मंच सज चुका है। आम चुनाव आने वाले हैं और देश चुनावी रंग में रंगने को तैयार है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे विशाल पर्व कुछ ही दिनों की दूरी पर खड़ा है। ऐसे में, कुछ ‘बंद दुकानों’ के भीतर भी लोकतंत्र सुगबुगा रहा है। तीनों लोकों में प्रसिद्धि पाने की अपनी चाहत को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने अपनी तंत्रिकाओं में लोकतंत्र नामक करंट दौड़ाया है, ताकि 420 वॉट के शॉक से उन्हें यह याद आ जाए कि उन्हें आज तक कोई अवॉर्ड मिला भी है या नहीं। अगर मिला है, तो उसे वापस कर के एक गिरोह विशेष की वाहवाही लूटने की क्या गुंजाईश है?
मीडिया अब मणिपुरी सिनेमा की बात करेगी
इस कड़ी में रविवार (3 फरवरी 2019) ऐसे फ़िल्मकार का नाम जुड़ा, जिन्हें मणिपुर से बाहर शायद ही कोई जानता हो। हो सकता है, मणिपुरी सिनेमा में उन्होंने अच्छा कार्य किया हो, लेकिन अगर आपको पूरे भारत की मीडिया में सुर्ख़ियों में बने रहना है, तो अवॉर्ड वापसी-ज़रूरी है। अगर आप पहली वाली अवॉर्ड-वापसी अभियान में चूक गए, तो दूसरी वाली तो हाथ से जानी ही नहीं चाहिए। आख़िरी मौक़ा है, नहीं तो दिल्ली में फिर 5 वर्ष के लिए मोदी बैठ गए तो अगले महत्वपूर्ण चुनाव तक इन्तज़ार करना पड़ेगा।
कइयों को तो लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत के साथ ही उन्हें रिटायरमेंट लेना होगा, क्योंकि शायद हतोत्साह के मारे उनके अंदर विरोध-प्रदर्शन, अवॉर्ड-वापसी- इन सब के लिए ताक़त ही न बचे। भगवान जाने मौक़ा आए भी या नहीं, इसीलिए गंगा फिर से बह निकली है, हाथ धो लो। क्या पता, अगर ‘अपने वाले’ दिल्ली में आ गए तो, 2-4 नए अवॉर्ड्स के भी जुगाड़ हो जाएँ। कल जिन महाशय ने अवॉर्ड लौटाने की घोषणा की, उनका नाम अरिबम श्याम शर्मा है। मणिपुरी फ़िल्मों के निर्देशक एवं संगीतकार हैं।
वैसे यहाँ बता देना ज़रूरी है कि अरिबम शर्मा को 2006 में पद्मश्री और 2008 में लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला था। आज वो उनका कर्ज़ उतारने निकले हैं, जिन्होंने उन्हें ये अवॉर्ड दिए थे। अव्वल तो यह कि अब राष्ट्रीय मीडिया भी उनकी बात करेगा, मणिपुरी सिनेमा की बात करेगा और क्षेत्रीय फ़िल्मों में उनके योगदान की बात करेगा। अल्लाह भी ख़ुश, मोहल्ला भी ख़ुश। वैसे, अगर अख़बार या न्यूज़ पोर्टल्स को खंगाले तो शायद ही आपको ऐसी ख़बरें मिलेंगी, जहाँ मणिपुरी सिनेमा की बात की गई हो। लेकिन, आज सब इस पर बहस करेंगे।
पिछले 6 वर्षों से अरिबम शर्मा की कोई फ़ीचर फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई है। सीधा अर्थ यह कि दुकान में अस्थायी ताला लगा हुआ है। नसीरुद्दीन शाह वाले केस में भी यही बात थी। लगातार 35 फ्लॉप फ़िल्मों का बोझ अपने सर पर लिए घूम रहे शाह को भी कुछ ‘पैन-इंडिया’ सुर्ख़ियों की ज़रूरत थी, सो मीडिया ने उन्हें बख़ूबी दिया। उन्हें अपनी किताब लॉन्च करनी थी, जिसके लिए माहौल बनाना ज़रूरी था। उनको फॉर्मूला पता था, उन्होंने उसे अपनाया और चर्चा में आते ही धड़ाक से अपनी किताब जारी कर दी।
जनसमर्थन के बिना आंदोलन, आंदोलन नहीं ज़िद है
एक और बंद दुकान है, जिसका शटर रह-रह कर खुलने को होता तो है, लेकिन सफल नहीं हो पाता। पहले उस दुकान से कइयों को रोज़गार मिला करता था। उस दुकान में प्रहरी से लेकर मुंशी तक कई कर्मचारी थे। लेकिन आज सबने अपनी अलग-अलग दुकानें खोल रखी हैं वो पुराना दुकान जर्जर होकर ग्राहकों की राह देख रहा है। अपने पूर्व सहयोगियों के छोड़ कर चले जाने के ग़म का ठीकरा किस पर फोड़ा जाए, अन्ना हजारे इसी सोच में डूबे हैं। और अंततः उनका निष्कर्ष यह रहा कि अपनी ढ़लती उम्र का ख़्याल करते हुए पुराने तरीक़े से ही नई गंगा में हाथ धोया जाए।
लगे हाथ अन्ना ने भी अवॉर्ड-वापसी की घोषणा कर दी। नसीरुद्दीन शाह के फ़िल्मों की तरह अन्ना हजारे के पिछले अनशन भी फ्लॉप साबित हुए हैं। रालेगण से लेकर मुंबई और मुंबई से लेकर दिल्ली तक, अन्ना ने जितने भी अनशन किए- उनका कोई असर नहीं हुआ। 2011 में उनके अनशन का व्यापक असर हुआ था, क्योंकि जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त थी और बदलाव चाहती थी। अब उनके अनशन का असर नहीं हो रहा क्योंकि जनता समझदार है और बिना बात किसी के व्यापार में हिस्सेदार नहीं बनना चाहती।
इसे अन्ना की ढलती उम्र का असर कहें या फिर उन्हें सहयोगियों ने छोड़ कर जाने का ग़म- वो बेमौसम बरसात कराने की कोशिश कर रहे हैं। गुरु गुर ही रह गया और चेला चीनी हो गया है। अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके हैं, किरण बेदी पुदुच्चेरी की उप-राज्यपाल हैं और जनरल वीके सिंह केंद्रीय मंत्री हैं। अन्ना को शायद इस बात का मलाल है कि केजरीवाल उनके नाम का इस्तेमाल कर आगे बढे और आज मलाई चाटने में लगे हुए हैं, क्योंकि किरण बेदी और जनरल सिंह तो पहले से ही ऊँची पदवी पर रहे थे, केजरीवाल का ग्राफ़ कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से चढ़ा।
वैसे ग़लती सरकारों की भी है। 1992 के बाद से केंद्र में कितनी सरकारें आईं और गईं लेकिन अन्ना को उनकी तरफ से पिछले 27 वर्षों से कोई अवॉर्ड नहीं मिला। इसीलिए, उन्होंने 1992 वाला पद्म भूषण ही लौटाने का निर्णय लिया है। पिछले पाँच दिनों से अनशन पर बैठे अन्ना को पता होना चाहिए कि बिना जनता के साथ के कोई भी आंदोलन सफल नहीं होता, वरन वो सिर्फ एक व्यक्तिगत विचारधारा थोपने की लड़ाई बन कर रह जाता है। और जनता का साथ पाने के लिए असली मुद्दों को उठाना पड़ता है, उनकी समस्याओं के लिए लड़ना पड़ता है, अपनी ज़िद के लिए नहीं।
महात्मा गाँधी वाली ग़लती दुहरा रहे हैं अन्ना हजारे
इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा जब वही लोग आज अन्ना की चिंता करने लगें (या फिर ऐसा दिखावा करने लगें), जिनके ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ कर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली थी। हो सकता है 2011 के उनके विरोधी आज उनके मित्र बन जाएँ और अन्ना फिर से ठगे जाएँ। अन्ना को अपनी ज़िंदगी भर की कमाई का फ़ायदा किसी और को उठाने देने से बचना चाहिए। रालेगण सिद्धि से लेकर दिल्ली तक का उनका सफर आधुनिक महात्मा गाँधी की तरह रहा है, लेकिन अपने आसपास जिस तरह लोगों को जमा करने करने की कोशिश गाँधी ने की थी, वही ग़लती आज अन्ना दुहरा रहे हैं।
अपनी लाश पर भारत का बँटवारा करने की बात कहने वाले गाँधी की बात अंत में ख़ुद उन्हीं के लोगों ने नहीं मानी थी। ठीक उसी तरह आज अन्ना एक ख़ास गिरोह के हथियार के रूप में कार्य कर रहे हैं, भले ही अनचाहे रूप से। उन्हें न अन्ना की चिंता है और न उनकी जान की, उन्हें चिंता है तो बस सिर्फ़ अन्ना के आंदोलन से अपना मतलब निकालने की। अब देखना यह है कि नई वाली बहती गंगा (अवॉर्ड-वापसी-II) में हाथ-पाँव सब धोने उतर चुके अन्ना के इस घोषणा से किसका क्या फ़ायदा होता है?