़काया जहाँ एसेंबली का कोई सदस्य मौजूद नहीं था। जैसे ही बम फटा पूरे हॉल में अँधेरा छा गया। बटुकेश्वर दत्त ने दूसरा बम फेंका। तभी दर्शक दीर्घे से असेंबली में कागज़ के पैम्फ़लेट उड़ने लगे। उन पैम्फ़लेटों पर लिखा था, “बहरों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज़ की ज़रूरत होती है।”
इस दौरान असेंबली के सदस्यों को ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ और ‘लॉन्ग लिव प्रोलिटेरियट’ के नारे सुनाई दिए। बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की, जैसा कि पहले से तय था, उन्होंने अपने-आप को गिरफ़्तार करवाया। वहीं पर भगत सिंह ने अपनी वो पिस्टल सरेंडर की, जिससे उन्होंने सैंडर्स की हत्या की थी।
भगत सिंह को पता था कि ये पिस्टल सैंडर्स की हत्या में उनके शामिल होने की सबसे बड़ी सबूत होगी। दोनों को अलग-अलग थानों में ले जाया गया। भगत सिंह को मुख्य थाने और बटुकेश्वर दत्ते को चाँदनी चौक के थाने पर लाया गया। इसका उद्देश्य था कि दोनों से अलग-अलग पूछताछ की जाए, ताकि सच का पता लगाया जा सके।
एसेंबली में बम फेंकने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सज़ा मिली। वहीं, सैंडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फाँसी की सज़ा सुनाई गई। इन तीनों क्रांतिकारियों को 23 मार्च 1931 को वर्तमान में पाकिस्तान स्थित लाहौर सेंट्रल जेल में शाम 7 बजकर 33 मिनट पर फाँसी दे दी गई। इसके साथ ही ये क्रांतिकारी सदा के लिए अमर हो गए।