गोविंदा भले ही कॉन्ग्रेस से आधिकारिक तौर पर 2008 में ही किनारा कर चुके हों, लेकिन जनता की याद में उनकी आज सुबह तक ‘कॉन्ग्रेस वाला’ की छवि थी। मुंबई के लोग उन्हें भाजपा के कद्दावर नेता और वर्तमान में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक को हराने वाले ‘जायंट किलर’ के रूप में याद रखते हैं। इसलिए कॉन्ग्रेस भले ही उनके आगामी महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा उम्मीदवार चैनसुख मदनलाल संचेती के पक्ष में प्रचार से कन्नी काटने की कोशिश करे, लेकिन इसे देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के घटते आभामंडल से जोड़ कर देखना गलत नहीं होगा।
Buldhana: Actor Govinda campaigns for Chainsukh Madanlal Sancheti, BJP’s candidate for the Malkapur assembly constituency. #MaharashtraAssemblyPolls pic.twitter.com/mJbGGTwb5N
— ANI (@ANI) October 19, 2019
1999-2000 में ‘सदी के सबसे चमकदार फ़िल्मी और मंच के सितारों’ की जिस फेहरिस्त में अमिताभ बच्चन ने ‘टॉप’ किया था, गोविंदा उसमें अंतरराष्ट्रीय 10वें नंबर के स्टार थे। यानी इंडस्ट्री के सबसे बड़े नामों में से एक। ऐसे बड़े सितारे को अपने से जोड़ पाना यकीनन वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी और ‘इंडिया शाइनिंग’ से टक्कर लेने वाली कॉन्ग्रेस के लिए यकीनन फायदे का सौदा हुआ। फ़िल्मी नगरी मुंबई में गोविंदा “आहूजा” (उनका उपनाम पहली बार सुर्ख़ियों का कारण राजनीति में आने के ही चलते बना, जिसके ज़रिए नाइक के पक्ष में भाजपा-शिव सेना के “मराठी माणूस” कार्ड को काटने के लिए ‘others’ को लामबंद किया गया) ने सारी चर्चाएँ और बाद में सारे वोट, लूट लिए। यही नहीं, उत्तर मुंबई सीट के बाहर भी गोविंदा की शोहरत ने कॉन्ग्रेस को खबरों और वोटर के दिमाग में बने रहने में मदद की।
“आवास, प्रवास, स्वास्थ्य, ज्ञान” के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाले गोविंदा ने जीत के बाद पहले राजनीति से ‘ब्रेक’ लिया, फिर सन्यास का ऐलान कर दिया। “राजनीति हमारे और हमारे परिवार के खून में ही नहीं रही। मैं यहाँ कभी नहीं लौटूँगा।” न केवल खबरें चलीं कि गोविंदा पार्टी से व्यथित हैं, उन्हें लगता है कि कॉन्ग्रेस ने उनका ‘इस्तेमाल किया’ भाजपा के गढ़ उत्तर मुंबई में सेंध लगाने के लिए, बल्कि खुद गोविंदा ने अपने अलविदा को ‘अमिताभ बच्चन जैसा’ बताया। ज़ाहिर था कि अमिताभ की तरह वे भी पंजे का ‘चाँटा’ महसूस कर रहे थे।
आज वही ‘विरार का छोरा’ लौटा है- भगवा तिलक लगाकर, भगवा पार्टी के कैंडिडेट का प्रचार करने के लिए, भगवा गमछा गले में टाँगे। लग रहा है कि वे लंबी पारी खेलने की फ़िराक में हैं- वे जिस प्रत्याशी चैनसुख संचेती का प्रचार कर रहे हैं, वे मलकापुर से 5 बार के विधायक हैं। राज्य की भाजपा इकाई के अध्यक्ष को छोड़कर लगभग सारे बड़े-बड़े पदों पर काबिज रह चुके हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र में राष्ट्रीय पटल की ही तरह लचर विपक्ष के चलते विकल्पहीनता है, जनता खुद भाजपा-फड़णवीस का विकल्प हाल-फ़िलहाल किसी को नहीं देखती। यानी संचेती का काम शायद गोविंदा की ‘स्टार पावर’ के बिना भी चल जाता।
ऐसे में ज्यादा संभावना इस बात की है कि संचेती का प्रचार कम हो रहा था, गोविंदा के खुद भाजपा में अपनी जगह तलाशने की संभावना अधिक है। यही कॉन्ग्रेस के लिए खतरे की घंटी होनी चाहिए- अगर वह राहुल गाँधी की बैंकॉक यात्राओं के औचित्य ढूँढ़ने से फुर्सत पा सके। उसे सोचना चाहिए कि क्यों जिसे वह राजनीति में लेकर आई, वह आज राजनीति में लौटना चाहता है तो ‘घर’ लौटने की बजाय नया घर तलाशने को मजबूर है।
हाल ही में गोविंदा की सह-अभिनेत्री रहीं उर्मिला ने भी कॉन्ग्रेस से हाथ जोड़ लिए थे- उसकी अंदरूनी राजनीति से तंग आकर। उसके गढ़ रहे उत्तर प्रदेश में उसकी VVIP सीट रायबरेली सदर की विधायक अदिति सिंह किसी भी दिन टाटा कर सकतीं हैं, प्रदेश के दो प्रभावशाली राजघराने पहले ही उसे अलविदा कह चुके हैं। गोविंदा की राजनीति का तो जो होना होगा सो होगा, पर कॉन्ग्रेस का क्या होगा??