रसूलीकरण वो प्रक्रिया है जिसके ज़रिये ‘परगति-शील’ गिरोह किसी एक व्यक्ति को सवालों से परे बना देते हैं। मनुष्यों में मानवीय भूलों और कमियों की संभावनाएँ हमेशा होंगी, लेकिन रसूलीकरण की प्रक्रिया, उनकी भूलों, गलतियों, कमियों पर बात करने से रोक देती है। अंग्रेजी में अक्सर इस्तेमाल होने वाली कहावत ‘सीजर्स वाइफ’ का ये अच्छा उदाहरण है। आमतौर पर जहाँ हिन्दुओं में सवाल पूछने और प्रश्न उठाने की छूट हर व्यक्ति को होती है, वहीं आयातित विचारधाराओं में ये खो जाती है। आम हिन्दुओं के लिए जनसाधारण में से किसी धोबी का मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पर सवाल उठाना आश्चर्य का विषय नहीं होता। दूसरे लोग गुस्ताख के लिए ‘सर-तन जुदा! सर-तन जुदा!’ के नारे लगाते सड़कों पर उतर आते हैं।
याद दिला देने पर शायद इस बात पर भी ध्यान जाएगा कि Blasphemy (ब्लासफेमी) या फिर कुफ्र जैसे शब्द जहाँ दूसरी भाषाओं में होते हैं, वहीं इनके लिए हिंदी या संस्कृत में कोई समानार्थक शब्द ढूंढना नामुमकिन हो जाएगा। ऐसे किसी भाव को एक कम पढ़े-लिखे ग्रामीण हिन्दू को समझा पाना भी मुश्किल होगा। वो सामने तो आपकी बात सभ्यतावश सुन ले, लेकिन मन ही मन उसे फिर से राम और धोबी की कहानी बचपन से याद है। तथाकथित प्रगतिशील गिरोहों के लिए एक तेजपाल वाली घटना आसानी से याद आ जाती है। उनमें से कुछ मानते हैं कि तेजपाल से ‘गलती’ हो गयी। ऐसा तब है जब उन्हें खुद एक ‘गलती’ और ‘अपराध’ शब्द में अंतर साफ़-साफ पता है।
यही वजह है कि उनका पोस्टर बॉय तेजपाल एक अपराध करता है लेकिन उसका गिरोह अड़ा रहता है कि उसके पत्रकारिता में योगदान को देखते हुए उसके ‘अपराध’ क्षमा कर दिए जाएँ! यहाँ तक कि वो इसके लिए कैमरे पर आये दृश्यों को अनदेखा करने से भी नहीं चूकते। उन्हें अच्छी तरह पता है कि भारतीय कानूनों का ‘अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष’ का सिद्धांत बलात्कार के मुकदमों में नहीं चलता। ऐसे मुकदमों में खुद को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेदारी आरोपी पर होती है। पुलिस उसका अपराध सिद्ध करने के लिए बाध्य नहीं है मतलब आरोपी ‘कुछ और सिद्ध होने तक अपराधी’ है। वो भारतीय कानूनों कि ओर से आँख बंद करके, बलात्कार के आरोपी को अपराधी भी नहीं मानते।
ऐसे में दास्तानगोई से मशहूर हुए महमूद फारूकी का नाम भी याद आता है जिसे हाल ही में एक विदेशी युवती से बलात्कार का दोषी पाया गया था। उनके इंटरव्यू प्राइम टाइम पर दिखाते समय या किन्हीं आयोजनों में जनता को संबोधित करते समय ऐसे लोगों को बुलाने में कब ये गिरोह शर्माए हैं? इन्हें याद कर लेने के बाद मेजर गोगोई को भी याद कीजिये। अपनी टीम को कश्मीरियत यानी पत्थरबाजी से बचाने के लिए एक अनूठे उपाय का इस्तेमाल करते वो हाल ही में दिखे थे। उनके एक नए तरीके के इस्तेमाल के लिए जहाँ तारीफें मिली, वहीं थोड़े दिन बाद एक दूसरे मामले में अनुशासन तोड़ने के लिए उन्हें सजा भी हुई। उन्हें जबरदस्ती सजा से बचाने की कोई कोशिश नहीं हुई।
इस रसूलीकरण से मनुष्यों को सवालों से परे कर देने से किसी व्यक्ति को राष्ट्र के कानून से ऊपर उठा देने की सुविधा मिल जाती है। एक बार फिर इसका नमूना देखना हो तो हाल के #मी_टू अभियानों के बारे में सोचिये। कई मीडिया मुगलों के नाम ऐसी शर्मनाक हरकतों के लिए बरसों बाद कैसे सामने आए? तथाकथित खोजी पत्रकारिता तो भारत में भी होती ही है न? फिर ऐसा कैसे हो पाया कि दर्जन भर खोजी पत्रकार जिस दफ्तर में बैठे हों, वहीं कोई ऐसा अपराध करे और किसी को दस-बीस साल तक ऐसा होता दिखे भी नहीं? सम्पादकीय पदों पर बैठे व्यक्ति का रसूलिकरण करके इन लोगों ने मान लिया था कि ये कोई अपराध कर ही नहीं सकता। तभी ऐसा हुआ होगा कि उनका अपराध, कुकृत्य लगा ही नहीं?
बाटला हाउस एनकाउंटर में सीने पर गोली खाकर वीरगति को प्राप्त हुए एक पुलिसकर्मी पर सवाल उठाने में पिद्दी दिग्गी को कब शर्म आई थी? कौन सी माफ़ी मांगी है उसने अपनी नीचता की? पीठ पर गोली लगने की वजह से जेहादियों के हाथ मारे गए करकरे को सवालों से परे क्यों होना चाहिए? अगर इशरत जहां के आतंकियों के साथ मारे जाने पर भी जाँच आयोग बिठाए जाते हैं, तो साध्वी प्रज्ञा के आरोपों की जांच में दिक्कत क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आम हिन्दुओं के लिए मानवाधिकार होते ही नहीं? मी टू की शिकायत कोई और करे, कोई हिन्दू सन्यासिन नहीं, तभी वो शिकायत है क्या?