आज बिहार के सबसे ‘बड़े’ नेता लालू प्रसाद यादव का जन्मदिन है। बड़े लोगों का जन्मदिन मनाना भी चाहिए। मैं बिहार के उस दौर को याद करके सोचता हूँ कि गोलियों से बींधी हुई दीवार को देख कर भी एक बच्चे के रूप में मुझे सामान्य क्यों लगता था? मैं सोचता हूँ कि आखिर मुझे घर छोड़कर भागना क्यों पड़ा? मैं वो दिन याद करता हूँ जब पिताजी घर से बाहर न जाने की सलाह देते थे।
अपना आधा नाम छुपाना, बदल लेना, खुद को कहीं और का बताना… ये सब शर्म की वो परतें हैं जो हर बिहारी कभी न कभी झेलता है। जो पहचान राष्ट्र के सबसे अच्छे विद्वानों, शासकों, कूटनीतिज्ञों, महापुरुषों की जन्म और कर्मस्थली रहा है, वो आखिर पंद्रह साल में ऐसी गर्त में कैसे गई कि वो अब एक गाली है?
कभी कोई टोक देता है, तो आप उसे कुछ कह नहीं सकते कि वापस क्यों नहीं जा रहे… कुछ कर क्यों नहीं पा रहे अपने राज्य के लिए, वहाँ के लोगों के लिए! एक विवशता है कि आप कुछ करना भी चाहें तो तंत्र आपको वैसा करने ही नहीं देगा। आपका मनोबल टूट जाता है और आप हार मान लेते हैं।
लालू प्रसाद यादव ने स्वयं की ‘मसीहाई’ से वो आतंक के दिन बिहार को दिखाए हैं कि आत्मा सिहर जाती है। इसे जो मसीहा कहते हैं, वो शायद राजनैतिक मजबूरियों के कारण कहते होंगे, क्योंकि कोई भी सामान्य बुद्धि-विवेक से चलने वाला व्यक्ति इस आदमी के लिए घृणा के अलावा और कोई भाव ला ही नहीं सकता।
बिहार की बर्बादी के जनक लालू प्रसाद यादव का लम्बे समय तक जीवित रहना अत्यावश्यक है ताकि वो अपनी आँखों से देखे और शरीर के हर अंग से महसूस करे कि जो बर्बादी उसने लिखी थी उसका कर्मफल कैसा मिल रहा है।
आदरणीय लालू प्रसाद जी के जन्मदिन पर मेरा स्नेह सन्देश: