हर आतंकी और उसका संगठन एक ही नारा लेकर निकलता है, काले झंडे पर सफ़ेद रंग से लिखा वाक्य क्या है, सबको पता है। बोल नहीं सकते, वरना 'बिगट' और 'कम्यूनल' होने का ठप्पा तुरंत लग जाएगा। हमने पीढ़ियाँ निकाल दीं कहते हुए कि आतंक का कोई मज़हब नहीं होता।
उत्पात मचाने के बाद इस भीड़ ने दिल्ली रोड पर निजी वाहनों और रोडवेज बसों में भी तोड़फोड़ करके जमकर लूटपाट की। गनीमत सिर्फ़ इतनी रही कि वहाँ आम लोगों के संयम और सूझ-बूझ से शहर दंगे की आग में जलने से बच गया।
कवाला गाँव की इस घटना के बाद मुज़फ़्फ़रनगर शहर और शामली में भी दो सम्प्रदाय के बीच दंगे हुए थे। इस दंगे में लगभग 60 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी, जबकि सैकड़ों लोग घायल हुए थे।
कवाला गाँव की घटना के बाद मुजफ़्फरनगर शहर और शामली में भी दो संप्रदाय के बीच दंगे हुए थे। इस दंगे में लगभग 60 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी, जबकि सैकड़ों लोग घायल हुए थे।
यहाँ न तो दलित मरा, न मुस्लिम। उल्टे तथाकथित दलितों ने पुलिस वाले की जान ले ली क्योंकि उन्हें लगा कि वो जान ले सकते हैं। ये मौत तो 'दलितों/वंचितों' का रोष है जो कि 'पाँच हज़ार सालों से सताए जाने' के विरोध में है।