फ़ैक्ट चेक का जमाना है। सब खुद को पाक़-साफ़ दिखाना चाहते हैं, दूसरों की पोल-पट्टी खोलकर। दिक्कत तब होती है जब मीडिया के बड़े-बड़े मठाधीश करने ‘बैठते’ हैं फ़ैक्ट चेक और खोल बैठते हैं अपनी ही पोल-पट्टी! बैठते पर जोर इसलिए क्योंकि दिल्ली में बैठे-बैठे ये मठाधीश कर लेते हैं बनारस का फै़क्ट चेक!
मामला सोशल मीडिया पर शेयर हुई तस्वीरें हैं। विषय राजनीतिक है। जगह बनारस है। फ़ैक्ट चेक बीबीसी हिंदी ने किया है।
पहले वो फोटो ही देख ली जाए, जिसके आधार पर बीबीसी ने फै़क्ट चेक (असल में फोटो चेक) कर डाला।
बीबीसी की ‘फोटो चेक’ रिपोर्ट के अनुसार ऊपर की फोटो को दक्षिण भारत के कई सोशल मीडिया ग्रुप्स में शेयर किया गया। शेयर करने वालों ने यह दावा भी किया है कि बीजेपी ने गंगा सफ़ाई पर शानदार काम किया है जबकि यूपीए सरकार के दौरान इस नदी का हाल बुरा था। #5YearChallenge या #10YearChallenege हैशटैग के साथ इन दावों को चलाया गया। बीजेपी के कुछ नेताओं ने भी इसे अपने-अपने ढंग से शेयर किया।
फ़ेक का फैलाव
फे़क ख़बरें फैलती तेजी से हैं। बीबीसी ने अपनी ‘फोटो चेक’ रिपोर्ट में इस बात का सबूत भी दिया है। आँकड़ों के साथ कि किस ग्रुप से कितना शेयर हुआ यह फोटो। एक आँकड़ा यहाँ भी है – खब़र के शीर्षक में ही अगर झूठ हो तो वो कितनी बिकती है। नीचे रहा उसका सबूत।
बात फ़ैक्ट चेक की
बीबीसी गंगा सफ़ाई की फै़क्ट चेक कर रही है या फोटो की, यह स्पष्ट नहीं। जरा इस वाक्य को पढ़िए – “वाराणसी शहर की जिस तस्वीर को ‘गंगा की सफ़ाई का सबूत’ बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया, वो ग़लत है” – इस वाक्य में तीन बातें छिपी हैं:
- तस्वीर गलत है – तस्वीर ग़लत नहीं है बीबीसी! रिवर्स इमेज सर्च और फोटोग्राफर से बात के जरिए इसके खींचे जाने का साल आपने बता दिया है। तस्वीर से जुड़ा साल ग़लत है।
- ‘गंगा की सफ़ाई का सबूत’ ग़लत है – लेकिन सिर्फ फोटो देखकर किसी सबूत को ग़लत या सही कैसे ठहराया जा सकता है? फिर आप में और सोशल मीडिया-वीरों में क्या अंतर रह जाएगा?
- ग़लत है, तो सही तस्वीर क्या है? – यह आपने बताया ही नहीं। फ़ैक्ट चेक के नाम पर आप यह कहकर नहीं बच सकते कि ऐसी जानकारी लेख या ब्लॉग में। बच इसलिए नहीं सकते क्योंकि आपका शीर्षक भ्रामक है। और वेब के पाठक इसमें फंसते है, आर्टिकल का रीच बढ़ता है।
क्या होता है फैक्ट चेक
गंगा सफ़ाई पर बीजेपी नेताओं के दावों का ही अगर फै़क्ट चेक करना है तो आपको रिपोर्टिंग करनी चाहिए बीबीसी। जैसे अनुराग ने की। स्थानीय लोगों से लेकर अधिकारियों और तकनीक तक – हर पहलू पर रिपोर्टिंग के दौरान नज़र रखी। पढ़िए, मज़ा आएगा, ज्ञान तो ख़ैर मिलेगा ही।
ग्राउंड रिपोर्ट #1: मोदी सरकार के काम-काज के बारे में क्या सोचते हैं बनारसी लोग?
ग्राउंड रिपोर्ट #2: नमामि गंगे योजना से लौटी काशी की रौनक – सिर्फ अभी का नहीं, 2035 तक का है प्लान
ग्राउंड रिपोर्ट #3: दिल्ली की बीमार यमुना कैसे और क्यों प्रयागराज में दिखने लगी साफ?
दिल्ली के एसी ऑफिस में डेस्क पर बैठ कर और रिवर्स इमेज सर्च के सहारे ही अगर फै़क्ट चेक का धंधा चलाना है तो कृपया इसे फोटो चेक का नाम दीजिए। या फिर शीर्षक में “गंगा सफ़ाई पर बीजेपी नेताओं के दावे का सच: फ़ैक्ट चेक” मत लिखिए। स्पष्ट लिखिए – “गंगा सफ़ाई पर बीजेपी नेताओं द्वारा शेयर हुए फोटो 2019 के नहीं हैं: फोटो चेक”।
वो क्या है कि आप BBC हैं। मेरे बचपन-किशोरावस्था के उन 14 साल के प्यार का वास्ता (क्योंकि जहाँ मैं रहता था, वहाँ TV नहीं था इसलिए आपको या विविध भारती या ऑल इंडिया रेडियो ही सुन पाता था), पत्रकारिता को बचने दीजिए। इसे इतना मत बदबूदार बना डालिए कि एक समय लोग सोशल मीडिया पर ज्यादा भरोसा करने लगें और न्यूज़-मीडिया पर कम। विनती है, करबद्ध विनती!