आपके योगदान कितने याद किए जाएँगे और कितने भुला दिए जाएँगे ये इस पर भी निर्भर करता है कि आपने उसे खुद कितना याद रखा है। नेताओं, स्थानीय विधायकों, कॉन्ग्रेस जैसों का पाप इसमें फिर भी कम गिना जाना चाहिए। असली कसूरवार है रीढ़विहीन, गफलत में डूबी, जातिवादी, पलायन के शौक़ीन, उजड्ड और अन्य कई संबोधनों से नवाजने योग्य बिहारी जनता। क्यों ? क्योंकि इन्हें अशर्फी मंडल याद नहीं, बसंत धानुक पता नहीं, शीतल और सांता पासी याद नहीं। ये सिर्फ चंद नाम हैं।
इनके अलावा थे रामेश्वर मंडल, विश्वनाथ सिंह, महिपाल सिंह, सुकुल सोनार, सिंहेश्वर राजहंस, बद्री मंडल, गैबी सिंह, चंडी महतो, झोंटी झा। इनमें से किसी नाम का जिक्र सुना है? नहीं सुना तो बता दें कि ये वो 13 लोग थे, जिनके शव की शिनाख्त हुई थी- इनके अलावा 31 शव ऐसे थे जिनकी शिनाख्त नहीं हो पाई थी। जो गंगा में बह गए, उनका कोई हिसाब नहीं है।
अंग्रेज कलेक्टर ई. ओली के आदेश पर एक निहत्थी भीड़ पर एस.पी. डब्ल्यू. फ्लैग ने गोलियाँ चलवा दी थीं। नहीं-नहीं, जलियाँवाला की बात नहीं कर रहे भाई! वहाँ जनरल डायर था, और वहाँ लाशें बहाने के लिए गंगा कहाँ होती है वहाँ? ये घटना जलियाँवाला बाग़ के बाद की है। 15 फ़रवरी 1932 की इस घटना में मारे गए ज्यादातर लोगों को लापता घोषित कर दिया गया था। बिलकुल जलियाँवाला की तरह बेरहमी से मारे गए लोगों का आज जिक्र करना भी किसी को जरूरी नहीं लगता।
मुंगेर आज बिहार का एक जिला है- पहले बंगाल था। कई बार जिन क्रांतिकारियों, लेखकों को आप बंगाल का जानते-पढ़ते हैं वो इस वजह से भी है कि बिहार को बने हुए ही सौ साल हुए हैं।
पुराने दौर में बंगाल माने जाने वाले मुंगेर, दरभंगा, भागलपुर जैसे इलाकों से अहिंसावादियों ने ही नहीं बल्कि कई बार सशस्त्र क्रांतिकारियों ने भी फिरंगियों की नाक में दम किया था। हालाँकि, कोई भी कॉन्ग्रेसी नेता 1920 से 1947 के दौर के स्वतंत्रता संग्राम में नहीं मारा गया, लेकिन आम जन ने अक्सर पुलिस की गोलियाँ झेली थी।
फ़रवरी 1932 में मुंगेर के शंभूगंज थाने में आने वाले सुपोर, जमुआ में एक मीटिंग हो रही थी। श्री भवन की इसी मीटिंग में तारापुर थाने पर तिरंगा फहराने की बात रखी गई। मुंगेर का यह इलाका पहाड़ी है। महाभारत कालीन कर्ण का क्षेत्र अंग देश माने जाने वाले इस इलाके में देवधरा पहाड़ और ढोल पहाड़ी जैसे इलाके हैं, जो अपनी बनावट और जंगल की वजह से अक्सर क्रांतिकारियों को सुरक्षा देते थे। गंगा के दूसरे पार बिहपुर से लेकर बाँका और देवघर तक के इलाकों में क्रांतिकारियों का प्रभाव काफी ज्यादा था।
15 फ़रवरी की सुबह होते होते तारापुर में भीड़ जमा होने लगी। दोपहर में जब ये लोग झंडे के साथ आगे बढे तो अंग्रेज कलेक्टर ई. ओली के आदेश पर एक निहत्थी भीड़ पर फिरंगी एस.पी. डब्ल्यू. फ़्लैग ने गोलियाँ चलवानी शुरू कर दीं। गोलियाँ चलती रहीं, पर लोग बढ़ते रहे और आखिर झंडा फहरा दिया गया। आश्चर्यजनक था कि गोलियाँ चलने पर भी लोगों ने बढ़ना नहीं छोड़ा ! बाद में और कुमुक आने पर पुलिस ने दोबारा थाने को अपने कब्जे में लिया।
तथाकथित “पंडित”, पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू ने इस घटना पर 1942 की अपनी तारापुर यात्रा में 34 शहीदों का उल्लेख किया था, और कहा था कि शहीदों के चेहरे पर लोगों के देखते-ही-देखते कालिख मल दी गई थी। बाद में कॉन्ग्रेस ने 15 फ़रवरी को “तारापुर शहीद दिवस” मनाने का प्रस्ताव पारित कर के इसकी घोषणा भी की थी। समस्या यह थी कि इसमें केवल पासी, धानुक, मंडल और महतो ही नहीं शहीद हुए थे- मरने वालों में झा और सिंह नामधारी भी थे। तो दलहित चिंतकों के लिए इस मामले में रस नहीं होता। इसलिए यह नाम भी गुमनाम ही रह गए, और मुंगेर भी नेताओं के लिए जलियाँवाला जितना जरूरी नहीं बना।
बाकी तो जिस जनता ने भी अपने ही बलिदानियों को भुला दिया, उस जनता को भी शत-शत नमन!