कर्नाटक की पाठ्यपुस्तक सोसाइटी (कर्नाटक टेक्सटबुक्स सोसाइटी) स्कूल पाठ्यपुस्तकों के बारे में अपनी रिपोर्ट को दबा कर बैठी हुई है। कारण? वह येदियुरप्पा सरकार की उन मंशा से इत्तेफाक नहीं रखती कि 8000 मंदिरों को ढहाने और लाखों हिन्दुओं और ईसाईयों को तलवार की नोंक पर इस्लाम कबूल करवाने बनाने वाले टीपू सुल्तान को कन्नड़ इतिहास के नायकों में से हटाए जाने के खिलाफ है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार वह अपने द्वारा तैयार मसौदे में टीपू को बनाए रखने के लिए अड़ी हुई है।
बंगलुरु मिरर के मुताबिक राजनीतिक टकराव के अलावा हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा उपचुनावों में व्यस्तता भी सोसाइटी की रिपोर्ट में देरी का एक कारण है। लेकिन द हिन्दू का दावा है कि कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि टीपू सुल्तान के बारे में “एक शब्द भी नहीं” हटाया जाना चाहिए, जबकि मुख्यमंत्री, मदिकेरी के भाजपा विधायक अपचू रंजन समेत कई नेता हिन्दू समाज की भावनाओं के अनुरूप टीपू से जुड़े अध्याय को हटाने की वकालत कर चुके हैं। इसके पहले येदियुरप्पा सरकार ने टीपू की जयंती भी इस साल मनाने से मना कर दिया था, और इस बारे में कोर्ट की ‘सलाह’ के बाद भी अपने रुख पर कायम रही।
जहाँ कमेटी टीपू को एक नायक के रूप में ज़िंदा रखने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार बैठी है, वहीं मुख्यमंत्री ने भी अक्टूबर में ही जनता से वादा कर लिया था कि किसी भी कीमत पर वे टीपू सुल्तान को हटवा कर रहेंगे। इस बारे में विधायक अपचू रंजन के पत्र लिखने पर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मंत्री एस सुरेश कुमार ने उन्हें भी इस कमेटी का हिस्सा बनाने की बात कही थी।
यहाँ यह जान लेना ज़रूरी है कि हिन्दू समाज में टीपू को किताबों में बनाए रखने को लेकर दो तरह के विचार हैं। एक तरफ़ येदियुरप्पा समेत कुछ लोग पूरी तरह इस आततायी इस्लामी शासक के चिह्नों और स्मृतियों को मिटाए जाने के पक्ष में हैं, वहीं कुछ अन्य लोग इस मत के हैं कि पूरी तरह हटाए जाने की बजाय टीपू सुल्तान के शासन की असलियतें, जैसे कालीकट में बच्चों को अपनी माँओं के ही शव के गले में फंदे डालकर फाँसी पर लटकाना, नंगे ईसाईयों और हिन्दुओं को चलते-फिरते हाथियों के पैरों से बाँध कर दर्दनाक मौत मारना, इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल कर इस्लामी शासन की पोल खोली जाए। लेकिन कर्नाटक की वर्तमान इतिहास की किताबें, जिनमें यह कमेटी टीपू के बारे में “एक भी शब्द नहीं” बदलने की पैरवी कर रही है, इन पहलुओं को नज़रंदाज़ कर टीपू को किसी स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर पेश करतीं हैं।