Sunday, December 22, 2024
Homeविचारमीडिया हलचलअर्णब की गिरफ्तारी में इंदिरा के निरंकुश शासन की झलक है, प्रेस की आजादी...

अर्णब की गिरफ्तारी में इंदिरा के निरंकुश शासन की झलक है, प्रेस की आजादी बचाने के लिए विरोध जरूरी

भारत में जनमत जागृत करने का कार्य नागरिक समाज के महत्वपूर्ण अंग के रूप में 'मीडिया' ही करती है। साथ ही साथ, राजनीतिक दलों और नेताओं को कई बार राह दिखाने का काम भी बहुधा मीडिया ही करती है। वह अलग बात है कि कभी-कभी सत्ता की नाराजगी का दंश भी इन्हें ही झेलना पड़ता है।

देश के ख्याति प्राप्त पत्रकारों में शीर्ष में शुमार रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी ने एक बार फिर देश को आपातकाल की याद दिला दी है। निर्भीक पत्रकारिता के अग्रणी नामों में शामिल अर्णब की आवाज को दबाने के लिए स्टेट मशीनरी का जैसा इस्तेमाल महाराष्ट्र में हो रहा है, ठीक वैसा ही इंदिरा के शासन में भी देखने को मिला था।

ये संकेत किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक हैं। प्रेस को किसी भी लोकतांत्रिक देश में समाज का आइना माना जाता है। प्रेस के माध्यम से लोग देश दुनिया में घटित गतिविधियों से अवगत हो, अपना ज्ञान बढ़ाते तथा साथ ही साथ जागरूक भी होते हैं।

लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक बुनियादी जरूरत है, जो एक दबाव समूह के रूप में कार्य करते हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। प्रेस की आजादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक तौर अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार हो।

अभिव्यक्ति की आजादी ने स्वतंत्रता आंदोलन को भी दी थी धार

बात जब भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की हो रही हो तो प्रेस की स्वतंत्रता की अपनी महती भूमिका है। आजादी के समय से ही भारत में प्रेस की अहम भूमिका रही है। आजादी के आंदोलन में प्रेस ने बिना डरे, बिना रुके, बिना थके अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण निर्वहन किया।

महात्मा गाँधी से लेकर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, डॉ राजेंद्र प्रसाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, पंडित मदन मोहन मालवीय और डॉ राम मनोहर लोहिया जैसे महापुरुषों ने अपनी लेखनी के जरिए भारतवासियों में आजादी के आंदोलन का जज्बा जगाया था।

भारत में जनमत जागृत करने का कार्य नागरिक समाज के महत्वपूर्ण अंग के रूप में ‘मीडिया’ ही करती है। साथ ही साथ, राजनीतिक दलों और नेताओं को कई बार राह दिखाने का काम भी बहुधा मीडिया ही करती है। वह अलग बात है कि कभी-कभी सत्ता की नाराजगी का दंश भी इन्हें ही झेलना पड़ता है।

1975 में जनता के हक की लड़ाई लड़ने वाले विपक्ष का समर्थन करने पर आपातकाल के नाम पर मीडिया का गला घोट दिया गया था। भारतीय प्रेस को सेंसरशिप का सामना करना पड़ा था। अनेक अखबारों पर सरकारी छापे पड़ने के साथ-साथ विज्ञापन तक रोके गए। बहुत से पत्रकारों को जेलों में भी डाला गया। इसके बावजूद भी भारत का मीडिया वर्ग घबराया नहीं, बल्कि इस अघोषित संकट का डटकर मुकाबला किया। यह प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने का ही फल था कि एक सरकार का लोकतांत्रिक तरीके से तख्ता पलट हुआ।

आज फिर से 1975 के आपातकाल की याद आ रही है जब महाराष्ट्र में भारत के एक चर्चित एवं वरिष्ठ पत्रकार अर्णब गोस्वामी के साथ महाराष्ट्र सरकार और वहाँ की पुलिस द्वारा जिस तरह दुव्यर्वहार किया गया है, यह बेहद निंदनीय है। यह ठीक उसी तरीके से है जब 1975 में आपातकाल लगाकर लोकतंत्र की हत्या की गई थी। उस समय भी लेखनी और आवाज को दबाने का भरपूर प्रयास किया गया था। ये और बात है कि वह प्रयास असफल रहा।

अर्णब गोस्वामी की जिस तरह से गिरफ्तारी हुई, वह पूरी तरह से अलोकतांत्रिक व अमानवीय है। प्रेस की आजादी पर यह हमला किसी भी तरह से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। भारतीय संविधान और लोकतंत्र ने मीडिया को स्वतंत्रता दी है। इसलिए पत्रकारों को स्वतंत्रता और सुरक्षा मिलनी ही चाहिए। अर्णब गोस्वामी का जिस तरह से गिरफ्तारी हुई, यह महाराष्ट्र सरकार का कौन सा लोकतांत्रिक तरीका था?

इस मामले को लेकर देश-विदेश से बहुत लोगों ने विभिन्न माध्यमों से अपनी-अपनी नाराजगी प्रकट की और अमानवीय घटना का विरोध किया। इसी क्रम में राज्य सभा सांसद और बीजेपी के शीर्ष नेता डॉ विनय सहस्रबुद्धे जी ने इस समूचे घटना की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए बिलकुल ठीक कहा कि यह घटना बदले की भावना से प्रेरित है। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार की इस अमानवीय घटना पर प्रश्न करते हुए कहा कि क्या लोकतंत्र में लोगों को समाज में अपनी बात रखने का अधिकार नहीं है? अगर किसी ने आलोचना की तो आप उस पर अटैक करेंगे, यह बहुत ही दु:खद बात है। उन्होंने बल देकर कहा कि इस घटना पर पत्रकार बुद्धिजीवियों को बोलना चाहिए।

महाराष्ट्र सरकार एवं पुलिस की यह कार्रवाई केवल एक पत्रकार के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह समूचे मीडिया वर्ग की आजादी के साथ-साथ अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है। सरकार की नीतियों पर प्रश्न उठाना कोई जुर्म तो नहीं है। यह तो स्वस्थ लोकतंत्र के चिह्नित लक्षण हैं। और अगर कोई सरकार से प्रश्न करते वक्त उचित मर्यादा का पालन नहीं करता है तो उसका भी जवाब देने का एक तरीका होता है, जो मर्यादा के भीतर होनी चाहिए। वरना भविष्य में अगर चीन और पाकिस्तान के साथ हमारी तुलना होने लगेगी, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

आज एक गलत उदाहरण स्थापित होता नजर आ रहा है। इसलिए आज हमें सचेत होने की जरूरत है। अभिव्यक्ति की आजादी के साथ साथ प्रेस की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने, लोकतांत्रिक परंपरा को मजबूत बनाए रखने और भविष्य में ऐसा किसी भी पत्रकार के साथ ना हो, इसलिए महाराष्ट्र सरकार की इस अमानवीय कार्रवाई का पुरजोर विरोध होना चाहिए।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

Avni Sablok
Avni Sablok
Senior Research Fellow at Public Policy Research Centre (PPRC), New Delhi

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

किसी का पूरा शरीर खाक, किसी की हड्डियों से हुई पहचान: जयपुर LPG टैंकर ब्लास्ट देख चश्मदीदों की रूह काँपी, जली चमड़ी के साथ...

संजेश यादव के अंतिम संस्कार के लिए उनके भाई को पोटली में बँधी कुछ हड्डियाँ मिल पाईं। उनके शरीर की चमड़ी पूरी तरह जलकर खाक हो गई थी।

PM मोदी को मिला कुवैत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘द ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर’ : जानें अब तक और कितने देश प्रधानमंत्री को...

'ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर' कुवैत का प्रतिष्ठित नाइटहुड पुरस्कार है, जो राष्ट्राध्यक्षों और विदेशी शाही परिवारों के सदस्यों को दिया जाता है।
- विज्ञापन -