Sunday, November 17, 2024
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CM रहते मायावती ने अपनी ही मूर्तियों पर लुटा दिए थे ₹2600 Cr, हाथी की भी कई मूर्तियाँ: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था – करदाताओं के पैसे लौटाओ

उस एफिडेविट में उन्होंने कहा था, "सरकारी रुपए को अस्पतालों पर खर्च किया जाए या शिक्षा पर, ये सवाल चर्चा के लायक ज़रूर है लेकिन इसका फैसला अदालत नहीं सुना सकता।"

उत्तर प्रदेश की एक बहुत बड़ी पार्टी है ‘बहुजन समाज पार्टी (BSP)’, जिसकी मुखिया मायावती 2007-2012 की अवधि में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही थीं। हाँ, उस दौरान समाजवादी पार्टी का समर्थन करने वाले कुछ माफियाओं को ज़रूर जेल भेजा गया, लेकिन जो बसपा में थे या आ गए – उन्हें राज्य सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त रहा। मायावती ने इस दौरान दलितों का कितना विकास किया ये तो नहीं पता, लेकिन हाँ, उन्होंने पूरे राज्य को अपनी मूर्तियों से ज़रूर पाट दिया।

2012 के विधानसभा चुनाव में EC ने दिया था इन मूर्तियों को ढकने का आदेश

2012 के विधानसभा चुनाव में भी ये मुद्दा उठा था, क्योंकि विपक्षी दलों ने स्पष्ट कह दिया था कि विभिन्न पार्कों और चौराहों पर मायावती की मूर्तियाँ होने का मतलब है कि अचार संहिता का उल्लंघन हो रहा है। चुनाव आयोग ने इन मूर्तियों को ढकने के आदेश तो दे दिए, लेकिन ऐसा करने में अधिकारियों के पसीने छूट गए। इनमें से कई बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ थीं, ऐसे में उन्हें ढकना आसान काम नहीं था। उन्हें ढकने के लिए कई ट्रकों में भर कर प्लास्टिक शीट्स और कपड़े लाए गए थे।

मायावती ने न सिर्फ अपनी, बल्कि अपने राजनीतिक गुरु और बसपा के संस्थापक कांशीराम की कई मूर्तियाँ भी बनवाई थीं। उनका कहना था कि दलित चेहरों को सम्मान देने के लिए ऐसा किया जा रहा है। केवल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR)’ का हिस्सा नोएडा में ही मायावती की एक दर्जन मूर्तियाँ बनवाई गई थीं। इसके अलावा इन दो शहरों में हाथियों की ही करीब 75 मूर्तियाँ थीं। बता दें कि बसपा का चुनाव चिह्न हाथी ही है।

इससे मतदाताओं के प्रभावित होने की आशंका थी, इसीलिए मायावती सरकार को चुनाव आयोग ने आदेश दिया कि इन मूर्तियों को ढँक दिया जाए। सरकारी दफ्तरों से लेकर सड़कों तक पर मायावती की मूर्तियाँ/तस्वीरें थीं, जिन्हें चुनाव के दौरान हटाया या ढँका गया। इनमें से कुछ मूर्तियाँ तो 15 फ़ीट (4.6 मीटर) की भी थीं। एक सरकारी अधिकारी ने तब कहा था कि इन मूर्तियों को हटाना उतना ही दुष्कर कार्य है, जितना कि हाथी का आकार होता है।

जब इन मूर्तियों को ढँका जाने लगा था, तब नोएडा में अधिकारियों को 1500 मीटर अतिरिक्त प्लास्टिक शीट्स मँगानी पड़ गई थी। चुनाव आयोग ने डेडलाइन भी दे दिया था। हालाँकि, बसपा ने तब इसे ‘प्राकृतिक न्याय’ के खिलाफ और एकपक्षीय बताया था। मायावती पर आरोप लगे थे कि उन्होंने सरकारी खजाने में से एक बड़ी रकम अपने महिमामंडन पर ही खर्च कर डाला। जबकि मायावती इन आरोपों को ‘दलित कार्ड’ खेलते हुए अपने खिलाफ हुई साजिश बताती थीं।

एक लीक हुए अमेरिकी कूटनीतिक केबल से यहाँ तक पता चला था कि मायावती ने एक खाली प्राइवेट जेट मुंबई भेज कर अपने लिए एक जोड़ी सैंडल मँगाए थे। हालाँकि, इन आरोपों को वो नकारती रही हैं। तब उत्तर प्रदेश की ऐसा नहीं था, जैसा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के 5 वर्ष पूरे होने पर दिख रहा है। तब राज्य विकास से महरूम था और स्वास्थ्य क्षेत्र में खासा फिसड्डी। साथ ही अपराध तो इतना था कि इसे माफियाओं और तथाकथित बाहुबलियों के लिए जाना जाने लगा था।

सुप्रीम कोर्ट में मायावती ने किया था अपने कदम का बचाव

भारत में मृत व्यक्ति की प्रतिमा लगवाने की परंपरा तो रही है, लेकिन मायावती इसे पुरानी परंपरा बताती थीं। अर्थात, आधुनिक होने का मतलब उनकी नजर में था – खुद की मूर्तियाँ लगवाना। ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुँचा था और मायावती ने अप्रैल 2019 में अपने इस कदम का सर्वोच्च न्यायालय में बचाव भी किया था। उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ये मूर्तियाँ ‘लोगों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व’ करती हैं। सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने एक एफिडेविट दायर किया था।

उस एफिडेविट में उन्होंने कहा था, “सरकारी रुपए को अस्पतालों पर खर्च किया जाए या शिक्षा पर, ये सवाल चर्चा के लायक ज़रूर है लेकिन इसका फैसला अदालत नहीं सुना सकता।” 2009 में ही दायर की गई याचिका पर तब सुनवाई चल रही थी। इन मूर्तियों के लिए ब्रोंज, सीमेंट और मार्बल का इस्तेमाल किया गया था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यहाँ तक कहा था कि उनके विचार से मायावती को करदाताओं के बर्बाद किए गए रुपए वापस लौटाने चाहिए।

जब उन्होंने इस सम्बन्ध में आदेश न देते हुए मायावती को अपनी बात रखने का मौका दिया, तब बसपा सुप्रीमो ने इसे ‘एक दलित महिला का सम्मान’ बता कर बचाव किया था। उनका कहना था कि जब जनता और राज्य की विधानसभा ही चाहती है कि उनकी मूर्तियाँ बनें, तो वो इसके विरुद्ध कैसे जा सकती हैं। उन्होंने बताया था कि यूपी के बजट से इन मूर्तियों के लिए वित्त के प्रावधान किए गए थे, ताकि इन्हें देख कर लोग प्रेरणा लें। उन्होंने पूछा था कि कॉन्ग्रेस और भाजपा द्वारा बनाई गई प्रतिमाओं की बजाए एक ‘दलित महिला’ की मूर्तियों पर ही सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं?

उन्होंने भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, प्रथम उप-प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी, मशहूर तेलुगु अभिनेता और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे TDP संस्थापक एनटी रामाराव और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता की मूर्तियों पर भी सवाल खड़े किए थे। बता दें कि मायावती ने जिन भी नेताओं का नाम लिया, वो भी दिवंगत हो चुके थे। हाथी की मूर्तियों को लेकर अदालत में मायावती का कहना था कि ये तो बस कुछेक कलाकृतियाँ हैं, उनकी पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं।

अधिवक्ता रविकांत ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी। मूर्तियाँ और पार्क्स बनवाने को लेकर कई पर्यावरण सम्बंधित चिंताओं को भी नज़रअंदाज़ किया गया था। बताया जाता है कि मेमोरियल, पार्क और इन मूर्तियों को बनवाने के लिए सरकारी खजाने से 2600 करोड़ रुपए लुटाए गए थे। इन्हें बनवाने में 111 करोड़ रुपए की गड़बड़ी व अनियमितता का मामला भी सामने आया था, जो ‘प्रवर्तन निदेशालय (ED)’ की चौखट तक भी पहुँचा था। ये सारे गड़बड़झाले 2007-12 के दौरान ही हुए, जब मायावती मुख्यमंत्री हुआ करती थीं और

मायावती द्वारा बनवाई गई उन मूर्तियों की तस्वीरों को आप यहाँ देख सकते हैं। मायावती ने बाबसाहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की मूर्तियाँ भी बनवाई थीं, लेकिन अधिकतर मूर्तियों का आधार हाथी हुआ करता था। लखनऊ में गोमती नदी के किनारे एक ऐसे ही पार्क की स्थापना की गई। मायावती इन्हें ‘प्रेरणा स्थल’ नाम देती थीं। उस पार्क में हाथी की 64 मूर्तियाँ थीं। मायावती हाथी को ‘बहुजन समाज’ का प्रतीक बताती थीं। हालाँकि, योगी सरकार में अब ऐसी चीजें नहीं होती हैं।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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