Tuesday, November 19, 2024
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साध्वी का दोष कि वो हिन्दू थी? कि पिता IAS नहीं थे? कि वो LSR की छात्रा नहीं थी?

सिद्धांततः हेमंत करकरे के साथ सबसे बड़ा अन्याय तो वह था जो उनके हत्यारों को बचाने के लिए 26/11 को भारतीय साज़िश बता कर एक राजनेता पुस्तक लॉन्च कर रहे थे। साध्वी की बात तो एक व्यक्तिगत प्रयास है एक दुःखद प्रसंग से स्वयं को बाहर लाने का।

आपने कितनी बार गाँव में, शहर में आम लोगों को कहते सुना है- हाय लगी है उसको। दैवीय न्याय असहाय के मन का झूठा सहारा है। यह कहने भर पर एक ऐसी महिला पर शिकारी झुण्ड का टूट पड़ना, जिसने लगभग एक दशक जेल में काटा हो, बौद्धिक आतंकवाद और वैचारिक अतिवाद नहीं है तो क्या है? वह कौन लोग हैं जो हमारे भगवान तय करते हैं नेहरू के समय से, और तालिबान की भाँति बँदूक और पत्थर लेकर हमारे घरों के बाहर खड़े हो जाते हैं, एक ज़िद और धमकी के साथ- बोल कि मेरा भगवान तेरा भी भगवान है! यह कैसी असहिष्णुता है जो पीड़ित को हाय भी न करने दे?


जो लोग यह कहते हैं कि एक शहीद के ऊपर कुछ कहा नहीं जाना चाहिए क्योंकि वह जीवित नहीं है, वही लोग राजनैतिक मंचों से सार्वजनिक रूप से सावरकर पर लगाए गए झूठे लांछन पर विद्रूप मुस्कुराहट परोसते हैं। क्यों नहीं राहुल गाँधी को राजनीति से त्यागपत्र देना चाहिए? मज़े की बात है कि जो उस कसाब को मुक्त कराने के लिए क्षमा पत्र लिख रहे थे, आज भी उस कसाब और उस अफ़ज़ल के लिए जुलूस निकालते हैं, जिनकी हिंसा के हेमन्त करकरे शिकार हुए, जो करकरे की शहीदी को साज़िश बता कर पुस्तक रिलीज़ करा रहे थे, आज शहीद के सम्मान को ले कर चिंतित हैं।

एक पीड़ित महिला के पीछे अभिजात्य समाज कलंक की स्याही लेकर पड़ जाता है, उसका तो अपना व्यक्तिगत दुख था। दिग्विजय सिंह का शहीद मोहन चंद शर्मा के मामले में कौन सा दुख था? बाटला का सत्य सामने आने पर भी उन्होंने प्रश्न वापस नहीं लिए। साध्वी घाघ नेता नहीं है, दिग्विजय हैं। एक घाघ नेता मोहनचंद शर्मा की शहीदी को झूठा बताता रहता है, एक महिला कुटिल कोलाहल से सहम उठती है, उस वक्तव्य को वापस लेती है। घाघ नेता से कोई प्रश्न नहीं पूछता, महिला को कोने मे खड़ा कर के दोहराने को कहा जाता है- बोलो, हमारे भगवान तुम्हारे भगवान हैं।

एम जे अकबर की भूमिका रही थी हज़ारों भारतीयों को यमन संघर्ष से बचाने में। किंतु हम यह नहीं कहते कि महिलाओं का उनपर आरोप लगाने का अधिकार नहीं है। हम उन महिलाओं के चेहरे पर कालिख नही फेंकते। साध्वी का दोष यही है कि उसके पिता प्रशासनिक अधिकारी नहीं थे, वह एलएसआर में नहीं पढ़ी?

मैं साध्वी की बात से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि मुझे जेल में डाल कर प्रताड़ित नहीं किया गया, मैं पीड़ित नहीं हूँ और महिला भी नहीं हूँ। मैं सत्य नहीं जानता। मैं यह जानता हूँ जहाँ कान पकड़ने पर एक व्यक्ति पुलवामा में 45 लोगों की हत्या कर देता है, एक साधनहीन महिला सिर्फ़ एक श्राप दे कर ठहरती है। एक निरीह महिला बम बाँधकर सैनिकों को नहीं मारती क्योंकि उसके विचार इसका साथ नहीं देते। वह हाय करती है, श्राप देती है, और विधि के विधान को परमात्मा का न्याय मान कर संतोष धरती है। बौद्धिक समाज गोलबंद होकर कहता है- कुलटा, क्षमा माँग और सार्वजनिक जीवन से पीछे हो बौद्धिक कारागृह में बैठ!

ये लोग और कोई नहीं हैं, वही हैं जो मध्य युग में औरतों को डायन बता कर यूरोप में जला दिया करते थे। जो तय करते थे कि सार्वजनिक सोच की क्या दिशा होगी और अलग शब्द, अलग विचार की निर्ममता से हत्या करते थे। मैं साध्वी की बात से इसलिए भी सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं दैवीय न्याय के सिद्धांत पर विश्वास नहीं रखता। मैं मानता हूँ कि दैवीय न्याय असहाय को संतोष देने का साधन मात्र है। जो लोग श्राप देने को अपराध घोषित कर रहे हैं, मूर्खता कर रहे हैं और यूरोप के अँधकारयुग को भारत में लाना चाहते हैं।

सिद्धांततः हेमंत करकरे के साथ सबसे बड़ा अन्याय तो वह था जो उनके हत्यारों को बचाने के लिए 26/11 को भारतीय साज़िश बता कर एक राजनेता पुस्तक लॉन्च कर रहे थे। साध्वी की बात तो एक व्यक्तिगत प्रयास है एक दुःखद प्रसंग से स्वयं को बाहर लाने का, दैवीय न्याय मान कर एक अध्याय बंद करने का। नैतिकता और दर्शन की बातें उस महिला को बताना जो उस देश में दस साल क़ैद में, समाज और सोच से दूर गुमनामी और उपेक्षा में प्रताड़ित हुई जहाँ एक अभिजात्य पत्रकार को आया भद्दा ट्वीट राष्ट्रीय समस्या हो, अपने आपमें एक निर्मम कुटिलता है।

जो लोकतंत्र एक पीड़ित को स्वर का अधिकार न दे सके, वह निरर्थक है। लोकतंत्र में मेजर गोगोई नायक भी बनते हैं और उनका कोर्ट मार्शल भी होता है। अम्बेदकर अपने भाषण ‘ग्रामर ऑफ़ अनार्की’ में कहते हैं, “महान लोगों के प्रति आभारी होने में कोई समस्या नहीं है किंतु कृतज्ञता की सीमाएँ होनी चाहिए।” अम्बेदकर आयरिश क्रांतिकारी डैनियल ओ कोनेल का संदर्भ दे कर कहते हैं, “कोई पुरूष स्वाभिमान के मूल्य पर और कोई स्त्री सम्मान के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकती है। साध्वी को हमें इसी मानक पर तौलना चाहिए और समाज के वैचारिक तालिबानीकरण से बचना चाहिए।

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Saket Suryesh
Saket Suryeshhttp://www.saketsuryesh.net
A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Writer, Columnist, Satirist. Published Author of Collection of Hindi Short-stories 'Ek Swar, Sahasra Pratidhwaniyaan' and English translation of Autobiography of Noted Freedom Fighter, Ram Prasad Bismil, The Revolutionary. Interested in Current Affairs, Politics and History of Bharat.

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