Friday, November 22, 2024
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हिंदू विवाह में कन्यादान एक अनिवार्य रस्म नहीं, सात फेरे ही शादी के लिए काफी: इलाहाबाद हाई कोर्ट

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बेंच ने 22 मार्च 2024 को ये फैसला सुनाया, उन्होंने कहा कि कन्यादान हिंदू विवाह की अनिवार्य शर्त नहीं है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि कन्यादान हिंदू विवाह के लिए एक अनिवार्य रस्म नहीं है। कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में केवल सात फेरे को हिंदू विवाह के लिए अनिवार्य रस्म माना गया है। कन्यादान का उल्लेख अधिनियम में नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बेंच ने 22 मार्च 2024 को ये फैसला सुनाया, उन्होंने कहा कि कन्यादान हिंदू विवाह की अनिवार्य शर्त नहीं है।

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुभाष विद्यार्थी ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार, ‘सात फेरे’ को विवाह की एकमात्र अनिवार्य रस्म माना गया है। ‘कन्यादान’ एक सांस्कृतिक रस्म है जिसमें पिता अपनी बेटी को दूल्हे को सौंपता है। यह रस्म पितृत्व से स्त्रीत्व की यात्रा का प्रतीक है। हाई कोर्ट ने कहा कि ‘कन्यादान’ एक महत्वपूर्ण रस्म हो सकती है, लेकिन यह विवाह की वैधता के लिए आवश्यक नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि यह रस्म महिलाओं के खिलाफ भेदभाव का कारण बन सकती है।

हाई कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह की धारा 7 कहती है कि हिंदू विवाह विवाह के किसी भी पक्ष के पारंपरिक संस्कारों और समारोहों के अनुसार संपन्न किया जा सकता है। प्रावधान में कहा गया है कि जहाँ ऐसे संस्कारों और समारोहों में सप्तपदी (दूल्हा और दुल्हन द्वारा पवित्र अग्नि के सामने संयुक्त रूप से सात कदम उठाना) शामिल है, सातवाँ कदम उठाने पर विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाता है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का ध्यान इस ओर तब गया, जब कोर्ट ने देखा कि लखनऊ की एक सत्र अदालत में कुछ गवाहों को बुलाने के लिए समन जारी किया गया था। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि 2015 में विवाह के संचालन का समर्थन करने के लिए प्रस्तुत किए गए विवाह प्रमाण पत्र के संबंध में गवाहों के पहले के बयानों में कुछ अंतर थे। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि विवाह के दौरान कन्यादान किया गया था या नहीं, यह जाँचने के लिए दो गवाहों (एक महिला और उसके पिता) की दोबारा जाँच की जानी थी, क्योंकि कन्यादान हिंदू विवाह का एक अनिवार्य हिस्सा है।

हालाँकि 6 मार्च को ट्रायल कोर्ट ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 311 के तहत गवाहों को वापस बुलाने की याचिकाकर्ता की याचिका को खारिज कर दिया था , जो अदालत को किसी मामले में उचित निर्णय की आवश्यकता के अनुसार किसी भी गवाह को बुलाने का अधिकार देता है। ट्रायल कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ याचिकाकर्ता ने हाई कोर्ट में अपील की थी।

हालाँकि, हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता की अपील को खारिज कर दिया और कहा कि हिंदू विवाह की वैधता को कन्यादान हुआ है या नहीं, इस बात से नहीं जाँचा जा सकता। कोर्ट ने कहा, “कन्यादान की रस्म निभाई गई या नहीं, यह मामले के उचित निर्णय के लिए आवश्यक नहीं होगा और इसलिए, इस तथ्य को साबित करने के लिए सीआरपीसी की धारा 311 के तहत गवाहों को नहीं बुलाया जा सकता है।” कोर्ट ने कहा कि धारा 311 के तहत जरूरी गवाहों को बुलाया जा सकता है, लेकिन कन्यादान की बात को साबित करने की जरूरत नहीं है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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