Sunday, December 22, 2024
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मुबारक हो बिहार! ‘कमाई’ का सीजन आ गया है…

चंद दिनों की प्रतीक्षा करिए। आज जो बिहार के बाढ़ पर शोर, चिंता, विलाप दिख रहा, वह बाढ़ का पानी उतरते ही विलुप्त हो जाएगा। पलायन करने के लिए बिहारियों की एक नई खेप तैयार हो जाएगी। पंजाब के खेत से लेकर गुजरात के कल-कारखाने तक नए कामगारों से लहलहा जाएँगे।

बिहार में बाढ़ की यह तस्वीर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) ने बनाई है। ऐसी तस्वीर आपको देश के दूसरे हिस्से से भी समय-समय पर देखने को मिलती होंगी। लेकिन बिहार और बाढ़ की कहानी उनसे काफी अलग है। जो बाढ़ देश के दूसरों हिस्सों के लिए ‘विपदा’ है, वह बिहार में एक वर्ग के लिए ‘कमाई का सीजन’ है। जो बाढ़ प्राकृतिक ‘आपदा’ है, बिहार में वह उस ‘कुकर्म की उपज’ है, जिसमें बिहारी नदी-नाले सब खा गए, भले सरकारी नक्शों में वे नदी-नाले आज भी जीवित हैं।

मुझे बिहार से घृणा करने वाला शख्स बताकर आप यह दलील दे सकते हैं कि इस बार सूखे बिहार में जो सैलाब आया है, वह अलग है। कोशी में इस बार 56 साल का सबसे अधिक पानी आया है। गंडक में 21 साल का सबसे अधिक पानी आया है। पर यदि यह जल प्रलय इतना ही असामान्य होता तो भला मुख्यमंत्री अपने राज्य को छोड़कर दिल्ली यात्रा पर क्यों निकल जाता? वैसे भी यह यात्रा तब हुई जब मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में तस्वीर/वीडियो नदियों के तटबंध तोड़ने, घरों-नगरों में बाढ़ के पानी घुसने, लोगों के बेघर होने से भरे पड़े थे। इस स्थिति से लड़ने की सत्ताधारी दल की ‘गंभीरता’ इतनी अधिक क्यों थी कि दिल्ली यात्रा में पार्टी के नंबर 2 को ही मुख्यमंत्री का बगलगीर बनना पड़ा?

जाहिर सी बात है जिन पर इस स्थिति को सँभालने, राहत-बचाव कार्यों का जिम्मा है, उनके लिए यह सलाने जलसे से अधिक कुछ नहीं है। सलाने जलसे से अधिक तो यह उन पीड़ितों के लिए भी नहीं है, जिनका बाढ़ सब कुछ छीन ले जाती है और वे इस आसरे में किसी ऊँचाई की जगह पर बैठे होते हैं कि कब सरकारी तिरपाल और चूड़ा आएगा। यदि ऐसा नहीं होता तो बिहार में जाति की जगह वोट इस बात पर पड़ते कि बाढ़ की समस्या का स्थायी समाधान कौन सा राजनीतिक दल लाएगा। दुर्भाग्य से बिहार में यह विमर्श का मुद्दा न कभी था। न है। न कभी बनने की उम्मीद दिखती है।

यह उस राज्य का हाल है जो अपनी राजनीतिक चेतना पर इठलाता है। राजनीतिक चेतना के इसी खोखले दंभ के कारण बिहार में बाढ़ सामान्य सी बात हो चली है। ताजा रिपोर्टों के अनुसार राज्य की सभी नदियाँ उफान मार रही हैं। गंडक, बागमती, कोसी, कमला, धारधा, गंगा, फुल्हर जैसी नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। 16 जिलों में हालात बदतर बताए जा रहे हैं। 6 तटबंधों के अब तक टूटने की खबर है।

बाढ़ बिहार के लिए नया नहीं है। मौजूदा बिहार का करीब 76 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिस पर हर साल बाढ़ का खतरा बना रहता है। नेपाल से आने वाले पानी को इसका जिम्मेदार बताया जाता है। बाढ़ के पानी को रोकने के लिए बिहार में तटबंध बनाने का सिलसिला भी करीब 70 साल पुराना है। 1954 में पहली बार तटबंध बना था। उस समय के बिहार में 160 किलोमीटर इलाके में तटबंध थे जो आज बढ़कर 3790 किलोमीटर हो चुका है।

लेकिन साल दर साल तबाही भी बढ़ती जा रही है। वजह व्यवस्था की वह मानसिकता जो उन्हें इतना खाने को प्रोत्साहित करती है ताकि उनकी सात पुश्तों का इंतजाम हो सके। बाढ़ इस व्यवस्था की इस लालसा को पूर्ण करने का वह मार्ग है, जिसका भ्रष्टाचार पानी का सैलाब अपने साथ बहा ले जाता है।

बिहार में सालों से तटबंध ही नहीं बन रहे। हर साल उनकी मजबूती बढ़ाने पर भारी-भरकम बजट खर्च होता है। लेकिन ये तटबंध हर बार टूटते हैं। कभी-कभार तो चूहे भी इनकी मजबूती को खोखला कर देते हैं और बाढ़ का पानी गाँव के गाँव बहाकर ले जाता है। जब गाँव उजड़ते है, घर बहते हैं तो बचाव के नाम पर तिरपाल से लेकर चूड़ा वितरण तक के कमाई के दूसरे कई मार्ग भी खुल जाते हैं। सरकारी कागजों में वितरण के नाम पर जो कुछ दर्ज होता है, बाढ़ का पानी उतरने के बाद उसकी प्रमाणिकता की पुष्टि करने का कोई तंत्र नहीं है। इसलिए व्यवस्था को बाढ़ की प्रतीक्षा रहती है।

चंद दिनों की प्रतीक्षा करिए। आज जो बिहार के बाढ़ पर शोर, चिंता, विलाप दिख रहा, वह बाढ़ का पानी उतरते ही विलुप्त हो जाएगा। पलायन करने के लिए बिहारियों की एक नई खेप तैयार हो जाएगी। पंजाब के खेत से लेकर गुजरात के कल-कारखाने तक नए कामगारों से लहलहा जाएँगे। जिस बाढ़ से व्यवस्था को इतना ‘फायदा’ हो उसका स्थायी समाधान तलाशने की भला फिक्र कौन करे? वैसे भी इस देश में बिहारियों की जान बहुत ही सस्ती है।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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