Sunday, November 17, 2024
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5 देशों के वीटो वाले समीकरण से खोखला हो चुका है संयुक्त राष्ट्र: भारत-इजरायल के साथ विस्तार है समय की माँग

फ्रांस के राष्ट्रपति कहते हैं कि संस्था के कमजोर पड़ने का जोखिम नज़र आने लगा है। स्विटजरलैंड के राष्ट्रपति कहते हैं कि सदस्य देशों के साथ समस्या है। अगर ऐसा ही रहा तो हर वर्ष UN के नाम पर मेला लगेगा और नेता-अधिकारियों का सैर-सपाटा होगा, विश्व-हित की चिंता किसे?

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना विश्व इतिहास का एक नया मोड़ था। इसकी स्थापना 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र अधिकार-पत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई थी। द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त कर शांति स्थापना के लिए इसका निर्माण मानवता के इतिहास में एक अभूतपूर्व प्रयास था। यह प्रथम संस्था थी, जिससे अंतरराष्ट्रीय जगत में विधि के शासन की स्थापना करने की आशा की जाती थी। 

यह कहा गया था कि ‘इसका उद्देश्य तांडव से आने वाली पीढ़ियों की रक्षा करना है, संसार को प्रजातंत्र के लिए सुरक्षित स्थान बनाना है और एक ऐसी शांति की स्थापना करना है जो न्याय पर आश्रित हो।’ किंतु यह मानवता का दुर्भाग्य था कि राष्ट्र संघ अपने महान आदर्शों, महत्वाकांक्षी सपनों और उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल नहीं हो सका। संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलता के कारण निम्नलिखित थे-

  • उग्र राष्ट्रीयता – राष्ट्र संघ की विफलता का एक कारण विभिन्न राष्ट्रों की उग्र राष्ट्रीयता थी। प्रत्येक राष्ट्र स्वयं को संप्रभु समझते हुए अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने में विश्वास करते थे। कोई भी राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा के लिए अपनी प्रभुसत्ता पर किसी का नियंत्रण स्वीकार करने को तैयार नहीं था। राष्ट्र संघ के मौलिक सिद्धांत भले ही नए थे, किंतु उनके सदस्य राष्ट्र परंपरागत राष्ट्रीयता की संकीर्ण विचारों पर विश्वास करते थे। संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्यों की आपसी खीचतान की वजह से कई संवेदनशील मुद्दों का समाधान खोजने में नाकाम रहा है।
    सार्वभौमिकता का अभाव – विश्व शांति के लिए आवश्यक था कि विश्व के सभी देश राष्ट्र संघ के सदस्य होते, किंतु ऐसा नहीं हो सका। प्रारंभ में सोवियत संघ और जर्मनी को संगठन से अलग रखा गया। 1926 में जर्मनी को इसका सदस्य बना दिया गया, किंतु कुछ समय पश्चात ब्राज़ील और कोस्टारिका इससे अलग हो गए। 1933 में जापान और जर्मनी ने इसकी सदस्यता त्यागने का नोटिस दे दिया। 1934 में रूस इसका सदस्य बना। 1937 में इटली ने इसकी सदस्यता त्यागने का नोटिस दे दिया। 1939 में सोवियत संघ को राष्ट्र संघ से निकाल दिया गया। इस प्रकार राष्ट्र संघ के 20 वर्ष के जीवन में ऐसा कोई अवसर नहीं आया, जब विश्व के सभी देश इसके सदस्य रहे हो।
  • अमेरिका का सदस्य न बनना – अमेरिकन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने राष्ट्र संघ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई किंतु अमेरिकी सीनेट ने सदस्यता के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसलिए राष्ट्र संघ को अमेरिका का सहयोग नहीं मिल सका। अमेरिका का राष्ट्र संघ का सदस्य न बनने के कारण संघ पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े –
  • राष्ट्र संघ को अमेरिका की आर्थिक और सैनिक शक्ति से वंचित होना पड़ा, जिससे उसकी शक्ति कम हो गई।
  • अमेरिका के बाहर रहने से राष्ट्र संघ विश्व व्यापार संगठन नहीं बन सका।
  • अमेरिका के सदस्य न बनने से जो राष्ट्र अपनी आशाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाए, वे राष्ट्र संघ से अलग होने लगे।
  • अमेरिका के अभाव में फ्रांस को दी गई Anglo-American गारंटी व्यर्थ हो गई और अपनी सुरक्षा के लिए फ्रांस ने गुटबंदियों का सहारा लिया। जिससे राष्ट्र संघ और विश्व शांति पर बुरा प्रभाव पड़ा।
  • राष्ट्र संघ द्वारा युद्ध रोकने की ढीली व्यवस्था – राष्ट्र संघ के विधान द्वारा युद्ध रोकने की ढीली-ढाली व्यवस्था की गई थी। प्रसंविदा की धारा 15 में अंतरराष्ट्रीय विवादों को निपटाने की जो व्यवस्था थी, वह बहुत देर करने वाली थी। विचार-विमर्श में ही काफी समय बीत जाता था और तब तक आक्रमणकारी को युद्ध की तैयारी करने का मौका मिल जाता था। धारा 16 के अंतर्गत भी कोई शक्तिपूर्ण कार्रवाई तब तक नहीं की जा सकती थी, जब तक राष्ट्र संघ यह घोषणा न कर दे कि कोई राज्य ने संघ विधान का उल्लंघन करके युद्ध की घोषणा की है। युद्ध होने पर भी कोई राज्य अपना बचाव यह कहकर कर सकता था कि युद्ध मैंने शुरू नहीं किया है। इस प्रकार जानबूझकर की गई युद्ध को राष्ट्र संघ रोक नहीं सका।
  • घृणा पर आधारित – राष्ट्र संघ की स्थापना का आधार घृणा थी, क्योंकि यह संघ वर्साय संधि की ही देन थी। वर्साय संधि की प्रथम 26 धाराएँ राष्ट्र संघ का विधान थीं। इस प्रकार यह राष्ट्र संघ का अभिन्न अंग था। पराजित राष्ट्र इस संधि को घृणा की दृष्टि से देखते थे और उसे अन्याय का प्रतीक मानते थे। अतः राष्ट्र संघ के प्रति उनकी दृष्टिकोण अनुदान हो गई। इस प्रकार वर्साय संधि का अंग मानकर जर्मनी ने राष्ट्र संघ को भी अस्वीकार कर दिया।

75 सालों में भले ही हम तीसरे विश्व युद्ध  की दहलीज़ तक नहीं पहुँचे हैं। लेकिन एक ओर अमेरिका और दूसरी ओर चीन, एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहा रहे। एक सप्ताह तक चलने वाले संयुक्त राष्ट्र सत्र के दूसरे दिन मेज़बान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफ़िंग के वीडियो रिकॉर्डेड भाषणों की ‘गंध’ से विभाजन की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, उसे देख-सुन कर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतेरस ख़ुद इसके अस्तित्व को लेकर चिंतित हो उठे हैं। अमेरिका धन राशि के सहयोग और संयुक्त राष्ट्र की इकाइयों से हाथ खींचता जा रहा है, तो चीन उन इकाइयों को क़ब्ज़ाए जा रहा है।

द्वितीय विश्व युद्ध की राख के ढेर पर विजेता देशों ने पारस्परिक सहयोग से संयुक्त राष्ट्र की सफलता के लिए कामनाएँ की थीं, मगर अब उन्हें निराशा होने लगी है। जापान तो उभर गया और विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिक ताक़त भी बन गया है, लेकिन वैश्विक संगठन अब दो गुटों-अमेरिका और चीन में बँटने की राह पर है। यह नज़ारा विश्व नेताओं के उद्बोधन के पहले ही दिन सामने आ गया। ट्रंप के साथ-साथ ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर बोलसानारो ने जम कर सवाल उठाए तो ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने आर्थिक प्रतिबंधों के नाम पर अमेरिका पर तीखे प्रहार किए।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सीरिया, यमन और लीबिया में युद्ध की स्थिति बनी हुई है, वहीं इज़राइल और फ़िलिस्तीन का संकट ज्यों का त्यों है, भले ही ट्रम्प ने मध्य-पूर्व एशिया में अरब देशों-संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन को इज़राइल के समीप लाने की कोशिश की है। भारत सहित अनेक विकासशील देशों ने अंतरराष्ट्रीय आपदाओं के दौर में अपने-अपने सामर्थ्य के बल पर सैन्य बल एवं ज़रूरी चिकित्सीय तथा खाद्य ज़रूरतें मुहैया कराई हैं। 

दक्षिण चीन सागर मामले में चीन ने अन्तरराष्ट्रीय कोर्ट के आदेशों को मानने से इंकार किया है, तो संयुक्त राष्ट्र के निर्देशों के बावजूद अपने पश्चिमी प्रांत शिनच्यांग में उइगर मुस्लिम समुदाय के प्रति बर्बरतापूर्ण व्यवहार करने से बाज़ नहीं आ रहा है। रोहिंग्या का मामला हो अथवा पाकिस्तान में आतंकवाद को प्रश्रय दिए जाने और सीमापार आतंकवाद का मामला हो, चीन आँखें मूँद अपने चहेते पाकिस्तान का साथ दे रहा है।

वर्तमान विश्व के लिए आतंकवाद सबसे बड़ा खतरा बन गया है परंतु संयुक्त राष्ट्र संघ इस दिशा में कुछ भी कर पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है। विभिन्न राष्ट्र आतंकवाद से लड़ाई लड़ने के मामले में दोहरे मापदंड अपना रहे हैं। 11 सितंबर 2001 के दिन अमेरिका पर जघन्य आतंकवादी हमले हुए तो अमरीका सहित दुनिया के देशों की नींद खुली। भारत में आतंकवाद बहुत पहले से अपना कहर ढा रहा है, जो मुख्यत: पाकिस्तान के समर्थन का नतीजा है। लेकिन ब्रिटेन, अमरीका आदि देश भारत में फैले आतंकवाद को क्षेत्रीय समस्या मानकर भारत और पाकिस्तान दोनों की पीठ थपथपा रहे हैं जो इनकी तुष्टीकरण की नीति को बयाँ करता है।

मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने की भारत की कोशिशों में अब तक चीन अड़ंगा डाल रहा था। मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के लिए भारत पिछले 10 साल से कोशिश कर रहा था। इतने सालों में यह चौथी कोशिश थी। भारत ने यह प्रस्ताव सबसे पहले 2009 में रखा था। इसके बाद 2016 में भारत ने अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र की 1267 प्रतिबंध परिषद के समक्ष दूसरी बार प्रस्ताव रखा। इसके बाद तीसरी बार यह प्रस्ताव 2017 में रखा गया। इन सभी मौकों पर चीन वीटो का इस्तेमाल कर अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित होने से रोकता आ रहा था। चीन ने मार्च में भी अजहर पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया था।

संगठन पर शुरू से ही वीटो अधिकार प्राप्त पाँच देशों का वर्चस्व रहा है। ये देश ही पूरे विश्व के स्वघोषित प्रतिनिधि के रूप में अपनी राय थोपते नज़र आते हैं। संयुक्त राष्ट्र को इस नीति में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह देखना संयुक्त राष्ट्र की जिम्मेदारी है कि चीन वीटो पावर का इस्तेमाल किसी लोक कल्याण के लिए नहीं, अपितु एक आतंकवादी को बचाने के लिए कर रहा था। इससे संयुक्त राष्ट्र पर से लोगों का भरोसा कम हो रहा है। 

जब तक इस वीटो को हटाकर एक न्यायोचित मतदान प्रणाली द्वारा बहुमत आधारित निर्णयों को मान्य नहीं किया जाता तब तक अधिकांश देश उदासीन बने रहेंगे। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा मामलों की समिति में यूरोपीय राष्ट्रों को स्पष्ट रूप से अधिक प्रतिनिधित्व मिला हुआ है और अन्य क्षेत्र संगत रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। यह शिकायत दीर्घकाल से है जो संयुक्त राष्ट्र की वैधता को चुनौती देती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र को सम्बोधित करते हुए इस अंतरराष्ट्रीय संगठन में भारत की भागीदारी बढ़ाने को लेकर जो तीखे सवाल उठाए हैं, उनसे करोड़ों देशवासियों की भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी के बाद भी भारत को अब तक सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं दी गई। देश की वर्षों पुरानी इस माँग का हवाला देकर प्रधानमंत्री ने पूछा कि आखिर भारत को कब तक संयुक्त राष्ट्र के भेदभाव का शिकार होना पड़ेगा? कब तक भारत को आम सदस्य के तौर पर अपनी वफादारी साबित करनी होगी? उन्होंने अंतरराष्ट्रीय महामारी कोरोना से निपटने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी सवाल उठाए

विडम्बना यह है कि इससे पहले भी कई मौकों पर भारत को ऐसी साझा कोशिशों में शामिल तो किया जाता रहा, लेकिन जब सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट की माँग उठी तो संयुक्त राष्ट्र ने हाथ खड़े कर दिए। चीन को छोड़ कई देश विभिन्न मंचों से भारत को स्थाई सीट देने का समर्थन करते रहे हैं। भारत के रास्ते में चीन सबसे बड़ा रोड़ा है। उसके पास वीटो पावर है, जिसका इस्तेमाल वह भारत की माँग के खिलाफ करता रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत की माँग का समर्थन किया है।

इससे पहले बराक ओबामा के दौर में भी अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में भारतीय दावेदारी का समर्थन किया था, लेकिन हुआ कुछ नहीं। पिछले जून के चुनाव में भारत को आठवीं बार अस्थाई सदस्य ही चुना गया। यह सदस्यता 2021-22 के लिए होगी। अगर इतिहास पर गौर करें, तो भारत को अस्थाई सदस्यता देने में भी आनाकानी होती रही है। यह सदस्यता दो साल के लिए होती है। पहली बार भारत को 1950-51 के लिए अस्थाई सदस्यता दी गई थी। बीच-बीच में लम्बे समय तक उसे इस सदस्यता से भी वंचित रखा गया।

भारत को क्यों मिलनी चाहिए सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता?

  1. भारत 1.3 बिलियन की आबादी और एक ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक की अर्थव्यवस्था वाला एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है।
  2. यह संयुक्त राष्ट्र पीसकीपिंग अभियानों में सर्वाधिक योगदान देने वाला देश है।
  3. जनसंख्या, क्षेत्रीय आकार, जीडीपी, आर्थिक क्षमता, संपन्न विरासत और सांस्कृतिक विविधता – इन सभी पैमानों पर भारत खरा उतरता है।
  4. यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
  5. भारत की विदेश नीति ऐतिहासिक रूप से विश्व शांति को बढ़ावा देने वाली रही है।

कई साल से यह बात दोहराई जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र में बदलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के अनुरूप सुधार की प्रक्रिया चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस प्रक्रिया पर भी सवाल उठाया कि बदलते वक्त के हिसाब से यह संगठन कब तक बदलेगा? पीएम ने अपने संबोधन में कहा कि ये बात सही है कि कहने को तो तीसरा विश्व युद्ध नहीं हुआ, लेकिन इस बात को नकार नहीं सकते कि अनेकों युद्ध हुए, अनेकों गृहयुद्ध भी हुए। कितने ही आतंकी हमलों से खून की नदियाँ बहती रहीं। इन युद्धों में, इन हमलों में, जो मारे गए, वो हमारी-आपकी तरह इंसान ही थे। वो लाखों मासूम बच्चे जिन्हें दुनिया पर छा जाना था, वो दुनिया छोड़कर चले गए। कितने ही लोगों को अपने जीवन भर की पूँजी गँवानी पड़ी, अपने सपनों का घर छोड़ना पड़ा। 

उस समय और आज भी, संयुक्त राष्ट्र के प्रयास क्या पर्याप्त थे? पिछले 8-9 महीने से पूरा विश्व कोरोना वैश्विक महामारी से संघर्ष कर रहा है। इस वैश्विक महामारी से निपटने के प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र कहाँ है? एक प्रभावशाली रिस्पॉन्स कहाँ है? पीएम मोदी ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रियाओं में बदलाव, व्यवस्थाओं में बदलाव, स्वरूप में बदलाव, आज समय की माँग है। आखिर कब तक भारत को संयुक्त राष्ट्र के फैसला लेने वाले स्ट्रक्चर से अलग रखा जाएगा?

संयुक्त राष्ट्र 24 अक्टूबर को अपने 75 साल पूरे कर रहा है। पिछले कई साल से दो स्थाई सदस्यों अमेरिका और चीन के बीच चल रहे शीत युद्ध ने इस संगठन का सिरदर्द बढ़ा रखा है। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिका और रूस के मध्य का अंतर मिटाने में असफल रहा है। ऐसा माना जाता है कि इस पर अमेरिका और उसके उपग्रहों का अधिक प्रभाव है। दूसरी ओर रूस इसकी सुरक्षा परिषद् द्वारा सर्वसम्मति से लिए निर्णयों पर अपने वीटो के अधिकार का प्रयोग कर लेता है।

द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद 1945 से 1989 के बीच के दौर को शीत युद्ध कहा जाता है। इस दौरान दुनिया दो ध्रुवों में बँट गई थी। ये दो ध्रुव अमेरिका और सोवियत संघ थे। इस दौरान करीब 50 साल तक दुनिया में भय का माहौल रहा। इतिहासकार इसे पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच की लड़ाई के तौर पर भी देखते हैं।

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सितंबर में संयुक्त राष्ट्रसंघ के वार्षिक अधिवेशन में राष्ट्राध्यक्षों का मेला लगा। यद्यपि इस वर्ष विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों अथवा उनके प्रतिनिधियों की रिकॉर्ड उपस्थिति रही, किन्तु उनकी इतनी बड़ी संख्या में उपस्थिति ही क्या संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रभावी बनाती है? कदाचित नहीं। जिस गति से संयुक्त राष्ट्र संघ की उपयोगिता का ह्रास होता जा रहा है, वह चिंता का विषय बन गया है। विडंबना यह है कि प्रत्येक देश इस मंच को सद्भावना मंच नहीं, अपितु एक कूटनीतिक मंच अधिक समझता है। यह सही है कि इस मंच का उपयोग विश्व के सामने अपनी बात रखने और विश्व के हित में सुझाव देने के लिए होना चाहिए, किन्तु अधिकांश भाषण ‘तू तू-मैं मैं’ वाले होते हैं। 

संयुक्त राष्ट्र संघ के निष्प्रयोजन होने का प्रमुख कारण है – सुरक्षा परिषद् में मिले पाँच राष्ट्रों को वीटो का विशेषाधिकार। इस विशेषाधिकार के चलते यह संस्था शांति और सुरक्षा के अपने मुख्य उद्देश्य को कभी पूरा नहीं कर सकती। हालत ये हो चुकी है कि कई सदस्य देश अपना सालाना शुल्क भी नहीं भर रहे हैं। पाकिस्तान जैसे कुछ देशों के पास तो पैसा ही नहीं है भरने के लिए, किन्तु ये एक अलग बात है। 

विश्व के सामने आतंकवाद, पर्यावरण, शरणार्थी समस्या विकराल रूप ले रही है, किन्तु इस मंच से देश एक दूसरे को निपटाने में लगे हैं। इस सत्र की शुरुआत हमेशा की तरह अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने की। उत्तरी कोरिया को लेकर स्वयं अपनी पीठ थपथपाई। ईरान को लेकर अपना गुस्सा उगला। भारत के विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक परिवार की तरह काम करने की सलाह दी और उन राष्ट्रों को नसीहत दी जिन्हें ‘मैं’ के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। 

यूएन की पूरी संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्‍यकता है, नहीं तो हर वर्ष इसी तरह मेले लगेंगे और उठ जाएँगे। नेता विदा लेंगे, फिर मिलेंगे अगले वर्ष की तर्ज पर। अगले बरस जल्दी आने की किसी को पड़ी नहीं है। आराम से भी आओ। कुछ फर्क नहीं पड़ता। अधिकारियों का सैर-सपाटा अवश्य हो जाता है और नेताओं की झाँकी जम जाती है। विश्व-हित की चिंता किसे है?

ईसाई देश अर्मेनिया और मुस्लिम देश अजरबैजान के बीच संघर्ष में तुर्की और पाकिस्तान खुलकर उतर आए हैं। पाकिस्तान ने जहाँ अपनी सेना अजरबैजान को भेजी है, वहीं तुर्की के साथ मिलकर सीरिया और लीबिया से आतंकवादी भी वहाँ भेज रहा है। तुर्की और पाकिस्तान की इन करतूतों से विश्व युद्ध भड़कने का खतरा है।

बहरहाल आज जब दुनिया इतिहास के एक चुनौती एवं संकटपूर्ण दौर से गुजर रही है, तब दो देशों के बीच ऐसे युद्ध को लंबा खिंचने देना खतरनाक हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र की हालात ऐसी नहीं रह गई है कि उससे ज्यादा उम्मीद की जा सके। हालाँकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने औपचारिक तौर पर हिंसक युद्ध को तत्काल प्रभाव से रोकने और बिना किसी पूर्व शर्त के दोबारा वार्ता शुरू करने को कहा है। मगर इसका कोई परिणाम नजर नहीं आ रहा।

गौरतलब है कि 2015 में ईरान द्वारा इजराइल को ‘नष्ट’ करने की धमकी देने के बाद इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश सदस्य देशों पर इसके खिलाफ “कुछ भी नहीं” करने का आरोप लगाया था।

1994 में हुए रवांडा नरसंहार के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका, ब्रिटेन, बेल्जियम समेत तमाम देशों को उनकी निष्क्रियता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र यहाँ शांति स्थापना करने में नाकाम रहा। वहीं, पर्यवेक्षकों ने इस नरसंहार को समर्थन देने वाली फ्रांस की सरकार की भी जमकर आलोचना की।

1994 में 6 अप्रैल को किगली में हवाई जहाज पर बोर्डिंग के दौरान रवांडा के राष्ट्रपति हेबिअरिमाना और बुरुन्डियान के राष्ट्रपति सिप्रेन की हत्या कर दी गई, जिसके बाद ये संहार शुरू हुआ। करीब 100 दिनों तक चले इस नरसंहार में 5 लाख से लेकर 10 लाख लोग मारे गए। तब ये संख्या पूरे देश की आबादी के करीब 20 फीसदी के बराबर थी।

इस संघर्ष की नींव खुद नहीं पड़ी थी, बल्कि ये रवांडा की प्रभावशाली सरकार द्वारा प्रायोजित नरसंहार था। इस सरकार का मकसद विरोधी तुत्सी आबादी का देश से सफाया था। इसमें ना सिर्फ तुत्सी लोगों का कत्ल किया गया, बल्कि तुत्सी समुदाय के लोगों के साथ जरा सी भी सहानुभूति दिखाने वाले लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।

इसके अलावा महामारी से निपटने में संयुक्त राष्ट्र की नाकामी की बातें काफी ज्यादा होने लगी है। खास तौर पर दुनिया के देशों की एकजुटता को लेकर खुलकर सवाल उठने लगे हैं। बात सिर्फ महामारी के मोर्चे पर नाकामी तक सीमित नहीं रही। बल्कि महामारी के अलावा दुनिया में असमानता, भूख और जलवायु संकट के मुद्दों पर भी विश्व निकाय की नाकामियों का जिक्र हो रहा है और इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की आवाज भी ऊँची होती नजर आ रही है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतेरिस कबूल कर चुके हैं कि महामारी वाकई अंतरराष्ट्रीय सहयोग के काम का एक इम्तिहान है और इसमें हम नाकाम रहे हैं।

एकमत होने में भारी अड़चन

संयुक्त राष्ट्र महासभा में विश्व नेताओं की ऑनलाइन बैठक में दुनिया के तमाम देश मुख्य मुद्दों पर एकमत नहीं हो पाए। विश्व युद्ध के बाद 50 देशों के एकसाथ आने से बने संयुक्त राष्ट्र ने संकल्प किया था कि युद्ध से बचा जाएगा, लेकिन इस संकल्प को पूरा करने में अड़चन आई। कहा यह गया कि दुनिया भर में असामनता, भूख और जलवायु संकट के कारण संघर्ष बढ़ते ही चले गए। क्या यह सवाल नहीं उठता कि ये जो तीन प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं, उन्हें दूर करने का काम किसका था? बेशक यह काम भी एकजुट होकर ही हो सकता था, लेकिन नहीं हो पाया।

नेताओं के बयानों से भी अंदाजा लगाएँ

संयुक्त राष्ट्र की मौजूदा स्थिति का अंदाजा दो नेताओं के बयानों से भी लगता है। मसलन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों अगर यह कह रहे हों कि छोटी-छोटी बातों पर भी सहमति बनने में अड़चन आई तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र किस स्थिति में पहुँच गया है। मैक्रों ने तो यहाँ तक कह दिया कि संस्था के कमजोर पड़ने का जोखिम नज़र आने लगा है। इसी तरह स्विटजरलैंड के राष्ट्रपति सिमिनेटे सोमेरूगा अगर यह बात कह रहे हों कि समस्या संस्था के रूप में संयुक्त राष्ट्र के साथ नहीं बल्कि उसके सदस्य देशों के साथ है। तो क्या यह माना जाए कि संस्था में सदस्य देशों की दिलचस्पी कम हो चली है।

जबकि आज तो और भी जरूरी है संयुक्त राष्ट्र

संयुक्त राष्ट्र दूसरे विश्वयुद्ध की तबाही झेलने के बाद बना था। आज विश्व के सामने कई चुनौतियाँ आकर खड़ी हो गई हैं। महामारी तो है ही, वैश्विक मंदी और उससे उपजने वाले ढेरों संकट सामने हैं, खासतौर पर असमानता बढ़ने और भूख के संकट का अंदेशा। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र को अपनी भूमिका बढ़ाने और उसे और ज्यादा मजबूत बनाने की दरकार है। और अगर वह कमजोर होता दिखाई दे रहा हो तो दुनिया के जागरूक समाज को चिंता की मुद्रा में आ जाना चाहिए।

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