मलेशिया के कोर्ट ऑफ अपील (COA) ने दो नाबालिग बच्चों के धर्म परिवर्तन से जुड़े मामले में क्वालालम्पुर हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है। इस मामले में बच्चों का धर्मांतरण उनके पिता की सहमति के बगैर मॉं ने बौद्ध से इस्लाम में करवा दिया था। तीन साल पहले हाई कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था, जिस पर बुधवार (27 अक्टूबर 2021) को सीओए ने भी मुहर लगा दी। अदालत ने एक बार फिर से यह परिभाषित किया है कि धर्म परिवर्तन के मामले में संघीय संविधान के पैरेंट्स शब्द माता-पिता दोनों को संदर्भित करता है, न कि उनमें से केवल एक को।
सीओए ने एम इंदिरा गाँधी मामले में संघीय अदालत के ऐतिहासिक फैसले का भी हवाला दिया। इस मामले में पिता द्वारा बच्चों के इस्लामी धर्मांतरण को शीर्ष अदालत ने गैरकानूनी घोषित कर दिया था।
तीन जजों की खंडपीठ ने सर्वसम्मति से क्वालालम्पुर उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। 27 अक्टूबर को कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “हमारा मानना है कि उच्च न्यायालय के जज और कोर्ट ऑफ अपील की पीठ एम इंदिरा गाँधी मामले में संघीय न्यायालय के फैसले से बँधी हुई है। इस मामले में फैसले को चुनौती दी की वजह नहीं दिखती। अपील में दम नहीं है। लिहाजा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसले को बरकरार रखा जाता है।” इस मामले में माँ और नाबालिगों की पहचान जाहिर नहीं की गई है।
इस मामले में जन्म से बौद्ध महिला ने 2015 में इस्लाम कबूल कर लिया था। इसके ठीक अगले साल ही उसने उसने अपने दो बच्चों को उनके पिता की सहमति के बिना रजिस्ट्रार के पास ले जाकर उनका भी धर्मान्तरण करवा दिया। दोनों बच्चों में एक 13 साल का लड़का और दूसरी 9 साल की लड़की है। दोनों फिलहाल अपने पिता के पास हैं, जो कि पेशे से व्यापारी हैं और उनकी आस्था बौद्ध धर्म से जुड़ी है।
दोनों बच्चों के धर्मांतरण के खिलाफ उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। 16 अक्टूबर 2018 को क्वालालम्पुर उच्च न्यायालय ने माना कि पिता की सहमति के बिना ही बच्चों का इस्लामी धर्मांतरण किया गया। जबकि जनवरी 2018 में फेडरल कोर्ट की पाँच सदस्यीय पीठ ने इंदिरा गाँधी मामले में कहा था कि नाबालिग के धर्मांतरण में माता-पिता दोनों की सहमति जरूरी है। इस फैसले को आधार बनाते हुए हाईकोर्ट ने बच्चों का धर्मांतरण रद्द कर दिया। इस फैसले को कोर्ट ऑफ अपील में चुनौती दी गई थी।
इंदिरा गाँधी केस
एम इंदिरा गाँधी मामले में फेडरल कोर्ट के फैसले को ऐतिहासिक माना जाता है। यह फैसला बच्चों के एकतरफा धर्मांतरण को गैरकानूनी घोषित करने के मामले से जुड़ा था। इस मामले में एक हिंदू व्यक्ति 11 मार्च 2009 को धर्मान्तरण कर इस्लाम कबूल कर लिया था। इसके बाद उसी साल उसने 2 अप्रैल को अपने तीन बच्चों का भी धर्मान्तरण करवा दिया। धर्मांतरण करने वाले इस व्यक्ति का विवाह 1993 में एम इंदिरा गाँधी नाम की हिंदू महिला से हुआ था। लेकिन धर्मान्तरण हिंदू माँ की सहमति के बिना ही करवाया गया।
इसे इंदिरा गाँधी ने चुनौती दी और 2013 में इपोह हाईकोर्ट ने बच्चों का धर्मांतरण खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने अपने अहम फैसले में कहा था कि नाबालिग बच्चों के धर्म परिवर्तन के लिए माता-पिता दोनों की सहमति जरूरी है। 2015 में अपीली अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि इस्लाम में धर्मान्तरण से संबंधित मामलों पर दीवानी अदालतों का कोई अधिकार नहीं है।
इस फैसले के खिलाफ एम इंदिरा गाँधी ने मलेशिया के सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 में अपीली अदालत के आदेश को पलट दिया। अदालत ने कहा था कि नाबालिगों के धर्म परिवर्तन के लिए माता-पिता दोनों की सहमति जरूरी है। हालाँकि, मलेशिया की कोर्ट ने भले ही इंदिरा गाँधी के पक्ष में फैसला सुना दिया, लेकिन धर्मान्तरण के बाद से लापता हुई उनकी बड़ी बेटी प्रसन्ना आज तक नहीं मिली। वह उसकी तलाश ही कर रही हैं।