आदरणीय प्रधानसेवक,
गोया कि मुझे इज्जत देनी आती नहीं। आए भी क्यों? 10 साल तक मम्मी के इशारे पर वह कुर्सी नाचती रही, जिस पर बैठ आज आप देश को संबोधित कर लेते हैं। ‘जनपथ’ से संवाद की हैसियत नहीं थी जिस कुर्सी की, वह आज ‘जन से संवाद’ करने लगा! आपको याद तो होगा कि मैं कैसे कैबिनेट से पारित अध्यादेश फाड़ देता था। वो भी सबके सामने। क्या कहा, याद नहीं। अच्छा, उस समय आप गुजरात रहते थे। कोई नहीं। यूट्यूब जानते हैं। वहाँ जाइए, सर्च मारिए आज भी हम फाड़ते मिल जाएँगे… लोकतंत्र की। संसदीय मर्यादाओं की।
फिर भी आदरणीय जोड़ा। प्रधानसेवक लिखा। वजह बिहार के मेरे एक उम्मीदवार का भाई। वह उम्मीदवार चुनाव तो नहीं जीत पाया, पर उसमें दम तो था। शील भंग का आरोप जीतने में कामयाब रहा था। उसका भाई इसी एनसीआर में रहता है। प्राइम टाइम करता है। उसने कभी मुझे बताया था कि ये प्रधानसेवक शब्द तो असल में मेरे पिता के नाना का था। इससे मिलता-जुलता प्रमुखसेवक उन्होंने उस दफ्तर में खुदवाया था जिसे आपने नीति आयोग कर दिया।
मुझे आपकी इसी करने की आदत से चिढ़ है। वैसे योजना में मेरी भी दिलचस्पी है। पर नीति से वास्ता नहीं। मेरे पुरखों का भी नहीं था। मेरी आने वाली नस्लें भी न रखेंगी इससे वास्ता। यह वचन है एक जनेऊधारी दत्तात्रेय गोत्रीय ब्राह्मण का।
आप क्या जाने योजना की ताकत। आपको तो आदत है बंद करने की। भ्रष्टाचार बंद करने की। कमीशनखोरी बंद करने की। लेकिन बता देता हूँ ताकत तो योजना में ही है। योजना से ही भारत बनता है, आत्मनिर्भर।
इसी ताकत का अहसास कराने के लिए मैंने और बंगाल वाली दीदी ने चिट्ठी लिखी। कहा कि टीका खरीदने का काम राज्यों को दीजिए। जब हमारे लोग खरीद करेंगे तो कमीशन का धंधा होगा। स्वदेशी का खटराग छोड़ जब हमारी पसंद की कंपनियों के लिए दरवाजे खोलेंगे तभी तो हमारी पार्टी के खजाने में चंदा आएगा। आखिर में ये चंदा का पैसा, ये कमीशन का पैसा जाता कहाँ?
माना कुछ ब्लैक हेवन कंट्री में जाता। कुछ जीजा जी के जमीन में। पर कुछ तो इधर भी रहता न। क्या उससे नहीं बनता भारत आत्मनिर्भर। अरे दो-चार ही बनते आत्मनिर्भर, पर होते तो भारतीय ही न। भले वे वोटर परिवार के होते। वैसे सच्चाई तो ये है कि वे वोटर किसी के नहीं हैं। होते तो हमारी ये दुर्गति न रहती। ये खाए-पिए-अघाए वोट करने निकलते ही नहीं। पर हैं बड़ी काम की चीज। टूलकिट अच्छा बनाते हैं। प्रोपेगेंडा के मास्टर होते हैं। बहुरुपिया भी। कभी लिबरल बन लिए तो कभी सेकुलर। कलाकार, पत्रकार, लेखक, इतिहासकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता… ये कुछ भी बन सकते हैं। आप तो जानते ही होंगे।
दूसरी तरफ वे हैं, जिन्हें जीजा जी मेंगो पीपुल कहते हैं। ये हमारे पुरखों की उपलब्धि थी कि हमने 70 सालों से इन्हें गरीब बनाकर रखा। मजदूर बनाकर रखा। दबाकर रखा। कुचल कर रखा। पर आपको सनक है इनको ही सशक्त करने की। महामारी काल में भी फ्री की वैक्सीन और फ्री की अनाज देकर लोकतंत्र और सरकार के होने का अहसास कराने की। पहले इनके बैंक खाते खुलवाए। इनके रसोई तक गैस सिलिंडर पहुँचा दिया। घर-घर बिजली और शौचालय पहुँचा दी।
ये सब क्या कम था कि अब टीका और अनाज देंगे। अभी तो बना देते बहाना। महामारी के नाम पर दो-चार इंच सीना कम हो जाता तो क्या फर्क पड़ता। सब कुछ कितना मस्त चल रहा था। हमने तो प्राइवेट अस्पतालों में टीका बेचने का धंधा भी शुरू कर दिया था। कितना चिल्लम-पों मचा रखा था। पूछ रहे ही थे, हमारे बच्चों की वैक्सीन कहाँ गई। टीका को डस्टबिन में फेंकने से लेकर जमीन में दफन करने और जलाने तक का काम किया। हमारे मुख्यमंत्रियों ने फ्री का टीका लगवाने का ऐलान कर केंद्र से मुफ्त में टीका माँगा। पर आपने एक संबोधन से सारी मेहनत पर पानी पानी फेर दिया।
माना आपको 18 घंटे काम करने की आदत है। लेकिन हमारी मेहनत का कोई मोल नहीं? याद रखिएगा जीजा जी के मेंगो पीपुल सशक्त हुए तो हिसाब माँगेंगे। हमसे भले 70 साल का माँगे, पर इनके जो लक्षण दिख रहे हैं उसमें कम से कम एकाध दशक का हिसाब तो आपको भी देना पड़ेगा ही। लेकिन आप का क्या, आप झट से दे देंगे। आपको तो नतीजे देने की आदत है। नहीं दे पाए तो अपने कहे अनुसार झोला उठाकर चल देंगे।
पर हम करें तो करें क्या। झोला उठाकर भी तो नहीं जा सकते। और झोला उठाकर जाएँ भी क्यों? किसी न किसी दिन तो इस सुबह का अँधेरा होगा। उस अँधेरी रात हम आज का सारा सच मिटवाएँगे। आने वाली पीढ़ियों को बताएँगे कि मुगलों के तबेले में तैयार हुई कोरोना की वैक्सीन। गंगा-जमुनी तहजीब से हारी महामारी। बताएँगे जब हमारे अल्पसंख्यक भाई बीमारी से लड़ रहे थे, जब हमारे किसान जमीन के लिए लड़ रहे थे, तब कैसे ये हिंदू नफरत की खेती कर रहे थे। कैसे एक नेहरू वाला गाँधी कुर्ते की फटी जेब लेकर इन सबसे लड़ा और जीता था। उस दिन यही खाए-पिए-अघाए काम आएँगे। मेंगो पीपुल टुकुर-टुकुर ताकती रह जाएगी। जीजा जी की जमींदारी की चौहद्दी फिर बढ़ेगी। कमीशन और चंदे का राज लौटेगा। करप्शन की महामारी आएगी।
आप शायद भूल गए हैं। हमें याद है। मोहम्मद गोरी से आखिर में पृथ्वीराज हारा था। पप्पू से प्रधानसेवक हारेगा!
आपका नहीं
देश का पप्पू