सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (फरवरी 8, 2019) को आदेश दिया है कि बसपा अध्यक्ष मायावती को जनता का वो सारा धन लौटाना होगा जिसे उन्होंने अपने स्मारकों को बनाने में खर्च किया हैं।
यह आदेश न्यायलय ने एक वकील द्वारा दाखिल की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया। जिसमें शिकायत थी कि कोई भी राजनैतिक पार्टी जनता के पैसों का इस्तेामल अपने मूर्तियाँ बनवाने के लिए या फिर प्रचार- प्रसार करने के लिए नहीं कर सकती है।
Supreme Court: ‘BSP leader Mayawati has to pay back all the public money spent on statues’ #MayaPayBack pic.twitter.com/vAD8kmEtjJ
— TIMES NOW (@TimesNow) February 8, 2019
साल 2009 में सुप्रीम कोर्ट में कुछ लोगों ने इस मामले पर याचिका को दायर किया था, जिसपर सुनवाई करते हुए अदालत ने यह आदेश दिया है। इस सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने मायावती के वकील से कहा कि वो अपनी मुवक्किल से कहें कि वह मूर्तियों पर ख़र्च किया गया पूरा धन सरकारी खजाने में जल्द जमा करवाएँ।
लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के मुताबिक यूपी की तात्कालीन मुख्यमंत्री ने लखनऊ, नोएडा और ग्रेटर नोयडा में स्थित पार्कों और मूर्तियों पर कुल 5,919 करोड़ रुपए खर्च किए थे।
इसके अलावा मायावती ने नोएडा स्थित दलित प्रेरणा स्थल पर हाथी की पत्थर की 30 और काँसे की 22 मूर्तियाँ लगवाई थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि हाथी उनकी पार्टी का चुनाव चिह्न भी है। इसलिए जब उनके इस कार्य पर लोगों ने सवालों को उठाना शुरू किया तो उन्होंने बेहद ही बचकाना तर्क़ दिया कि हाथी हमारी भारतीय सभ्यता की शान हैं। इसलिए उन्होंने हाथी की प्रतिमाओं को बनवाया हैं। इन हाथियों की प्रतिमा निर्माण में क़रीब ₹685 करोड़ का खर्चा आया था।
रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली इस पीठ में जस्टिस दीपक गुप्ता और संजीव खन्ना भी शामिल थे। इस मामले पर पीठ अपना अंतिम निर्णय आगामी 2 अप्रैल 2019 को सुनाएगी।
आपको याद दिला दें मायावती द्वारा की गई चालाकियाँ सिर्फ़ इतनी ही नहीं थी। मायावती ने न सिर्फ़ जनता के पैसे का दुरुपयोग करके अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रचार-प्रसार करने की कोशिशें की बल्कि इसके अलावा सरकारी आवास को ट्रस्ट बनाकर हथियाने की कोशिशें भी की।
सरकारी बंगला हाथ से न चला जाए इसके लिए मायावती ने साल 2018 में 13-ए मॉल एवेन्यू स्थित बंगले पर ‘श्री कांशीरामजी यादगार विश्राम स्थल का बोर्ड लगा दिया। क्योंकि कांशीराम के नाम से दलितों की भावनाएँ जुड़ी हैं, जिसके कारण सरकार के लिए उस पर कब्ज़ा करना आसान नहीं होगा।