Friday, November 15, 2024
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हिंदू धर्म स्त्री विरोधी… वामपंथियों ने फैलाया ‘मनुस्मृति वाला षड्यंत्र’: बाप-बेटी की कहानी से जानें मनुवाद

हिंदू धर्म को स्त्री विरोधी बनाने का का सारा समीकरण वामपंथी वर्ग संघर्ष और उस पर आधारित राजनीति पर आधारित है, जिसका एकमात्र ध्येय स्त्रियों को एक वर्ग के रूप में उस धर्म के प्रति उदासीनता और वितृष्णा से भर देना है, जो इस भारतवर्ष की सांस्कृतिक रीढ़ है।

किसी धर्म की मूल शक्ति ना उसके देव हैं ना ही उसके धर्मगुरु। किसी धर्म की मूल शक्ति उसके धर्मावलम्बी होते हैं। रोम की सभ्यता, ईरान की मूल सभ्यता, मेक्सिको, मेसोपोटामिया, मिस्र आदि सभी पुरातन सभ्यताओं के लुप्त हो जाने का मूल कारण उनके निवासियों का उस सभ्यता और धर्म में उदासीन हो जाना है। इसका कारण शासन का अत्याचार, जीविका का भय या अपने धर्म के विचारों से स्वतः ही उन्हें अप्रासंगिक जान के विरक्त हो जाना, कुछ भी हो सकता है।

इसका एक कारण यह भी है कि बाद के धर्मों में जहाँ उन धर्मों के नेताओं का अपना साम्राज्य निर्माण या सुरक्षा के उद्देश्य से अपने अनुयायियों को बाँधे रखने का नियम और नीतियाँ थी, प्राचीन धर्म मूलतः दर्शन थे और जीवनयापन के उचित मार्ग की अनुशंसा करते थे। ऐसे में इन धर्मों को ध्वस्त करने के लिए नवानगंतुक धर्मों एवं सम्प्रदायों ने उन्हीं प्राचीन धर्मों के समर्थकों में भय, दमन का अतिरिक्त उदासीनता भरने का भाव उत्पन्न किया।

इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि हिंदू सभ्यता या सनातन का जितना ह्रास धर्म के प्रति नैराश्य एवं उदासीनता हिंदुओं के भीतर भरे जाने के कारण हुआ, उतना संभवतः विदेशी आक्रांताओं की तलवार से नहीं हुआ। भारत के जिस भाग में इस्लाम का सर्वप्रथम प्रवेश हुआ, वहाँ हिंदू धर्म और व्यवहार का उस गति से क्षय तब तक नहीं हुआ, जब तक हिंदू ही धर्म के विरुद्ध में राजनैतिक रूप से लामबंद नहीं हो गए।

यह युद्ध लॉर्ड मेकौले ने शिक्षा पद्धति में परिवर्तन ला कर किया और स्वतंत्रता के पश्चात इस अभियान में वामपंथी भी जुड़ गए। इस कार्य के लिए समाज को जाति, भाषा, क्षेत्रवाद आदि को उभार कर निश्चित वर्गों को सनातन सभ्यता के विरुद्ध खड़ा किया गया। इस कार्य में मेरी समझ में एक वर्ग सनातन को साधने के लिए इस कारण बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता था क्योंकि वह संख्या बल में मोटे तौर पर आधी जनसंख्या बनता था।

पश्चिम के दुराग्रहों और चलन के सामान्य प्रभाव से इतर स्त्रियों को धर्म से विचलित करने का जैसा बौद्धिक स्तर पर संगठित प्रयास वामपंथी विचारकों के द्वारा किया गया, उसमें मुझे एक स्पष्ट षड्यंत्र दिखाई पड़ता है। भारत में सनातन धर्म के वैदिक विचारों की जब नींव पड़ी, उस वक्त पशुवध से कृषि आधारित सभ्यता में उतरते मनुष्य ने पाशविक बल के आगे बौद्धिक शक्ति को स्थान दिया। मानसिक उत्कृष्टता पर आधारित समाज का सबसे बड़ा दर्पण उसमें स्त्रियों की अवस्था है, यदि हम शक्ति प्रधान क्षत्रियों से ऊपर विद्या प्रधान ब्राह्मण वर्ण (कर्म पर आधारित वर्ण) को मानने की नीति को अनदेखा भी कर दें।

पश्चिमी विचारकों ने मनुस्मृति की रचना का समय लगभग 1000 ईसा पूर्व माना है परंतु वेदों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में मनुस्मृति के संदर्भों को देख के माना जा सकता है कि इसका काल ऋग्वेद के आस-पास का है। इसमें स्वामी दयानंद के अनुसार कई प्रक्षेप भी आ गए हैं।

निजी स्वार्थ के कारण और एक वैचारिक और दार्शनिक रूप से अविकसित क्षेत्र से आए विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में इसमें कई श्लोक बाद के समय में डाले गए, जो मूल श्लोकों से भावना एवं शैली में स्पष्ट विरोधाभास रखते हैं। ऐसे ही कई श्लोक स्त्री-विरोधी रहे जो उन शक्तियों के लिए हिंदू समाज को लिंग के आधार पर तोड़ने के लिए शस्त्र बने, जिनकी चर्चा हम इस लेख के प्रारम्भ में कर चुके हैं।

सत्ता के प्रभाव में उस हिंसक कबीलायी संस्कृति को उत्कृष्ट बताने का प्रयास होता रहा है, परंतु एक मरुस्थलीय, प्राकृतिक सुविधाओं से वंचित समाज कितना परिष्कृत हो सकता है इसे सामान्य समझ का व्यक्ति भी तार्किक रूप से समझ सकता है। आक्रांताओं के असभ्य व्यवहार के विषय में रामधारी सिंह दिनकर ने बहुत निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ भाव से लिखा है जब वो कहते हैं:

“अनेक धर्मों का स्वागत करते-करते, वे (हिंदू) धार्मिक मामलों में बहुत ही सहिष्णु हो गए थे। लड़ाई और मार-काट के दृश्य तो हिंदुओं ने बहुत देखे थे, उन्हें सपने में भी ख़याल ना था कि दुनिया में एकाध जाति ऐसी भी हो सकती है, जो मूर्ति तोड़ने और मंदिरों को भ्रष्ट करने में ही सुख माने। जब मुस्लिम-आक्रमण के साथ मंदिरों और मूर्तियों पर विपत्ति आई, हिंदुओं का हृदय फट गया।”

ऐसे समय में स्त्रियों की क्रूर आक्रांताओं से सुरक्षा के भाव से कुछ ऐसे प्रक्षेप भी धर्म के नाम पर ग्रंथों में डाले गए, जिसने उस परिष्कृत समाज की स्मृतियाँ भी मिटा दीं जिसमें ऋषिका गार्गी शास्त्रार्थ में विजेता ऋषि याज्ञवल्क्य को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दे देती है। कुछ प्रक्षेप स्वार्थवश भी आए, सम्पत्ति पर स्त्रियों का अधिकार लेने के हेतु परंतु ऐसे श्लोक भाव और शैली दोनो में मूल रचनाओं से इतने भिन्न थे कि यह स्पष्ट हो जाता था कि ये धर्म के मूल में नहीं थे।

परंतु जिन शक्तियों को स्त्री समाज को ही हिंदू धर्म और संस्कृत से विमुख करना था, वह इन्हीं प्रक्षेपों और अर्धसत्यों को ले कर खड़ा हो गया, यह स्थापित करने को कि जिस धर्म की रीढ़ ही स्त्री समाज था, जिस धर्म में सती के बिना शिव का अस्तित्व नहीं था, जिस सभ्यता में श्रीराम एक पत्नीव्रत की मर्यादा थाम के खड़े थे, उसमें स्त्रियों का कोई स्थान ही नहीं है। इतिहास की पुस्तकें ही इतिहास का दर्पण है। इस इतिहास में इतने तथ्य हैं जो इस मिथ्या प्रचार की पोल खोल देते हैं।

ऋग्वेद ना सिर्फ़ हिंदू धर्म का सबसे प्राचीन धर्म ग्रंथ है, मानव इतिहास का प्राचीनतम ग्रंथ है। इसमें ऋषिका लोपामुद्रा और गार्गी जैसी महान दार्शनिक देवियों के अलावा देवाहुति के लिखे श्लोक भी हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि वेद बहुत समय तक लिखे नहीं गए और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इसका ज्ञान मौखिक ही गया। कहने वाले कह सकते हैं कि क्योंकि मनु शासक थे तो उन्होंने भले ही अपनी पुत्री का लेखन अपने प्रभाव का उपयोग करके ऋग्वेद में घुसा दिया, परंतु अन्य स्त्रियों के लिए वेद और संस्कृत अध्ययन वर्जित रखा।

अब प्रश्न यह महत्वपूर्ण है कि उनके बाद के मनुवादियों ने ये श्लोक निकाल के बाहर क्यों नहीं किए? उत्तर स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी के यूरोप की भाँति महिलाओं के लिए 7000 से 5000 ईसा पूर्व के भारत में स्त्रियों के लिए शिक्षा, दर्शन एवं लेखन के मार्ग बन्द नहीं थे, और उन्हें मिथ्या परिचय के साथ अपने विचार सार्वजनिक पटल पर नहीं रखने पड़ते थे। यह अन्य चर्चा का विषय है, मैं इस लेख में मनु की पुत्री देवाहुति के जीवन का एक ही प्रसंग साझा करना चाहता हूँ जिसके एक-एक भाव, एक-एक शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि मनु के समाज में स्त्रियाँ कितनी मुक्त एवं सशक्त थीं।

हिंदू विचार में माना जाता है कि समस्त मानव समाज का उद्भव स्वयंभू मनु से हुआ, जो प्रथम मनुष्य और प्रथम शासक थे। उनके दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपद तथा तीन बेटियाँ- अकुति, देवाहुति एवं प्रसूति थीं। मनु ऋषि कर्दम से मिलते हैं और उन्हें बताते हैं कि उनकी पुत्री शिक्षित एवं विवाह-योग्य है।

मनु कहते हैं – यदा तु भवतः शीलश्रुतरूपवयोगुणान। अश्रुणोत नारदाद एषा तव्ययासीत कृतनिश्चया।।
इन श्लोकों का अर्थ शब्दशः समझें तो उस काल की समाज व्यवस्था और उसमें स्त्रियों की स्थिति परिलक्षित होती है। यहाँ मनु कहते हैं – “जब उसने (मेरी पुत्री देवाहुति ने) ऋषि नारद से आपके उत्तम चरित्र, रूप, आयु एवं गुणों के विषय में सुना है, उसका हृदय आप पर ही निश्चित हो गया है।”

यह एक पिता हैं, जो स्वयं मनु हैं, विश्व के सम्राट हैं, क्षत्रिय हैं और एक ब्राह्मण ऋषि से अपनी पुत्री का विवाह इस कारण से करना चाहते हैं क्योंकि उनकी पुत्री ने अपने विवेक के अनुसार सब गुणों, वय, चरित्र एवं ज्ञान को देख कर उनसे विवाह का प्रण लिया है। इसमें कोई राजनीतिक कारण नहीं है, जिसमें कन्या बिसात पर बिछी कौड़ी हो, कन्या का विवेक है, उसका अधिकार है, निश्चय है और पिता की सहज स्वीकृति है।

इसके बाद के श्लोक में महाराज मनु ऋषि को अपने प्रस्ताव को स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं। इसमें कोई वर्ग संघर्ष नहीं है जबकि सम्बन्ध एक राज पुत्री एवं एक निर्धन विद्वान के मध्य प्रस्तावित है। कर्दम ऋषि जो उत्तर देते हैं, उसमें भी उस समय के अनेक सत्य उद्घाटित होते हैं। ऋषि कन्या की ओर से प्रस्ताव पा के, ना तो अचंभित होते हैं ना स्वयं को अपमानित मानते हैं।

वे कहते हैं- ऋषिरुवाच बाढ़मुध्वोढुकामोहमप्रत्ता च तवात्मजा। आवयो: अनुरूपसौ आद्यो वैवाहिको विधि: ।।
ऋषि कहते हैं – “मैं अवश्य ही विवाह को इच्छुक हूँ, और आपकी पुत्री क्योंकि ना तो विवाहित है और ना ही उसने किसी अन्य से विवाह हेतु वचनबद्ध है अतः हमारा विवाह विधिसम्मत रूप से सम्भव है।”

इस कथन में कन्या के चुनाव और कन्या की भावनाओं की महत्ता देखने योग्य है। केवल देवाहुति के पिता ही नहीं उनके सम्भावित पति भी उनके चयन, उनके विचार और उनकी भावनाओं के आधार पर ही चल रहे हैं। यह मनुवादी समाज है, जिसके विषय में हिंदू स्त्रियों को भयभीत किया जाता है। इसके आगे ऋषि देवाहुति के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यहाँ ऋषि कर्दम कहते हैं।

वे कहते हैं – अतो भजिष्ये समायेना साध्विम यावत्तेजो बिभृयाद् आत्मनो मे। अतो धर्मान पारमहंस्यमुख्यान, शुक्लप्रोक्तान बहु मान्येविहिमस्रान।।
“मैं इस पवित्र कन्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करूँगा परंतु इस वचन के साथ कि संतानोत्पत्ति के पश्चात मैं अपना जीवन ईश्वर की साधना में लगा दूँगा।”

एक संतुलित समग्र सम्बन्ध में अपनी भविष्य की योजनाओं एवं अभिलाषाओं को विवाह से पूर्व पत्नी से साझा करने की यह भावना तो अठारहवीं शताब्दी के पश्चिम में भी नहीं दिखती और आधुनिक समय में भी बहुधा विवाहों के टूटने का कारण एक दूसरे की अभिलाषाओं से अनभिज्ञता और उनके प्रति असम्मान होता है। अब इस सारे प्रकरण में देवाहुति के अतिरिक्त एक और स्त्री है, देवी शतरूपा, समस्त विश्व की साम्राज्ञी, मनु की पत्नी एवं देवाहुति की माता। क्या मनु उसे कहते हैं कि तुम अंदर जा के रसोई देखो?

मनु देखते हैं- सोऽनु ज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितुः स्फुटम। तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षित: ।।
“यह देख कर कि इस सम्बंध में महारानी शतरूपा एवं पुत्री की स्पष्ट अनुमति है, महाराज मनु प्रसन्न हो अपनी पुत्री उसे सौंप देते हैं जो गुणों से सम्पन्न है एवं गुणों में उनकी पुत्री के समान (तुल्यां) है।”

समस्त विश्व के सम्राट, मनुवाद के प्रतिपादक, महाराज मनु, पुत्री एवं पत्नी की अनुमति पा कर ही कन्यादान के लिए आगे बढ़ते हैं। ऐसे सामंजस्य से ही ऐसे सुंदर परिवार बनते हैं, जो आगे ऐसी सभ्यता का निर्माण करते हैं जो सनातन होती है।

इस एक प्रसंग से और देवाहुति एवं मनु के चरित्र के अध्ययन से कई प्रकार के मिथ्याप्रचार की कलई खुल जाती है। साथ ही इस सारे प्रसंग में एक पिता, एक पति, एक पुत्री – तीनों के लिए इतने संदेश हैं जो जीवन और जीवन में स्त्री का उचित स्थान निश्चित करने के लिए पर्याप्त है। एक पिता जो अपनी पुत्री को इतना शिक्षित करता है, और इस योग्य बनाता है कि उसकी पुत्री विवेकपूर्ण निर्णय स्वतंत्र मन से ले सके, वह मनु किस प्रकार स्त्री विरोधी हो सकते हैं यह समझना आवश्यक है।

हिंदू धर्म को स्त्री विरोधी बनाने का का सारा समीकरण वामपंथी वर्ग संघर्ष और उस पर आधारित राजनीति पर आधारित है, जिसका एकमात्र ध्येय स्त्रियों को एक वर्ग के रूप में उस धर्म के प्रति उदासीनता और वितृष्णा से भर देना है, जो इस भारतवर्ष की सांस्कृतिक रीढ़ है। यह सारी रणनीति इस विश्वास पर आधारित है कि शताब्दियों की सांस्कृतिक इतिहास की शिक्षा की टूटी धारा के इस ओर अब सत्य तो सरस्वती बन के भूमि में समाहित हो चुका होगा। इस से लड़ने के लिए हमें उस सरस्वती की धारा को पुनर्जीवित करना होगा जो भविष्य और अतीत के मध्य का पवित्र संगम बना सके।

संदर्भ: भागवत पुराण, तृतीय खंड | संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर

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Saket Suryesh
Saket Suryeshhttp://www.saketsuryesh.net
A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Writer, Columnist, Satirist. Published Author of Collection of Hindi Short-stories 'Ek Swar, Sahasra Pratidhwaniyaan' and English translation of Autobiography of Noted Freedom Fighter, Ram Prasad Bismil, The Revolutionary. Interested in Current Affairs, Politics and History of Bharat.

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