भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के समय देश ने मुस्लिम तुष्टिकरण का सबसे बड़ा नमूना देखा, जब शाहबानो मामले में अदालत का फ़ैसला पलट दिया गया। एक मुस्लिम महिला को मिला न्याय उससे वापस छीन लिया गया और ऐसा देश की सबसे ताक़तवर सरकारों में से एक ने किया, 415 सीटों वाली राजीव गाँधी सरकार ने। इसके बाद राजीव गाँधी की मुस्लिम तुष्टिकरण वाले छवि बन गई, जिससे निकलने के लिए वो व्याकुल थे। उन्हें डर था कि कहीं मुस्लिमों को ख़ुश करने के चक्कर में हिन्दू हाथ से न निकल जाएँ। अपनी इसी छवि को हटाने के लिए राजीव गाँधी ने राम मंदिर मामले में हाथ डाला।
फ़रवरी 1986 में फ़ैजाबाद अदालत ने आदेश दिया कि राम मंदिर का ताला खुलवाया जाए। प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने ताला खुलवाने में मदद की और इसके जरिए वे हिन्दुओं के मन से अपनी मुस्लिम-प्रेमी छवि हटाना चाहते थे। लेकिन, इतने से ही बात नहीं बनी। जिस गति से राम मंदिर से लोग जुड़ते चले गए, उसी गति से राजीव गाँधी के आसपास के कई नेता उनसे दूर होते चले गए। वीपी सिंह से लेकर अन्य बड़े नेताओं तक, राजीव गाँधी के आपसास से अनुभवी नेता जा रहे थे और उनकी जगह चाटुकारों से भरी जा रही थी।
इसी कारण राजीव गाँधी ने राम मंदिर का ताला खुलवाने में योगदान दिया। लेकिन, राम मंदिर के लिए लोगों के मन में भावनाएँ इतनी प्रबल थीं कि इतने से किसी का मन नहीं भरा। विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस अभियान को जनांदोलन बनाया और बाद में भारतीय जनता पार्टी के जुड़ने से इसे राजनीतिक मजबूती मिली। यह, कहानी शुरू होती है शिलापूजन से। विहिप ने देशभर में शिलायात्रा निकाली, जिसमें लोगों ने शिला दान कर के राम मंदिर निर्माण का संकल्प दोहराया। गाँव-गाँव में चल रही इस यात्रा से देश के मनोभाव का पता चला, लेकिन राजीव गाँधी का भाषण लिखने वाले मणिशंकर अय्यर जैसे नेता इसे भाँप नहीं पाए।
जब बाबरी विध्वंस हुआ, तब माधव गोडबोले केंद्रीय गृह सचिव थे। उनका एक ताज़ा बयान आया है और यही कारण है कि राम मंदिर के इतिहास के इस हिस्से पर हम फिर से गौर कर रहे हैं। गोडबोले ने कहा है कि राम मंदिर आन्दोलन के दो प्रथम कारसेवक थे। एक तो उन्होंने जस्टिस कृष्णमोहन पांडेय को पहला कारसेवक बताया, क्योंकि उनके आदेश के बाद ही मंदिर का ताला खोला गया था। जिला अदालत की छत पर फ्लैग पोस्ट पकड़े एक काला बन्दर बैठा हुआ था, जिसे देख कर उन्हें ऐसा आदेश देने की प्रेरणा मिली। वो बन्दर भूखा-प्यासा बैठा हुआ था। गोडबोले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को दूसरा कारसेवक करार दिया।
गोडबोले का कहना है कि अगर राजीव गाँधी चाहते तो इस मामले का हल निकाला जा सकता था। लेकिन, क्या सचमुच राजीव गाँधी भगवान राम के प्रति इतनी श्रद्धा रखते थे और राम मंदिर बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे? अगर उस समय की घटनाओं से देखें तो राजनीतिक नौसिखिया राजीव गाँधी सिर्फ़ अपनी पुरानी छवि को बदलने के लिए ही राम मंदिर आंदोलन के प्रति सॉफ्ट स्टैंड रख रहे थे। तभी उन्होंने अपने भाषण में रामराज्य का जिक्र किया था। शायद उन्होंने जनभावनाओं को पहचानने में थोड़ी-बहुत सफलता हासिल की थी, लेकिन भाजपा ने 1989 के पूरा चुनाव ही राम मंदिर पर कॉन्ग्रेस को घेरते हुए लड़ा।
Madhav Godbole, the then (Dec 1992) Union Home Secretary: We had made a huge contingency plan because state govt was not going to be cooperative. Narasimha Rao (PM in 1992) was doubtful if he had powers under the constitution to impose President’s rule in this situation. (2/2) https://t.co/xUyXYOFAgW
— ANI (@ANI) November 4, 2019
जिस तरह उन्होंने ताला खुलवाने का श्रेय लिया, उसी तरह राजीव गाँधी राम मंदिर पर शिलान्यास का श्रेय भी लेना चाहते थे। विहिप ने शिलान्यास की घोषणा की थी और इसके लिए सरकार से उसे अनुमति भी मिल गई। हालाँकि, जिस जगह शिलान्यास किया जाना था- उसे न्यायालय ने विवादित बता दिया। राजीव गाँधी चाहते थे कि यूपी के सीएम एनडी तिवारी अदालत को बताएँ कि ये जगह विवादित नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह को तिवारी को मनाने के लिए लखनऊ भेजा गया। राजीव गाँधी विहिप, आरएसएस और भाजपा से राम मंदिर मुद्दा छीनने के लिए ये सब कर रहे थे, क्योंकि शाहबानो मामला उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था।
बोफोर्स घोटाले के कारण उनकी भारी बहुमत वाली सरकार की लोकप्रियता भी जाती रही थी और राम मंदिर आंदोलन को देख कर उन्होंने हिन्दू वोट बैंक को लपकने की कोशिश की। ख़ुद नरसिम्हा राव ने अपनी पुस्तक ‘अयोध्या 6 दिसंबर 1992’ में लिखा है कि कॉन्ग्रेस के लोग धार्मिक भावनाओं को तवज्जो नहीं देते थे। लेकिन, क्या कारण था कि अचानक से राजीव गाँधी हिन्दुओं की भावनाओं की लहर पर सवार होने को बेचैन हो उठे? इसका सीधा जवाब है कि चुनाव में उन्हें फायदा चाहिए था।
तभी तो पानी में बने मचान पर रहने वाले हिमालय के तपस्वी देवरहा बाबा के पास पहुँच गए। वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या‘ में बताया है कि देवरहा बाबा ने राजीव से बातचीत करने के बाद अशोक सिंघल को वृंदावन बुलाया था। उन्होंने कहा था कि अदालत द्वारा विवादित बताए जाने के बावजूद शिलान्यास चुने गए जगह पर ही होगा, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री से आश्वासन मिला है। देवरहा बाबा के पास राजीव गाँधी सलाह के लिए जाते थे और एक तरह से बाबा विहिप और सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका में भी थे। राजीव गाँधी ने तो तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष बलराम जाखड़ को देवरहा बाबा से लगातार संपर्क में रहने को भी तैनात कर दिया था।
ये तस्वीर हत्या से चंद घंटे पहले हुई राजीव गांधी की प्रेस मीट की है, उस रोज़ उनका ये बयान अख़बारों की सुर्खियांं था कि सबकी सहमति से राम मंदिर बनवाया जाएगा तो यहां भी सवाल उठा कि आपने कहा तो कि बनेगा पर कहां ये नहीं बताया ? जवाब था-“क्यों? ये तो ज़ाहिर है कि अयोध्या में ही बनेगा” pic.twitter.com/ZWBN0jE4nM
— Samir Abbas (@TheSamirAbbas) August 20, 2019
9 साल पुरानी भाजपा 1989 आम चुनाव के बाद 2 सीटों से सीधा 185 सीटों पर पहुँच गई और राजीव गाँधी की उम्मीदों पर पानी फिर गया। वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, जिनकी सरकार में राम मंदिर आंदोलन की समर्थक भाजपा भी शामिल थी और इस आंदोलन के विरोधी वामदल भी। राजीव गाँधी को विपक्ष में बैठना पड़ा। इसका मतलब ये कि लाख कोशिशों के बावजूद राजीव गाँधी अपनी शाहबानो वाली छवि से पीछा नहीं छुड़ा पाए। शाहबानो और बोफोर्स- ये दो नाम उनका आजीवन पीछा करते रहे। राजीव गाँधी भाजपा को राम मंदिर का फायदा नहीं उठाने देना चाहते थे लेकिन वे खुद हाथ जला बैठे।
विहिप के अशोक सिंघल, बजरंग दल के विनय कटियार और भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाई और इन चेहरों को जनता के बीच लोकप्रियता भी मिली, जबकि राजीव गाँधी का ग्राफ गिरता ही चला गया। नागपुर में चुनाव प्रचार करते हुए उन्होंने सार्वजनिक रूप से शिलान्यास का श्रेय लेने की कोशिश की। बाबरी एक्शन समिति भी उनकी विरोधी हो गई और भाजपा तो विरोध में थी ही। इस तरह से न उनका पुराना मुस्लिम वोट बैंक बचा और न ही नया हिन्दू वोट बैंक बना।