मौसम चुनावी हो रखा है लेकिन आज बात इतिहास की करेंगे। राजनीति उसमें आप स्वयं ढूँढ लीजिएगा। इतिहास की बात इसलिए क्योंकि भारत के कुछ नेता जनता से पढ़ाई-लिखाई-सड़क-सुरक्षा-स्वास्थ्य-नौकरी आदि की बात न करके इतिहास की बात कर रहे हैं। हमेशा ऐशो-आराम की जिंदगी जीने वाले ऐसे नेता यह भूल जाते हैं कि उनके बाप-दादाओं की क्या हैसियत थी! और यह भी भूल जाते हैं कि उनके पूर्वज ने लालच में आकर कुर्सी की खातिर कब थूका और कब चाटा। इसलिए आज इतिहास की बात।
कहानी की शुरुआत होती है जनक सिंह से, जो आर्मी अफसर थे। 15 अगस्त 1947 – देश तब आजाद हुआ था। कहानी के दूसरे पात्र हैं – मेहर चंद महाजन। यह वकील थे, फिर जज बने। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी रहे। कहानी के तीसरे पात्र वो हैं, जिन पर शीर्षक लिखा गया है। ये वो हैं, जिनके वंशज अभी भी राजनीति कर रहे हैं – मतलब इनका नाम जिंदा रखे हुए हैं। बाकी दोनों पात्र भुला दिए गए हैं। तभी कहानी के जरिए आप तक पहुँच रहे हैं।
15 अगस्त 1947 से 14 अक्टूबर 1947
इस कालखण्ड में जनक सिंह प्रधानमंत्री थे – जम्मू और कश्मीर के। इसके पहले वो आर्मी मिनिस्टर और रेवेन्यू मिनिस्टर भी रहे थे। आजादी के आस-पास उथल-पुथल वाले माहौल में जनक सिंह केवल 65 दिनों तक जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे।
15 अक्टूबर 1947 से 5 मार्च 1948
जनक सिंह के बाद जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री पद पर मेहर चंद महाजन की एंट्री होती है। इन्हीं के समय आजाद भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर को लेकर पहला युद्ध (22 अक्टूबर 1947 से 5 जनवरी 1949) लड़ा गया। युद्ध की शुरुआत के 4 दिनों के बाद 26 अक्टूबर को जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन जाता है। मतलब प्रधानमंत्री के तौर पर मेहर चंद महाजन ने अपना रोल बखूबी निभाया होगा, इसमें कोई शक नहीं।
5 मार्च 1948 – 9 अगस्त 1953
शेख अब्दुल्ला इस कहानी के तीसरे पात्र हैं। आजाद भारत में जम्मू और कश्मीर के तीसरे प्रधानमंत्री भी। लगभग साढ़े पाँच साल यह जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे। तब राज्य के चीफ करण सिंह (राजा हरि सिंह के बेटे) ने शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया। इतना ही नहीं, कश्मीर कॉन्सपिरेसी केस मामले में अब्दुल्ला को लगभग 11 साल तक जेल में भी रहना पड़ा।
PM से CM पद तक का सफर
नाटकीय घटनाक्रम के तहत 8 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला पर लगे सारे आरोप हटा लिए जाते हैं। ये फिर से राजनीति में आते हैं। दुखद यह कि जो शख्स कभी जिस रियासत का प्रधानमंत्री था, उसने अपने आत्मसम्मान का गला घोंटकर मुख्यमंत्री बनना स्वीकार कर लिया। एक बार नहीं, बल्कि 2-2 बार। 25 फरवरी 1975 से 26 मार्च 1977 और फिर 9 जुलाई 1977 से 8 सितंबर 1982 तक शेख अब्दुल्ला जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे।
शेख अब्दुल्ला के पोते हैं उमर अब्दुल्ला। वो भी जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनके पापा हैं फारुक अब्दुल्ला – मतलब शेख अब्दुल्ला के बेटे। ये भी जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बाप का, दादा का, पोता का… मतलब जम्मू और कश्मीर की राजनीति खानदानी पेशा है इनका।
उमर अब्दुल्ला शायद अपने दादाजी का नाम और इतिहास भूल गए हैं। यह कहानी उमर के लिए भी। उनको याद दिलाने के लिए कि कैसे उनके दादाजी ने ‘वज़ीर-ए-आज़म’ का सपना थूक कर मुख्यमंत्री की कुर्सी थामी थी। और चुनावी माहौल में पोता चले हैं अपने दादा के थूके हुए को चाटने… ताकि फिर से ‘वज़ीर-ए-आज़म’ का सपना बेच कर सत्ता की कुर्सी पर तशरीफ़ रखी जा सके। मतलब साफ है – थूकना हो या थूक कर चाटना हो – कुर्सी पाना खानदानी पेशा है इस परिवार का।