समाचार चैनल ‘रिपब्लिक टीवी’ के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी के साथ मुंबई पुलिस का दुर्व्यवहार आज की सबसे बड़ी खबर है। अर्णब को जिस तरह से मारपीट के बाद पुलिस अधिकारियों ने उनके घर से उठाया और साल 2018 के केस का हवाला देकर अपने साथ थाने ले गए, उसके पीछे की मंशा सभी को मालूम है। यह वही केस है जिसे कुछ समय पहले स्वयं मुंबई पुलिस बंद कर चुकी थी लेकिन अब नई सरकार के नेतृत्व में यह फिरसे खोला गया है। केस दोबारा क्यों खोले जाते हैँ यह बताने की जरूरत नहीं है।
यह बात सब जानते हैं कि अर्णब गोस्वामी के समाचार चैनल रिपब्लिक टीवी की पत्रकारिता ने पिछले दिनों किस तरह से महाराष्ट्र सरकार के नाक में दम किया हुआ था। पिछले 4-5 महीनों से रिपब्लिक टीवी प्रमुखता से महाराष्ट्र सरकार व मुंबई पुलिस के ख़िलाफ़ अपनी कवरेज कर रहा था। यानी, यदि चैनल 18 घंटे लाइव आया तो 9 घंटे या उससे भी ज्यादा प्रशासन के ख़िलाफ़ बोलता रहा।
क्रमानुसार देखें तो बांद्रा में रिपोर्टिंग को लेकर शुरू हुए विवाद के बाद पालघर लिंचिंग में सोनिया गाँधी से सवाल पूछने, सुशांत सिंह केस में सीबीआई जाँच की माँग करने, फिर ड्रग मामले तक रिपब्लिक टीवी लगातार सुर्खियों में रहा। बाद में अचानक खबर आई कि पूरे संस्थान के 1000 कर्मचारियों के ख़िलाफ़ एफआईआर हो गई है।
आजाद भारत के इतिहास में किसी सरकार ने शायद ही ऐसा कदम कभी किसी संस्थान के ख़िलाफ़ उठाया हो या आजादी के बाद से शायद ही पत्रकारों के ख़िलाफ़ हुए केसों की कुल गिनती भी इस संख्या के आस-पास पहुँच पाई हो। हो सकता है नैतिकता के आधार पर रिपब्लिक टीवी की पत्रकारिता गलत हो मगर रिपब्लिक टीवी अकेला ऐसा चैनल नहीं है जिसने जर्नलिज्म को इस गर्त में पहुँचाया।
आज अन्य चैनलों के मुकाबले अर्नब गोस्वामी के इस चैनल की टीआरपी सबसे ज्यादा है। दर्शक उन्हें देखना पसंद कर रहे हैं। उन्हें सुनना पसंद करते हैं। ऐसे में यदि वामपंथी गिरोह के लोग उनकी गिरफ्तारी को प्रेस फ्रीडम पर खतरा बताने की जगह उन्हें पत्रकारिता का ज्ञान दे रहे हैं, तो सोचिए ये कहाँ तक वाजिब है कि एक ऐसे शख्स को जर्नलिज्म के गुण दोष बताना जिसने इसी क्षेत्र में रहते हुए मीडिया चैनल के रूप में एक पूरा एम्पायर खड़ा कर दिया हो।
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