जम्मू कश्मीर में आतंकियों और अलगाववादियों की गतिविधियों से कोई अनजान नहीं। आतंकी छुप-छुप कर कायराना तरीक़े से वार करते हैं, अलगाववादी अपने आप को विक्टिम दिखा कर इस पार से भी मलाई चाटते आए हैं और उस पार से भी। अभी तक अलगाववादियों के मजे ही मजे थे लेकिन मोदी सरकार के सत्ता सँभालने के साथ ही इनकी अय्याशियों का दौर ख़त्म हो गया, जो कि ज़रूरत से ज़्यादा लम्बा हो चला था। किसी भी कार्य को बड़े स्तर पर करने के लिए प्राथमिक तौर पर दो संसाधनों की आवश्यकता होती है- मानव संसाधन और धन। कश्मीरी अलगाववादी इन दोनों का ही भरपूर इस्तेमाल करते हैं। पत्थरबाजों की फ़ौज सड़कों पर यूँ ही नहीं उतरती, उन्हें उतारने के लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ती है। यह कुचक्र काफ़ी बड़ा है, गहन है और इसमें कई खिलाड़ी शामिल हैं। हम एक-एक कर इन सभी पहलुओं की पड़ताल करेंगे और इतने बड़े नेक्सस को उजागर करने के लिए इतिहास की घटनाओं, विश्लेषकों की राय और ताज़ा घटनाक्रम पर प्रकाश डालेंगे।
व्यापारी ज़हूर अहमद और टेरर फंडिंग
यह खेल इतना बड़ा है कि इसमें व्यापारी, राजनयिक, नेता, आतंकी और अलगाववादी सभी शामिल हैं। अभी हाल ही में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) ने कश्मीरी व्यापारी ज़हूर अहमद शाह वटाली की गुड़गाँव स्थित एक करोड़ रुपए की संपत्ति को जब्त किया। टेरर फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग का मामला झेल रहा ज़हूर कश्मीर का एक बहुत बड़ा व्यापारी है। श्रीनगर में उसका अच्छा-ख़ासा प्रभाव है। उस पर कई महीनों से जाँच चल रही है। सितंबर 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे जमानत दी थी। आने वाले दिनों में प्रवर्तन निदेशालय उनकी 6 करोड़ रुपए की अतिरिक्त संपत्ति को भी जब्त करने वाला है। ज़हूर के सम्बन्ध पाकिस्तानी आईएसआई से लेकर आतंकियों तक से हैं। उसे 17 अगस्त 2017 को गिरफ़्तार किया गया था। यह बहुत ही गंभीर मामला है। यह इतना गंभीर है कि उस पर फाइल की गई चार्जशीट में हाफ़िज़ सईद और सैयद सलाहुद्दीन के साथ मिल कर जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने का कुचक्र रचने का जिक्र किया गया था।
सबसे बड़ी समस्या है कि ऐसे लोगों पर कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती। अगर वटाली जैसे लोगों पर समय रहते उचित कार्रवाई की गई होती तो आज उसने हाफ़िज़ सईद के रुपयों से गुरुग्राम में संपत्ति नहीं ख़रीद रखी होती। डेढ़ दर्जन से भी ज्यादा आरोपितों पर टेरर फंडिंग के मामले में कार्रवाई चल रही है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि वटाली को 1990 में ही कश्मीरी आतंकियों को पोषित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। अगर उस समय उचित कार्रवाई की गई होती तो आज लगभग 30 वर्षों बाद वही व्यक्ति फिर से वही सब नहीं कर रहा होता। पिछले 30 वर्षों में उसने किन आतंकियों को रुपए मुहैया कराए, उनका कहाँ इस्तेमाल किया गया, उससे कितनी क्षति हुई यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। तीन दशक एक बहुत बड़ा समय होता है। अब जब एनआईए ने इस केस को अपने हाथों में ले लिया है, कई राज खुलने की संभावना है।
ज़हूर अहमद को 1991 में छोड़ दिया गया लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आया। उसे अगस्त 1994 में पाकिस्तानी आतंकी सगठन अल बुर्क़ को वित्तीय संरक्षण देने के लिए फिर गिरफ़्तार किया गया। 2005 में यूपीए के शासनकाल के दौरान ही यह बात खुल कर सामने आ गई थी कि ज़हूर अहमद आईएसआई और अलगाववादियों के बीच धन प्रवाह का एक पुल है। वह एक ऐसा केंद्र रहा है, जहाँ पाकिस्तान और कश्मीर में आतंक फैला रहे लोग एक-दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधनों का आदान-प्रदान करते हैं। वटाली दिल्ली की कई महँगी जगहों पर संपत्ति लेकर बैठा रहा और 30 सालों से सरकारें अनजान बानी रही या उसे खुला छोड़ रखा गया। वह अपना व्यापार बढ़ाता गया और साथ ही आतंकवाद को फंडिंग मुहैया कराता रहा।
टेरर फंडिंग: पाकिस्तान राजनयिक कनेक्शन
अब घूम-फिर कर शक की सुई फिर से पाकिस्तानी दूतावास पर आ गई है। एनआईए को शक है कि अलगाववादियों को कश्मीर में अशांति फैलाने के लिए सरहद पार से करोड़ों रुपए मिले हैं। वटाली के साथ काम कर रहे गुलाम बट के पास से मिले दस्तावेजों के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय का कहना है कि पाकिस्तानी राजनयिकों ने टेरर फंडिंग के इस मामले में अहम भूमिका निभाई है। कर्नल जयबंस सिंह ने अपनी पुस्तक ‘Jammu and Kashmir: The Tide Turns‘ में लिखा है कि बरसों से चल रही सीबीआई की जाँचों से पता चलता है कि गिलानी, अब्दुल गनी लोन, मौलाना अब्बास गिलानी जैसे अलगाववादी ‘Foreign Contribution Regulation Act (FCRA)’ का उल्लंघन करते आए हैं। ऐसा वे कई बार कर चुके हैं। गिलानी सरकार को दशकों से यह बोल कर बेवकूफ बनाता रहा है कि उसे स्थानीय लोगों से रुपए मिलते हैं लेकिन कश्मीरी ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति को देख कर ऐसा लगता नहीं कि वे अलगाववादियों के लिए इतने रुपए चंदा दे सकते हों। हाँ, मध्यम वर्ग ज़रूर रंगदारी या जबरदस्ती की वजह से पैसे देने में समर्थ हो लेकिन स्वेच्छा से शायद ही कश्मीरी करोड़ों रुपए दान कर दें।
कर्नल सिंह ने अपने रिसर्च में पाया कि अलगाववादियों की लम्बे समय से हवाला कारोबार में हिस्सेदारी रही है और सीबीआई ने कहा था कि गिलानी ने अमेरिका में रह रहे कश्मीरियों और सऊदी अरब से क़रीब 30 करोड़ रुपए जुटाए थे। जेएनयू के एक छात्र सहाबुद्दीन गोरी ने अलगाववादियों को 16 लाख से भी अधिक रुपए दिए थे, जो उसने हवाला के जरिए जुटाया था। जेएनयू तक इस कनेक्शन का पहुँचना यह दिखाता है कि भारत के कोने-कोने से ऐसे कथित बुद्धिजीवी हैं जो कश्मीर में फ़ैल रहे आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। 1992 में तो एक सुप्रीम कोर्ट के वकील के भी इस कुचक्र में शामिल होने की ख़बरें आई थीं। 1992 में पूर्व कॉन्ग्रेस (आई) नेता मोहम्मद अनीस ने खुलासा किया था कि अब्दुल गनी लोन को उसकी बेटी के माध्यम से हवाला भुगतान हुआ था। उसकी बेटी शबनम सुप्रीम कोर्ट में वकील है। ये रुपए दिल्ली के हवाला ऑपरेटर शशि अग्रवाल द्वारा आया था।
अब हम आपको 2003 की एक ख़बर की तरफ ले चलते हैं। आज जो भारतीय एजेंसियों की शक की सुई पाकिस्तानी राजनयिकों तक जा पहुँची है, यह बेजा नहीं है। 2003 में भारत ने कार्यवाहक पाकिस्तानी उच्चायुक्त जलील अब्बास जिलानी को देश से निकाल दिया था। जिलानी और दिल्ली स्थित पाकिस्तानी दूतावास के अन्य राजनयिकों ने कश्मीर में आतंक को बढ़ावा देने के लिए फंडिंग करने का कार्य किया था। इसी कारण उन्हें निकाल बाहर किया गया। यह दिखाता है कि देश में पाकिस्तानी नागरिकों की मौजूदगी कितनी ख़तरनाक है, चाहे यह किसी भी रूप में हो। टेरर फंडिंग के इस मामले में कुछ पत्रकार भी शामिल हैं। पाकिस्तानी राजनयिक महमूद अख्तर को तो हाथों भारत में जासूसी करते हुए पकड़ा गया था, जिसके बाद उन्हें देश से निकाल फेंका गया।
अंतररष्ट्रीय विश्लेषक मैथ्यू जे वेब अपनी पुस्तक ‘Separatist Violence in South Asia: A comparative study‘ में श्रीलंका में तमिल विद्रोह, पंजाब में खालिस्तान आंदोलन और कश्मीर में अलगाववाद की तुलना करते हुए कहते हैं कि इन तीनों में विदेश में रह रहे स्थानीय समुदाय के लोगों का वित्तीय योगदान था। शायद यही कारण है कि कश्मीरी अलगाववादी अक्सर अमेरिकी और दुबई दौरे पर जाते हैं ताकि वहाँ रह रहे अमीर कश्मीरी कट्टरपंथियों से सहानुभूति पाकर फंडिंग ले सकें।
भारत सरकार ने बढ़ाई अलगाववादियों की हिम्मत
भारत की जमीन पर आतंकवाद को फंडिंग करने वाले व जासूसी करने वाले पाकिस्तानी राजनयिकों को निकाल बाहर किया गया। बदले में पाकिस्तान ने भी भारतीय राजनयिकों को वापस देश जाने को कहा। इस तरह से इसे एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मुद्दे का रूप दे दिया जाता है। एक व्यापारी जो भारत में ही रह कर आतंकियों को वित्त पोषण दे उसे गिरफ़्तार कर के खुला छोड़ दिया जाता है। अलगाववादियों द्वारा विदेशों से करोड़ों रुपए जुटा कर लाए जाते हैं और विदेशी मुद्रा अधिनियम का उल्लंघन किया जाता है लेकिन इस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती। इस सबसे क्या पता चलता है? इन सब से यही निष्कर्ष निकलता है कि आतंकियों और अलगाववादियों पर ढीला रवैया अपना कर सरकारों ने ही उनका हौसला बढ़ाया।
आतंकवाद पर भारत की हर कार्रवाई को पाकिस्तान द्वारा कूटनीतिक रंग देना अलगाववादियों व आतंकियों के हित में कार्य करता है। राजनेताओं द्वारा इसे धार्मिक कोण दे दिया जाता है। धर्म और कूटनीति के बीच पिसता हुआ आतंकवाद का मुद्दा न जाने कहाँ खो जाता है। अब भारत सरकार द्वारा अलगावादियों की सुरक्षा वापस लेकर और टेरर फंडिंग का मामला दर्ज कर सही काम किया गया है। मीरवाइज़ उमर फ़ारुक़ ने तो एनआईए के समक्ष पेश होने से ही मना कर दिया। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा ने उसे धर्म की आड़ में बचाने की कोशिश की। यह सब असली मुद्दे को छिपाने की कोशिश है, जिसे समझते हुए आगे की कार्रवाई की जानी चाहिए। चाहे वह जेएनयू का छात्र हो, सुप्रीम कोर्ट का वकील हो, कोई व्यापारी हो या फिर कोई पत्रकार आतंक को वित्तीय मदद मुहैया कराने वाले इन सभी पर तगड़ा वार होना चाहिए।