श्रद्धा मर्डर जैसे किसी भी सनसनीखेज अपराध से जुड़ी जानकारियाँ सुर्खियों में आते ही हमारे मन में तमाम तरह के सवाल उमड़ते हैं। हम सोचने लगते हैं कि आखिर पीड़िता पुलिस के पास क्यों नहीं गई होगी, उसने क्यों अपने पड़ोसियों को कुछ नहीं बताया गया, वो क्यों नहीं चिल्लाई होगी, उसने क्यों मदद नहीं माँगी होगी? ये सब सवाल अंतहीन है और इनके ऊपर दी जाने वाली जजमेंट एकदम निराधार।
इंसानी स्वभाव बेहद जटिल होता है। जब हम अखबारों और टीवी चैनलों में क्राइम के बारे में पढ़ते हैं हमें किसी के जीवन का बस एक पहलू पता होता है, वो भी या तो रिपोर्टर के नजरिए से या फिर उस जाँचकर्ता की नजर से, जिन्हें अपराध से पहले उस व्यक्ति के बारे में कुछ पता तक नहीं होता।
हाल का श्रद्धा वाकर केस ऐसा ही है। हत्या के बाद श्रद्धा के जीवन पर, उसके रिलेशनशिप पर, उसके अपने माता-पिता से संबंधों पर, उसकी पसंद-नापसंद पर काफी चर्चा है और इंसान होने के नाते हम लोग सारे उमड़ते सवालों पर काफी तेजी से प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं।
इन्हीं सवालों में से एक सवाल यह है कि आखिर श्रद्धा ने आफताब को समय रहते क्यों नहीं छोड़ा? इस प्रश्न पर हर क्षेत्र के लोग अपनी अपनी राय जोड़ रहे हैं। कुछ लोग नारीवाद को दोषी ठहरा रहे हैं तो कुछ श्रद्धा के पिता को कि उन्होंने अपनी बेटी को दोबारा क्यों नहीं स्वीकारा। कुछ लोगों की शिकायत आधुनिक समाज से है…जिसकी वजह से लड़कियाँ इतनी हिम्मत करती हैं कि वो बाहर निकल पाएँ, बंदिशों को तोड़कर प्रेमी के साथ रह पाएँ…।
इन सबके बीच श्रद्धा की वो तस्वीरें भी हैं जिसमें नजर आ रहे चेहरे पर तमाम निशान हैं और जो ये सवाल खड़ा कर रहे हैं कि आखिर उसने आफताब को क्यों नहीं छोड़ा होगा?
दरअसल, सच कभी एक नैरेटिव या सटीक व्याख्या नहीं हो सकता। आज श्रद्धा मर्डर केस भले ही मीडिया सुर्खियों में है, लेकिन ये भी वास्तविकता है कि उसकी हत्या के बाद ऐसे ही हिंसा के तमाम केस सामने आए हैं। हर मामला एक दूसरे से अलग है। फिर चाहे वो पीड़िता की मानसिकता के मामले में हो, उसकी परिस्थितियाँ के बारे में हो या फिर अपराधी के सोचने के ढंग पर हो।
सामाजिक दबाव
घरेलू हिंसा की पीड़िताएँ अक्सर मारपीट, भय और ग्लानि में जकड़ी होती हैं। उनके पास सोचने समझने की आजादी नहीं होती। उन्हें डर होता है कि अगर उन्होंने गलत के खिलाफ आवाज उठाई तो क्या होगा, समाज क्या कहेगा, उनपर क्या-क्या कलंक लगाएगा। एक शादीशुदा औरत से उम्मीद की जाती है कि वो सिर्फ सब कुछ सहे और बदले में कुछ न कहे, क्योंकि अगर कुछ कहा और कुछ गलत हुआ तो सारी गलती उसी की मानी जाएगी। कभी अच्छी पत्नी न होने के लिए उसे कोसा जाएगा, कभी अच्छी बहू न होने के लिए और कभी अच्छी माँ न होने के लिए…। हमारे देश में किसी न किसी माध्यम से हमेशा से ये बताया जाता रहा है कि घर की महिला के पास हर गलत को सही करने की ताकत होती है, लेकिन फिर भी अगर वो चीज गलत हो जाए तो उसके लिए जिम्मेदार औरत ही होती है।
रिश्ता चाहे शादी का हो या लिव-इन का… महिलाओं को हमेशा से प्रताड़ित किया गया। हाँ, ऐसे पुरूष भी हैं जो प्रताड़ित होते हैं, वो भी घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं, लेकिन फिर भी जो घरेलू हिंसा सहने वालों की संख्या है वो महिलाओं में ज्यादा है और ऐसा सिर्फ भारत के नहीं बल्कि पूरे विश्व के आँकड़े कहते हैं। घर की बंदिशें औरतों को बोलने नहीं देतीं। शादी वाले में रिश्तों में महिलाओं की चिंता अपने बच्चे को लेकर होती है, उनके भविष्य को लेकर होती है और समाज में लांछन न लगे इस बात की होती है।
डर का फायदा
ऐसे रिश्तों में अपराधी के पास औरत का सारा कंट्रोल होता है और पीड़िता हर मायनों में अकेली रह जाती है। रिश्ता भयावह तब होता जाता है जब अपराधी जान जाए कि आखिर किस तरह से वो पीड़िता को सता सकता है या डरा सकता है। वो उन्हीं आधारों पर पीड़िता को प्रताड़ना देना शुरू करता है। वहीं पीड़िता भी कभी प्यार के नाम पर कभी कमजोरी में उसे सह लेती है और इस तरह अपराधी की हिम्मत और बढ़ जाती है।
रिश्ता चाहे शादी के बाद वाला हो या लिव-इन के दौरान का। अपराधी हमेशा पीड़िता की कमजोरी का फायदा उठाता है। श्रद्धा के केस में भी उसने अपने दोस्तों को मारपीट और गाली-गलौच के बारे में बताया था। आज उसके मैसेज वायरल हैं। जबकि भुवनेश्वर की उषाश्री परीदा के केस में हमें पता भी नहीं था कि उनका पति जिनके साथ उन्होंने दो बच्चों को जन्म दिया, जिनके साथ वह कई साल तक रहीं, वह उन्हें लगातार मारता था।
दरअसल ऐसे केसों में पीड़िताएँ अपनी सोचने-समझने की शक्ति खो देती हैं। उनके पास खुद को बचाने का तरीका नहीं बचता और न ही वो खुद इस विषय में सोच पाती हैं कि लगातार होती हिंसा से वह कैसे दूर हटें।
सब ठीक होने की उम्मीद
एक पीड़िता को नहीं पता चलता कि कब उसके साथ हदें पार कर दी गईं। अनुराग कश्यप की थप्पड़ मूवी में दिखाया गया कि कैसे एक थप्पड़ पड़ते ही महिला इस बात पर अड़ जाती है कि ये उसे अस्वीकार्य है और वो किसी कीमत पर उसके साथ नहीं रह सकती। हकीकत में ये सिर्फ फिल्मों में होता है। वास्तविक जीवन में औरतें केवल ये सोचती रह जाती हैं कि चीजें एक दिन ठीक हो जाएँगी। एक रिश्ते को 5 साल देने वाली महिला के लिए आसान नहीं होता कि वो एक पल में अपने रिश्ते में लगाई सारी उम्मीदें छोड़ दें।
हो सकता है श्रद्धा ने भी ये सब सोचा हो। उसे भी लगा हो कि आफताब के साथ सब चीजें सही हो जाएँगी। एक दिन सब ठीक हो जाएगा। समय सब ठीक कर देगा। आदि-आदि…। क्या ये सब सोचना हमें बचपन से नहीं सिखाया गया।
भविष्य का डर नहीं होने देता अलग
शोध बताते हैं कि शादीशुदा औरतें अपने रिश्ते में अपमान सहने के बावजूद उससे इसलिए नहीं निकल पाती क्योंकि उन्हें आर्थिक दिक्कतों के साथ-साथ बच्चों को खोने का डर होता है, उन्हें उनके भविष्य के लिए डर होता है। आज तमाम हेल्पलाइन नंबर हैं, पुलिस सहायता का आश्वासन है, एनजीओ हैं, लेकिन फिर भी तमाम महिलाएँ घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। दुर्भाग्य से वह लोग मानसिक रूप से सशक्त नहीं होतीं। उन्हें सिर झुकाकर मारपीट सहने की आदत हो जाती है। वो लोग जिनके लिए आज श्रद्धा हेडलाइन है वो ये जान लें कि ऐसी तमाम औरतें हैं जो अपनी आवाज नहीं उठा पा रहीं। उन औरतों को मारा भी नहीं गया फिर भी वो चुप हैं क्योंकि उन्हें उस माहौल में रहने की आदत हो गई है।
सोशल मीडिया पर जो राय निर्मित की जा रही है, लड़कियों को उसके कपड़ों के लिए शर्मसार किया जा रहा है, उन्हें पता होना चाहिए कि ऐसे हजारों द्वंद पीड़िता के भीतर चलते हैं। ये द्वंद भले ही समाज और राजनीति के कारण हमारे निजी विचारों से मेल न खाते हों लेकिन ये फिर भी पीड़िता के मन में चलते हैं। ऐसे में अगर हम कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम इतना करें कि अगर कोई जरूरतमंद मदद माँगे तो दयालु बनकर उसके लिए आगे आएँ।
महिलाओं की मदद के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग ने हेल्पलाइन नंबर निकाला हुआ है। जो भी महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं उनके लिए ऑल इंडिया हेल्पलाइन नंबर 181 और 1091 है। हर राज्य की अलग अलग हेल्पलाइन नंबर यहाँ देख सकते हैं।
नोट: ये लेख अंग्रेजी में लिखे गए लेख के अंशों पर आधारित है। आप मूल लेख इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।