पूर्व विदेश राज्य मंत्री और संयुक्त राष्ट्र राजनयिक रह चुके कॉन्ग्रेस नेता शशि थरूर ने विदेश मामलों की संसदीय प्रवर समिति (स्टैंडिंग कमिटी) से अपना नाम वापस ले लिया है। इसका कारण उन्होंने संसद की ही दूसरी, सूचना प्रौद्योगिकी समिति के कार्यों में व्यस्तता को कारण बताया है। पिछली लोकसभा में वे इस समिति के अध्यक्ष थे।
संसदीय परम्परा का हवाला
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक थरूर ने अपनी नियुक्ति के लिए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को धन्यवाद देने के साथ ही कार्यभार संभालने से इंकार कर दिया है। बकौल न्यूज़ 18, शशि थरूर ने कहा कि वे उस पैनल के महज़ एक सदस्य नहीं बनना चाहते, जिसकी वे अध्यक्षता कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने यह दावा भी किया कि सरकार ने समिति का अध्यक्ष विपक्ष से नियुक्त किए जाने की संसदीय परम्परा का अंत कर दिया है।
उन्होंने इसके अलावा संसदीय सूचना प्रौद्योगिकी समिति के मामलों में अपनी व्यस्तता का भी हवाला दिया। केरल के तिरुवनन्तपुरम से लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले थरूर इसके अध्यक्ष गत 14 सितम्बर को नियुक्त हुए हैं।
कॉन्ग्रेस की गुज़ारिश पर ही हुई थी नियुक्ति
यहाँ अजीब बात यह है कि शशि थरूर का समिति से इस्तीफ़ा उनकी नियुक्ति के दो हफ़्ते से ज़्यादा के बाद आ रहा है, जबकि समिति में उनकी नियुक्ति के समय ही यह बात साफ़ हो गई थी कि उन्हें इस बार अध्यक्ष पद नहीं मिलेगा। लोकसभा चुनावों के बाद समितियों के पुनर्गठन में थरूर को शुरू में इस समिति में शामिल ही नहीं किया गया था। हिंदुस्तान टाइम्स में 27 सितंबर को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा में कॉन्ग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने बिड़ला से पहले अनौपचारिक मुलाकात कर उन्हें मनाया, उसके बाद कॉन्ग्रेस की ओर से थरूर का नाम शामिल किए जाने का औपचारिक प्रस्ताव भेजा गया। उस समय कॉन्ग्रेस की ओर से तर्क दिया गया कि चूँकि पार्टी अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने किसी समिति की सदस्यता नहीं ली है, इसलिए पार्टी के कोटे में एक पद अभी खाली है, जिस पर थरूर की नियुक्ति हो सकती है।
इसके लिए लोकसभा अध्यक्ष के कार्यालय से जारी बुलेटिन में बकायदा उल्लिखित था, “स्पीकर ने दीपक बैज का नामांकन बदल कर विदेश मामलों की समिति से रसायन और उर्वरक समिति में कर दिया है, और डॉ. शशि थरूर को विदेश मामलों की समिति में नियुक्त किया है।” ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि यदि जिस समिति की उन्होंने अध्यक्षता की, उसका सदस्य बनना थरूर की गरिमा के परे था तो कॉन्ग्रेस ने उन्हें शामिल कराने के लिए इतनी जद्दोजहद क्यों की। और अगर यह मनोभाव अगर बाद में भी उत्पन्न हुआ तो इसमें ढाई सप्ताह कैसे लग गए?