Sunday, December 22, 2024
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आज दरभंगा के श्यामा माई मंदिर में बलि देने पर रोक, कल कहेंगे – माँ काली के गले से हटा दो नरमुंडों की माला: बकरीद की कुर्बानी से अलग है सनातन की यह परंपरा

पशु बलि पर सरकार बैन लगा देती है, लेकिन बकरीद के दिन खून की नदियाँ बह जाती हैं फिर भी किसी के मुँह से चूँ तक नहीं मिलता। मुस्लिम समाज मांस भी 'झटका' नहीं, 'हलाल' खाता है। इस प्रक्रिया में जानवरों को तड़पा-तड़पा कर धीमे-धीमे मारा जाता है।

बिहार सरकार ने दरभंगा के श्यामा माई मंदिर में बलि प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके बाद हिन्दू आक्रोशित हैं। ‘बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद’ ने ये फैसला लिया है। इसके अध्यक्ष अखिलेश कुमार जैन हैं, जो पूर्व में विधि सचिव रहे हैं। उनका पुतला जलाते हुए उन्हें पद से हटाने की माँग की जा रही है। श्रद्धालु कह रहे हैं कि हिन्दू परंपरा के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है, इतिहास में प्राचीन काल से जो प्रथा चली आ रही है उसमें बाहर से हस्तक्षेप क्यों किया जा रहा है?

यही कारण है कई ‘बजरंग दल’ जैसे हिन्दू संगठन भी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। बिहार में जदयू, राजद और कॉन्ग्रेस की संयुक्त सरकार है जिसके मुखिया नीतीश कुमार हैं। तेजस्वी यादव उनके डिप्टी हैं। तीनों ही दल भाजपा के विरोध में हैं, केंद्र की मोदी सरकार के विरोधी हैं। भाजपा हिंदुत्व के मुद्दों को लेकर मुखर रहती है। ऐसे में हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप करने वाले इस फैसले को लेकर विरोध होना स्वाभाविक है। जिन भक्तों की श्यामा माई में आस्था है और जिनकी पीढ़ियाँ दशकों से वहाँ पशु बलि देती आ रही है, उनके हाथ बाँधे जाने का क्या तुक है?

आइए, सबसे पहले श्यामा माई मंदिर के बारे में जानते हैं। ये मंदिर दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह की चिता पर स्थित है। रामेश्वर सिंह साधक भी थे, इसीलिए उनकी चिता पर माँ काली का ये मंदिर बना। यही कारण है कि इसे रामेश्वरी माई मंदिर भी कहा गया। उनके बेटे कामेश्वर सिंह ने सन् 1933 में इसका निर्माण करवाया था। मंदिर के गर्भगृह की बात करें तो माँ काली की प्रतिमा के दाहिनी ओर महाकाल और और बाईं ओर गणपति एवं बटुकभैरव स्थापित हैं।

माँ काली के गले में जो मुंडमाला है, उसमें हिंदी वर्णमाला में जितने अक्षर हैं उतने ही नरमुंड हैं। हिंदी वर्णमाला को सृष्टि का प्रतीक भी माना जाता है। नवरात्र में यहाँ विशेष आयोजन होता आ रहा है। बड़ी बात ये है कि यहाँ वैदिक के साथ-साथ तांत्रिक प्रक्रियाओं से भी माँ काली की आराधना होती है। ‘रामेश्वर चरित मिथिला रामायण’ में महाराज के सेवक रह चुके लालदास ने श्यामा माई को माँ सीता का रूप भी बताया है। इसमें कथा है कि सहस्त्रानन्द असुर का एक ठीक भगवान राम को लग गया, जिसके बाद आक्रोशित माँ सीता का रंग काला पड़ गया और जिह्वा निकल आई।

इसके बाद उन्होंने असुर का वध कर दिया। उनके इसी रूप को श्यामा माई कहा गया। कहा जाता है कि उनका क्रोध शांत करने के लिए स्वयं भगवान शिव को आना पड़ा था। यहाँ 2 चीजें गौर करने लायक हैं – पहली, ये एक शाक्त मंदिर है, देवी पूजा का स्थल है। दूसरी, यहाँ तंत्र साधना भी होती आई है। ये दोनों ही सनातन हिन्दू परंपरा का हिस्सा हैं। इनमें पशु बलि दी जाती है। यही कारण है कि हिन्दू श्रद्धालु आक्रोशित हैं। किसी भी समुदाय अपनी पूजा-पद्धति से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता।

असल में ‘बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद’ ने पशु क्रूरता अधिनियम का हवाला देकर बलि प्रथा पर रोक लगाई है। प्रदर्शनकारी तैयारी कर रहे हैं कि कुछ दिनों बाद सैकड़ों की संख्या में इकट्ठा होकर पशु बलि दी जाएगी और राज्य सरकार के इस आदेश के साथ असहयोग की घोषणा होगी। इसी तरह अक्टूबर-नवंबर 2020 में महाराष्ट्र के नागपुर स्थित कामठी के दुर्गा मंदिर में पशु बलि देने वालों के खिलाफ FIR दर्ज कर ली गई थी। केरल में तो कानून बना कर ही पशु बलि को बैन कर दिया गया था।

‘वैदिक भारत’ के संस्थापक और हिन्दू परंपराओं के विशेषज्ञ मोहित भरद्वाज ने तब ऑपइंडिया से कहा था कि पशु बलि की हिन्दू धर्म में अनुमति है, लेकिन कई नियमों एवं पाबंदियों के साथ। उन्होंने बताया कि हिन्दू धर्म में ही कई समुदाय देवता को भोजन के रूप में पशु को समर्पित करते हैं। उन्होंने श्रौत और गृह्य सूत्रों का उदाहरण दिया, जिनमें पशु बलि की अनुमति है। सुचित्रा समंता ने ‘एसोसिएशन फॉर एशियाई स्टडीज’ में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में बताया था कि कई तंत्रों एवं पुराणों में पशु बलि की अनुमति है।

यानी, इनमें देवी-देवताओं को भोजन के रूप में मांस और सब्जियाँ, दोनों अर्पण करने के विधान हैं। देवी पूजा में पशु बलि का विशेष महत्व रहा है। जैसे, बंगाल को ले लीजिए। बंगाल में नवरात्रि के दौरान देवी को मांस भी प्रसाद के रूप में अर्पित किया जाता है। दुनिया भर में देवी पूजा बंगाल में भी सबसे भव्य तरीके से होती है। वहाँ पशु बलि आम है, क्योंकि ये शाक्त परंपरा का हिस्सा है। शाक्त, हिन्दू समाज का हिस्सा है। शक्ति की उपासना और तंत्र साधना में पशु बलि प्राचीन काल से दी जाती रही है।

इसका कारण है कि वनवासी समाज भी हिन्दू धर्म का हिस्सा है और वो देवी-देवताओं को खुश करने के लिए वही अर्पण करता रहा है, जो उसकी दिनचर्या का हिस्सा है। इसीलिए, वो मांस भी प्रसाद के रूप में चढ़ाते आ रहे हैं। भारत के ‘सेक्युलर’ कानून का तमाशा देखिए कि यहाँ अगर कोई मांस खाने के लिए पशु हत्या करे तो ये जायज है, लेकिन अगर बलि के रूप में हो तो अपराध है। साफ़ है कि सिर्फ एक समुदाय की धार्मिक परंपराओं का मानमर्दन किया जा रहा है, उन्हें रोका जा रहा है।

पशु बलि पर सरकार बैन लगा देती है, लेकिन बकरीद के दिन खून की नदियाँ बह जाती हैं फिर भी किसी के मुँह से चूँ तक नहीं मिलता। मुस्लिम समाज मांस भी ‘झटका’ नहीं, ‘हलाल’ खाता है। इस प्रक्रिया में जानवरों को तड़पा-तड़पा कर धीमे-धीमे मारा जाता है। इसमें किसी को पशु क्रूरता नज़र नहीं आती। चूँकि मुस्लिम समाज में एकता है और राजनीतिक दलों का उनका तुष्टिकरण भी करना है, इसीलिए उनकी किसी भी परंपरा को छुआ तक नहीं जाता।

लेकिन, बात हिन्दुओं की हो तो सरकारें ठेकेदार बन कर सामने आ जाती हैं। जबकि पशु हत्या का इस्लामी तरीका खासा बर्बर है। हालाँकि, इस्लामी तौर-तरीके इसका आधार नहीं होने चाहिए कि हिन्दू परंपराओं को लेकर सरकार या अदालत क्या फैसला लेती है। हिन्दू समाज को अपनी परंपराओं के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए। दूसरे समाज में क्या हो रहा है, इसे आधार बना कर नहीं बल्कि अपने इतिहास को आधार बना कर। इस हिसाब से पशु बलि पर सरकार का बैन लगाना ठीक नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं द्वारा पूजा किए जाने की अनुमति दे दी थी, उन एक्टिविस्ट्स की याचिका के आधार पर जिनकी हिन्दू धर्म में कोई श्रद्धा ही नहीं थी। जबकि सबरीमाला मंदिर में बच्चियों और बुजुर्ग महिलाओं को पूजा की अनुमति है। फिर भी इस मंदिर के बारे में दुष्प्रचारित किया गया कि ये महिला विरोधी है। किसी मस्जिद में कौन घुसेगा और कौन नहीं, क्या ये आपने सरकार या न्यायपालिका को तय करते हुए देखा है?

हिन्दू धर्म कैसे चलेगा, ये हमारे मंदिरों की परंपराओं, शास्त्रों, इतिहास और हिन्दू विद्वानों के मत से तय होगा – सरकार या कोर्ट से नहीं। क्योंकि सनातन हिन्दू धर्म जब से चला आ रहा है, तब से अनेक बार इसमें नए बदलाव हुए हैं, कुछ चीजें जुड़ी हैं और कुछ हटाई गई हैं – ये सब समाज ने ही तय किया है। तब कोर्ट या सरकार मौजूदा रूप में नहीं होते थे। कुछ दिनों बाद सरकार कहने लगेगी कि माँ काली के गले से नरमुंड भी हटा दिए जाएँ, इससे हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है। धर्म ऐसे नहीं चलेगा।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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