देश की रक्षा एवं सुरक्षा देश के विकास का ही एक अंग है। हम सुरक्षित हुए बिना विकसित होने की कल्पना नहीं कर सकते। इसीलिए वार्षिक बजट को विकासोन्मुख तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक उसमें रक्षा क्षेत्र में पर्याप्त धन का आवंटन न हुआ हो। रक्षा क्षेत्र भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही उदासीन रहा है।
ऐसे में किसी भी सरकार से यह आशा रखना कि वह डिफेंस बजट में कुछ उल्लेखनीय वृद्धि करेगी एक दिवास्वप्न की तरह है। मोदी सरकार के कार्यकाल को देखें तो 2015 से लेकर अब तक प्रत्येक बजट में वृद्धि ही हुई है जिसमें सर्वाधिक वृद्धि उस वर्ष हुई थी जब वन रैंक वन पेंशन स्कीम को लागू किया गया था।
पिछले चार वर्षों का अनुमानित रक्षा बजट देखें तो 2015-16 में ₹2,33,000 करोड़, 2016-17 में ₹2,58,000 करोड़, 2017-18 में ₹2,74,114 करोड़, 2018-19 में ₹2,82,733 करोड़ तथा वर्तमान वित्तीय वर्ष 2019-20 में ₹3,05,296 करोड़ आवंटित हुए।
धीमी गति से हुई इस वृद्धि से उन सभी रक्षा खरीद परियोजनाओं के लंबित होने की संभावना है जो गत चार-पाँच वर्षों में साइन की गई हैं। साथ ही यह भी देखना होगा कि 2012 में स्वीकृत हुए Long Term Integrated Perspective Plan के अंतर्गत 15 वर्षों में की जाने वाली हथियारों की खरीद पर भी कम बजट आवंटन से प्रभाव पड़ेगा।
वित्तीय वर्ष 2019-20 के दौरान रक्षा बजट में मात्र ₹22,563 करोड़ की वृद्धि की गई है। इससे सशस्त्र सेनाओं का आधुनिकीकरण प्रभावित होगा। गत वर्ष रक्षा मामलों की संसदीय समिति के सामने वाइस चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल शरत चंद्र ने कहा था कि बजट में जितना धन आवंटित किया जा रहा है उससे लिमिटेड लायबिलिटी तक पूरी नहीं होती।
बजट में धन कितना आवंटित होता है इससे अधिक आवश्यक यह है कि उस धन का कितना प्रतिशत वित्तीय वर्ष में वास्तव में खर्च होता है। सरकार इस पर भी विचार कर रही है कि थलसेना में अनावश्यक खर्चों की कटौती की जाए और सेना के आकार को छोटा लेकिन अधिक प्रभावी बनाया जाए। इस दृष्टि से रक्षा बजट में कमी एक मुद्दा तो है लेकिन यह राष्ट्रीय सुरक्षा के पूरे कैनवास को कवर नहीं करता।
सुरक्षा का अर्थ केवल रक्षा मंत्रालय अथवा सशस्त्र सेनाएँ ही नहीं हैं। स्थिर आर्थिक उन्नति भी हमें सुरक्षा प्रदान करती है। हमारी समूची रक्षा व्यवस्था में कम बजट आवंटन से भी बड़ी समस्याएँ हैं। यह समस्याएँ हैं रक्षा खरीद और उत्पादन में होता अनावश्यक विलंब, रक्षा मंत्रालय के बाबूओं का ढुलमुल रवैया, संसाधनों का समुचित उपयोग तथा जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों की जवाबदेही।
पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इन कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास किया था और निर्मला सीतारमन भी उसी को आगे बढ़ा रही हैं। यह भी सत्य है कि रक्षा क्षेत्र में सुधार कोई चार पाँच वर्षों में समाप्त होने वाली प्रक्रिया नहीं है, इसके पूरा होने में समय लगना जायज़ है। गत पाँच वर्षों में जिस तेज़ी से रक्षा खरीद के निर्णय लिए गए वह उल्लेखनीय है।
हाल ही में डिफेन ऐक्विज़िशन कॉउन्सिल ने 6 सबमरीन के निर्माण के लिए ₹40,000 करोड़ स्वीकार किए हैं। भारत सरकार ने राफेल की खरीद में भी तेज़ी दिखाई जिसके कारण वर्ष 2019 के अंत तक राफेल की पहली खेप भारतीय वायुसेना को मिल जाएगी।
साथ ही देश के अन्य क्षेत्रों जैसे ढाँचागत सुधार, वित्तीय समावेश, स्वच्छ्ता, स्थिर आर्थिक प्रगति, महिला सशक्तिकरण और विज्ञान एवं तकनीक ऐसे क्षेत्र हैं जिनके विकास से देश सशक्त मानव संसाधन तैयार करता है। इसी संसाधन के उपयोग से रक्षा प्रतिष्ठान को बल मिलता है। गत पाँच वर्षों में मोदी सरकार ने इन क्षेत्रों को विकसित करने पर काफ़ी ध्यान दिया है। इसलिए हम आशा कर सकते हैं कि आने वाले वर्षों में रक्षा बजट बढ़ेगा और रक्षा खरीद तथा उत्पादन में तेज़ी आएगी।