हाल ही में हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। इसे संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा मुस्लिमों के उत्थान पर ध्यान केंद्रित करने की बात कही। देश के एक वंचित तबके के विकास की बात से किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। एक प्रधानमंत्री का भी ऐसे तबके के विकास पर ध्यान देने की बात कहना आश्चर्यजनक नहीं है।
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी इस समय भारतीय राजनीति के सबसे बड़े ट्रेंड सेटर हैं। ऐसे में उनके कहे हर बात का राजनीतिक अर्थ निकाला जाना तय है। इसलिए पसमांदा मुस्लिमों की स्थिति और उनसे जुड़ा राजनीतिक गणित मीडिया की चर्चाओं में हैं। खासकर 2024 के आम चुनावों को ध्यान में रखकर नए-नए समीकरण पेश किए जा रहे हैं।
हालाँकि इन समीकरणों के साथ जो दलीलें (खासकर आजमगढ़ और रामपुर उपचुनाव के नतीजे) दी जा रही हैं, वह जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते। यह भी नहीं है कि पसमांदा राजनीति पर पहली बार बीजेपी की करीबी नजर है। बिहार में उसके साझीदार नीतीश कुमार इस फॉर्मूले पर काम कर चुके हैं। लेकिन इससे मिलना वाला राजनीतिक लाभ स्थायी साबित नहीं हुआ था।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या बीजेपी सच में किसी पसमांदा मिशन (जैसा कि मीडिया बता रही) को लेकर गंभीर है? क्या 2024 का आम चुनाव जीतने के लिए मोदी को एक नए वोट बैंक की जरूरत है? क्या 2024 का आम चुनाव मुस्लिम वोट बैंक और मजहबी उन्माद की राजनीति को खत्म कर देगा, क्योंकि पसमांदा के अलग होने पर मुस्लिमों की चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता ही समाप्त हो जाएगी?
इन सवालों के जवाब तक पहुँचने से पहले सिलसिलेवार तरीके से पसमांदा, मुस्लिमों के बीच उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत को समझते हैं। साथ ही जानते हैं कि मदरसे-मुल्लों की कट्टरपंथी दुकान चलते रहने के लिए पसमांदा कितने जरूरी हैं।
कौन हैं पसमांदा मुस्लिम?
हिंदुओं को नीचा दिखाने/जाति के नाम पर लड़ाने के लिए अक्सर मुस्लिमों के बीच भेदभाव/जाति नहीं होने की दलील दी जाती है। यह पूरी तरह झूठ है। मुस्लिमों की कुछ जातियों पर गौर करिए। कुंजरे (राइन), जुलाहा (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), हज्जाम (सलमानी), बढ़ई (सैफी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी)… मुस्लिमों की इन सारी जातियों में जो बात कॉमन है, वह है इनका पसमांदा होना।
पसमांदा, फारसी का शब्द है। इसका मोटे तौर पर अर्थ होता है पिछड़े वंचित लोग। इस श्रेणी में आने वाले ज्यादातर लोग दलित से बने मुस्लिम हैं। कुछ अन्य पिछड़ी जातियों से धर्मांतरित हुए हैं। पसमांदा के तहत आने वाले मुस्लिमों को अफजाल और अरजाल भी कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो ये वे लोग हैं जिनके पूर्वज इस्लामी आक्रांताओं के आने के बाद हिंदू से मुस्लिम बने। विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन इनकी घर वापसी का अभियान भी चला रहे हैं।
अशरफ बनाम पसमांदा
अशरफ मुस्लिमों की ऊँची जातियों से आते हैं। मसलन, शेख, सैय्यद, मिर्जा, खान… इन जातियों के लोग या तो हिंदुओं की उच्च जाति से धर्मांतरित होकर मुस्लिम बने हैं या फिर मध्य एशिया से इनके पूर्वज आए थे। भारत में मुस्लिमों की कुल आबादी में 15-20 प्रतिशत ही अशरफ माने जाते हैं। शेष पसमांदा हैं। लेकिन मुस्लिमों के बीच आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हैसियत अशरफ वर्ग से आने वालों की ही है। पसमांदा का वे अक्सर इस्तेमाल अपनी महज मजहबी और उन्मादी राजनीति के लिए करते हैं। सड़कों पर उतरने वाली इस्लामी भीड़ पसमांदा की होती है, लेकिन कमान अशरफ के हाथ होती है।
सत्ता से क्या चाहते हैं पसमांदा
मस्जिद, मदरसे, मौलवियों के फतवों से नियंत्रित होने वाली मुस्लिम आबादी का यह बड़ा तबका (पसमांदा) एससी आरक्षण में अपनी हिस्सेदारी चाहता है। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज ने हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर करीब दर्जनभर जातियों को एससी वर्ग में शिफ्ट करने की माँग की है। यह माँग काफी पुरानी है। वैसे ये जातियाँ फिलहाल ओबीसी के तहत आती हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे बताता है कि करीब 45 प्रतिशत मुस्लिमों को ओबीसी लाभ मिलता है। पूरे वर्ग तक फायदा पहुँचे इसके लिए वे ओबीसी के साथ-साथ एससी वर्ग में भी शिफ्ट होना चाहते हैं। इस बीच बीजेपी ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लक्ष्मण ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और जामिया हमदर्द जैसे मुस्लिम संस्थानों में पसमांदा मुस्लिमों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की माँग की है।
क्या BJP को मिशन पसमांदा की वाकई जरूरत है?
जब से मोदी के मुख से पसमांदा निकला है, मेनस्ट्रीम मीडिया में क्या है बीजेपी का पसमांदा मिशन, क्या बीजेपी के लिए पसमांदा का समर्थन पाना है आसान, पसमांदा को लुभाने की बीजेपी की राह में क्या हैं रोड़े… जैसी हेडलाइन रोजमर्रा की बात हो गई है। बताया जाता है कि आजमगढ़ और रामपुर उपचुनाव में बीजेपी को जीत पसमांदा मुस्लिमों के कारण ही मिली है। इन दोनों सीटों पर बीजेपी ने काफी कम अंतर से जीत हासिल की है। पसमांदा का झुकाव होने पर मार्जिन कहीं ज्यादा होना चाहिए था। इसी तरह इन सीटों पर मुकाबले के त्रिकोणीय होने का फायदा भी बीजेपी को हुआ था।
यह सच है कि मुस्लिमों के छिटपुट वोट बीजेपी को मिलते रहे हैं। शिया, दाऊदी बोहरा के बीच पार्टी की कुछ इलाकों में पैठ भी मानी जाती है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान देवबंद जैसी जगहों पर ऑपइंडिया ने पाया था कि मुस्लिम योगी सरकार से मिले लाभ को लेकर मुखर थे। इसके आधार पर वे बीजेपी को बोट देने की बात भी कह रहे थे। लेकिन विधानसभा चुनाव के अंतिम आँकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि मुस्लिमों ने वोट बैंक के तौर पर ही मतदान किया और उनका झुकाव सपा की तरफ था। यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि उत्तर प्रदेश में 3.5 करोड़ से अधिक मुस्लिम पसमांदा ही हैं।
बिहार में जब 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में बीजेपी-जेडीयू की सरकार बनी तो उस समय भी पसमांदा मुस्लिमों को रिझाने का प्रयोग हुआ था। बिहार में भी 1.5 करोड़ से अधिक पसमांदा मुस्लिम माने जाते हैं। अली अनवर जैसे पसमांदा समाज के नेताओं को जेडीयू ने राज्यसभा में इसी रणनीति के तहत भेजा था। योगी की वर्तमान सरकार में दानिश अंसारी के मंत्री बनने को भी कई रणनीतिकार इसी चश्मे से देख रहे हैं। लेकिन नीतीश कुमार के इस फॉर्मूले का असर केवल 2010 के विधानसभा चुनाव में ही दिखा था। पसमांदा वोटों में बिखराव की वजह से जेडीयू उन सीटों पर भी उस चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन करने में कामयाब रही थी, जहाँ मुस्लिम निर्णायक थे। माई समीकरण में इसी टूट के कारण लालू प्रसाद यादव की राजद की उन चुनावों में दुर्गति हो गई थी। लेकिन, उस चुनाव में भी पसमांदा ने उन सीटों पर विपक्ष के उम्मीदवार को वोट किए थे, जहाँ बीजेपी ने प्रत्याशी उतारे थे। 2015 का चुनाव नीतीश और लालू ने मिलकर लड़ा और मुस्लिम पूरी तरह से इनके पीछे थे। यानी एनडीए सरकार से मिले जिन लाभों के कारण पसमांदा का एक वर्ग नीतीश के साथ आया था, वह उसी सरकार की साझेदार रही बीजेपी के साथ कभी नहीं गया। 2017 में जब राजद से नीतीश ने संबंध तोड़ लिए तो अली अनवर जैसे पसमांदा नेता भी मुस्लिमों के नाम पर उनका साथ छोड़ गए। 2020 के चुनाव में भी यह वर्ग राजद के साथ ही था। यानी नीतीश कुमार को मिला राजनीतिक लाभ भी स्थायी नहीं था। जब सरकारी योजनाओं लाभ ताजा-ताजा था उन्होंने ‘पसमांदा’ बनकर वोट किया। बाद के चुनावों में वे फिर से ‘मुस्लिम’ बनकर वोटिंग करने लगे। ये कुछ इसी तरह है जैसे योगी सरकार से मिले लाभों की वजह से देवबंद जैसी सीटों पर कुछ मुस्लिम वोट भी बीजेपी को मिले हैं।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 2014 और 2019 के आम चुनावों में प्रचंड जीत हासिल की थी। 2024 की रेस में भी वह काफी आगे दिखती है। आज की तारीख में ऐसा कोई कारण नहीं दिखता, जिसके आधार पर यह दावा किया जा सके कि बीजेपी के उस वोट बैंक में बिखराव हुआ है, जिसके दम पर उसने पिछले दो लोकसभा चुनाव जीते हैं। हालिया सर्वेक्षण भी बताते हैं कि बीजेपी काफी आगे है और लोकप्रियता के मामले में प्रधानमंत्री मोदी के सामने आज भी कोई दूसरा नेता नहीं टिकता है। विपक्ष पहले की तरह जीर्ण-शीर्ण और बिखरा हुआ है। ऐसे में राजनीति की सामान्य समझ भी यही कहती है कि बीजेपी को ‘पसमांदा लुभाओ’ जैसे किसी चुनावी प्लान की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे उसके जिताऊ समीकरण में टूट का खतरा भी दिखता है।
मोटे तौर पर प्रधानमंत्री द्वारा पसमांदा के विकास पर ध्यान देने के लिए कहा जाना, ‘सबका साथ-सबका विकास’ वाली रणनीति का ही विस्तार लगता है। बीजेपी भी जानती है कि इस नारे का उसको कोई स्थायी राजनीतिक लाभ न तो मिला है और न मिलने की उम्मीद है।
दरअसल ‘प्लान पसमांदा’ बीजेपी के लिए राजनीतिक से ज्यादा सशक्त भारत के उसके संकल्प के लिए जरूरी है। जब तक देश का कोई भी तबका वंचित रहेगा, तब तक एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है। देवबंद जैसी जगहों के मुस्लिम बीजेपी सरकारों से जिस तरह का फायदा मिलने की बातें करते हैं, वह भी इसी बड़े संकल्प की पूर्ति के लिए ही है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जिनको सड़क पर उतरकर हिंदुओं को डराने की आदत हो क्या उनके लिए विकास कोई पैमाना है/भविष्य में होगा?