आर्चर के. ब्लड पूर्वी पाकिस्तान में अमेरिकी काउंसल जनरल के तौर पर कार्यरत थे और बांग्लादेश की स्वतंत्रता के दौरान ढाका में मौजूद थे। उन्होंने वहाँ जो अपनी आँखों से देखा, उसे अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘द क्रुअल बर्थ ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा है। उन्होंने लिखा, “28 मार्च को मैंने एक टेलीग्राम लिखा, जिसका शीर्षक ‘सेलेक्टिव नरसंहार’ था। जहाँ तक मुझे पता है, मैंने इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया है, लेकिन यह आखिरी बार भी नहीं था। यहाँ ढाका में हम पाकिस्तानी सेना द्वारा आतंक के मूक और भयभीत साक्षी बने हुए हैं। ढाका की सड़कें हिंदुओं से पट चुकी हैं।”
इस घटनाक्रम के दौरान ही आखिरकार पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान से स्वतंत्रता मिल गई और एक नए देश, बांग्लादेश का उदय हुआ। अब एक उम्मीद पैदा हुई कि कम-से-कम बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण मिलेगा। पाकिस्तान की सेना अथवा प्रशासन ने उन पर जो अत्याचार किए, उनसे भी उन्हें छुटकारा मिल जाएगा। मगर, बांग्लादेश की नियति में ऐसा होना संभव ही नहीं था। आजादी के कुछ सालों बाद ही वहाँ कट्टर धर्मांधता फैलाकर उसे एक इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया गया। संविधान में भी शरीयत के अनुसार बदलाव कर दिए गए और इसी के साथ बांग्लादेश में भी गैर-मुसलमानों का दमन शुरू हो गया।
हालाँकि, बांग्लादेश शुरुआत में ऐसा नहीं था जैसा आज दिखाई देता है। साल 1971 में जब बांग्लादेश स्वतंत्र होकर नया देश बना तो शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्ला भाषा में राष्ट्र के नाम एक संदेश भेजा, जिसके आखिरी शब्द ‘जॉय बांग्ला’ यानि ‘बंगाल की विजय’ हो थे। उनका अपने देशवासियों को संबोधन उर्दू अथवा अरबी में नहीं, बल्कि बांग्ला भाषा में था।
साल 1973 में बांग्लादेश में चुनाव हुए और मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग को 300 में से 293 सीटें हासिल हुईं। उन्होंने अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार का गठन किया। अगले ही साल ‘द पीपल रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश’ को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता मिल गई और 25 सितंबर को मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेम्बली को ऐतिहासिक रूप से बांग्ला भाषा में संबोधित किया।
यह एक दुर्भाग्य ही था कि बांग्लादेश के वास्तुकार और राष्ट्रपिता ‘बंगबन्धु’ शेख मुजीबुर्रहमान को इस बंगाली राष्ट्रवाद को सफल होते देखने का मौका नहीं मिला। 15 अगस्त 1975, जिस दिन भारत अपनी स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था, उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई। एक देश जो कि अपनी वास्तविक पहचान के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना कर कुछ कदम ही आगे बढ़ा था, वहाँ अब मार्शल लॉ लग गया था। नागरिकों के अधिकार छीन लिए गए, राजनैतिक हत्याएँ और षड्यंत्र सामान्य घटनाक्रम हो चुके थे।
सैन्य तख्तापलट के बाद जनरल जियाउर्रहमान का सत्ता पर कब्जा हो गए। उन्होंने स्वयं को राष्ट्रपति और माशिउर रहमान को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग ही था कि एक तरफ बांग्लादेश में जियाउर्रहमान थे तो उसी दौरान पाकिस्तान में भी सेना ने तख्तापलट कर दिया और मुहम्मद ज़िया-उल-हक़ वहाँ के राष्ट्रपति बन गए। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पोती और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर अली भुट्टो की बेटी, फातिमा भुट्टो अपनी पुस्तक ‘सॉग्स ऑफ ब्लड एंड स्वर्ड’ में लिखती हैं, “जिया का शासन न केवल अत्यधिक क्रूर था- सार्वजनिक कोड़े और फाँसी का आदेश देना- बल्कि अपमान करने में भी पारंगत था।” हालाँकि, दोनों देशों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन दोनों ही नेताओं ने अपने-अपने राष्ट्रों को कट्टरपंथ, रूढ़िवाद और मजहबी उन्माद में जबरन झोंक दिया था।
जनरल जियाउर्रहमान ने साल 1979 में संविधान में पाँचवां संशोधन कर ‘बंगाली राष्ट्रवाद’ शब्द हटाकर ‘बांग्लादेशी राष्ट्रवाद’ जोड़ दिया। साथ ही संविधान की प्रस्तावना को धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर धार्मिक, यानी इस्लामिक पहचान दे दी गई। साल 1971 के युद्ध के बाद जमात-ए-इस्लामी के सभी नेता बांग्लादेश से पाकिस्तान भाग गए थे और शेख मुजीबुर्रहमान ने जमात पर पाकिस्तान को समर्थन देने के कारण प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन, जियाउर्रहमान ने जमात-ए-इस्लामी को वापस बांग्लादेश ही नहीं बुलाया, बल्कि उसे राजनैतिक गतिविधियों में भी हिस्सा लेने की अनुमति दे दी।
साल 1982 में प्रकाशित पुस्तक ‘बांग्लादेश, द फर्स्ट डिकेड’ के लेखक मार्कस फ़्रांडा लिखते हैं, “बांग्लादेशी राष्ट्रवाद को विकसित करने से जिया शासन अंततः कट्टरपंथी इस्लाम पर एकदम निर्भर हो गया और उसने एकीकृत विचारधारा के रूप में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था।”
जियाउर्रहमान की हत्या के बाद कौन कितना कट्टरपंथी और मजहबी होगा, इसको लेकर होड़ मचने लगी। प्रोफेसर विलेम वैन शेंडेल अपनी पुस्तक, ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ बांग्लादेश’ में लिखते हैं कि 1981 में जिया की मौत के बाद उनकी पत्नी खालिदा जिया और उनके समर्थकों पर उनके विचारों को प्रचारित करने का जिम्मा आ गया।”
दूसरी तरफ, बांग्लादेश की कमान अगले तानाशाह हुसैन मोहम्मद इर्शाद के हाथों में आ गई। उन्होंने बांग्लादेश में आठवाँ संविधान संशोधन लागू कर इस्लाम को वहाँ का राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इर्शाद ने मस्जिदों के निर्माण के लिए सरकारी खजाना भी खोल दिया था। ‘बांग्लादेश: द नेक्स्ट अफगानिस्तान’ के लेखक हिरणमय करलेकर लिखते हैं कि इर्शाद और उसके बाद जमात, बांग्लादेश में एकदम मजबूत हो गई और उसने पाकिस्तान और सऊदी अरब के पैसे से दूर-दराज के गाँवों में मदरसे खोल दिए और शरीयत को स्थापित कर दिया।
जमात को राजनैतिक संरक्षण मिलने से बांग्लादेश में गैर-मुसलमानों के सामने उनके जीवन की सुरक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया। हालाँकि, अभी यह संस्था वहाँ प्रतिबंधित है, लेकिन इसकी गतिविधियाँ पहले की तरह आज भी जारी हैं। इसका नतीजा यह है कि साल 1951 में बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) में हिन्दू आबादी 22 प्रतिशत थी, जो कि 2011 में घटकर मात्र 9.5 प्रतिशत रह गई है। अब जो वहाँ बचे हुए हिंदू है, वे हर दिन धार्मिक उत्पीड़न और क्रूरता का शिकार हो रहे हैं।