संसद में लगते एक विद्रूप अट्टहास पर प्रधानमंत्री महोदय ने कहा था, “लगाने दीजिए, ऐसी हँसी रामायण सीरियल के बाद से नहीं सुनी!” वो बड़े राजनीतिज्ञ हैं, प्रधानमंत्री भी। सुरक्षा व्यवस्था की मजबूरियाँ उन्हें चौक-चौराहों पर खड़े होकर लोगों की बातें नहीं सुनने देती होगी। समय शायद इतना नहीं मिलता होगा कि टीवी पर भारत के “तथाकथित” न्यूज़ चैनल देख पाएँ। वरना ऐसी हँसी कोई बरसों न सुने ऐसा कैसे हो सकता है? जनता के हितों को बूटों तले रौंदकर जनतंत्र के चार खम्भों में से किसी न किसी खम्भे के एक पुर्जे की ऐसी हँसी तो रोज ही सुनाई देती है!
बालकनी में काटे जाते बकरों का खून एक खम्भे को सफाई लगता है और साथ ही जब होली के रंगों में वो दाग ढूंढते हैं, तब न्यायपालिका से ऐसा ही अट्टहास सुनाई देता है। जब इन्दिरा जयसिंह को सुप्रीम कोर्ट के चैम्बर में शराब पर पाबन्दी के लिए आन्दोलन चलाना पड़ता है, उस वक्त किसका अट्टहास सुनाई देता है? एक खम्भा जब छत से फेंके गए किसी गुब्बारे के वीर्य से भरे होने की खबर गढ़ लेता है तब अट्टहास ही तो सुनाई देता है। उसी स्तम्भ को महान बताते तमाम प्रगतिशील चेहरों पर से जब #मी_टू अभियान में नकाब नुचता है, तब खोजी पत्रकारिता पर कौन हँसा था?
आज सत्य, अहिंसा और न्याय की बात करने वालों को ये भी बताना चाहिए कि हाथों में कलावा बांधे एक जेहादी कसाब के जिन्दा पकड़े जाने से अगर पोल न खुली होती तो वो जिस किताब का विमोचन कर रहे थे, उसके जरिए कौन से सत्य, कैसी अहिंसा और कहाँ के न्याय की पैरोकारी कर रहे थे? मुंबई आतंकी हमलों में बेगुनाहों के खून में न्याय ही तो बहा था! निहत्थों पर हमले में अवश्य अहिंसा हुई होगी! शायद उनका कहा ही सत्य होता है, इसलिए एक पाकिस्तानी के जेहादी हमले को आरएसएस की साजिश बताकर #हिन्दूआतंकवाद का नैरेटिव ही शायद उनका #पोस्टट्रुथ वाला सत्य होगा!
ऐसे ही किसी अट्टहास के डर से तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की बात पर राजनीति में उतरे #आआपा समर्थक भी चुप्पी लगा जाते हैं। अगर ऐसा अट्टहास न सुनाई देता होता, तो #आआपा समर्थक प्रोफेसर आनंद प्रधान के खामोश हो जाने के पीछे क्या राज है? कसाब के साथी आतंकियों के जो टूरिस्ट गाइड बने जो भट्ट उन्हें मुंबई दर्शन करवा रहे थे, उनकी बहन पूजा भट्ट जब आतंकवाद का भय दिखाती हैं तब भी तो ऐसा ही अट्टहास सुनाई देता है। तथाकथित आजादी के सात दशकों में हिन्दुओं के #मानवाधिकार छीनते रहने वालों का अट्टहास हर ओर तो सुनाई देता है!
बाकी ये भी ध्यान रखिए कि ऐसे अट्टहास हमें सुनाई इसलिए देते हैं क्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी, समाचारपत्र, रेडियो, टीवी चैनल जैसे संसाधनों पर कब्ज़ा कर रखा है। अभिजात्यों के हाथ से ये माइक छीन लिए जाएँ तो उनके अट्टहास की दशा “जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?” की सी हो जाएगी। मतदान इन मुट्ठी भर अभिजात्यों से ये माइक और लाउडस्पीकर छीनने का मौका भी देता है। मतदान कर्तव्य ही नहीं, अब नैतिक बाध्यता भी है। सुधार की कोशिशें न करने वालों को शिकायत का नैतिक अधिकार नहीं रहता, ये तो याद ही होगा।