एक ऐसा शख़्स, जिसने इस्लामी आक्रांताओं को भारत की धरती पर प्रवेश करने से रोकने के लिए सारे प्रयास किए, लेकिन तकनीक के सामने असफल रहा। मेवाड़ की जब भी बात आती है तो हमें महाराणा प्रताप याद आते हैं, लेकिन आज हम उस शूरवीर की बात करने जा रहे हैं जो जज़्बा, वीरता, हठधर्मिता और देशभक्ति के मामले में प्रताप से भी दो क़दम आगे था। महाराणा सांगा का जन्म सन् 1482 में 12 अप्रैल के दिन ही हुआ था।
महाराणा सांगा की मृत्यु के साथ ही दिल्ली में मुग़ल सत्ता स्थापित होने का मार्ग प्रशस्त हो गया और देश तब तक इस्लामी आक्रांताओं का ग़ुलाम रहा, जब तक उन्हें 18वीं शताब्दी के बाद सिखों, मराठों और अंग्रेजों के वर्चस्व का सामना न करना पड़ा। लेकिन यह सब कुछ सिर्फ़ एक युद्ध के परिणाम से तय हो गया था। वह था- खानवा का युद्ध।
16वीं शताब्दी की शुरुआत में जब बाबर ने काबुल पर कब्ज़ा किया, तभी से उसके मन में एक ही शब्द घूम रहा था और वह था- हिंदुस्तान। अपने पूर्वज तैमूर की कहानियाँ सुन कर बड़ा हुआ बाबर को ज्ञात था कि कैसे तैमूर ने झटके में शहर के शहर तबाह किए थे और हजारों को मौत के घाट उतारा था। वह तैमूर द्वारा पंजाब में जीते गए कुछ क्षेत्रों को वापस हथियाना चाहता था। जब बाबर ने दिल्ली में लोदी को हरा कर उसके सारे धन-वैभव पर कब्ज़ा जमाया, तब आम धारणा यह थी कि वह भी तैमूर की तरह लूटपाट कर वापस चला जाएगा लेकिन अति-महत्वकांक्षी बाबर के इरादे नेक नहीं थे।
बाबर के दिल्ली में साम्राज्य स्थापित करने की ख़बर सुनते ही राणा सांगा के कान खड़े हो गए। राणा का मानना था कि बाबर का दिल्ली में बैठना लोदी से भी बड़े ख़तरे का संकेत था। बाबर के अनुसार, राणा के पास 2 लाख सैनिकों की एक मज़बूत सेना थी। राणा ने बाबर के ख़िलाफ़ कई राजाओं का गठबंधन बनाने की हरसंभव कोशिश की और उसमें वह बहुत हद तक सफल भी हुए। राजस्थान के राजपूत राज्य, जैसे- हरौती, जालौर, सिरोह, डूंगरपुर, धुंधर और अम्बर। तुर्क़-अफ़ग़ान के अवशेषों पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना का स्वप्न लिए राणा ने बाबर के इरादों की भनक लगते ही उसे सबक सिखाने का मन बना लिया था।
दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए महाराणा सांगा ने अफ़ग़ान तक की भी मदद ली। उन्होंने विशाल सेना-सेनापतियों की एक ऐसी फ़ौज खड़ी की, जिसके ‘जय एकलिंग’ का नाद करते ही आसमान भी थर्रा कर काँप उठता था।
बाबर ने इस युद्ध को हिन्दू बनाम मुस्लिम बना दिया। जैसा कि आज के ज़िहादी आतंकी कहते आए हैं, उसने राणा के साथ युद्ध को इस्लाम की रक्षा से जोड़ कर अपनी सेना में जोश भर दिया। बाबर ने अपने सिपहसालारों से क़ुरानशरीफ़ पर हाथ रख कर राणा जैसी ताक़त को ख़त्म करने की शपथ दिलाई। खानवा में हुए युद्ध से एक शाम पहले बाबर ने एक ऐसा उत्तेजित भाषण दिया- जिसने भावी युद्ध को कथित काफ़िर बनाम इस्लाम के रक्षक से जोड़ दिया। बाबर ने इस्लाम की आन, बान और शान की हिफ़ाज़त के लिए अपनी सेना से एक सच्चे मुस्लिम की तरह लड़ने का वादा लिया। सच्चे मुस्लिम की परिभाषा में फ़िट बैठने के लिए उसने शराब के मर्तबान पटक डाले और शराब छोड़ने की क़सम खाई।
खानवा का युद्ध भारतीय इतिहास का एक ऐसा युद्ध है, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। सांगा के बलिदान के बाद दिल्ली में मुग़ल सत्ता की स्थापना हुई लेकिन इस युद्ध में देश की माटी की रक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाले राणा सांगा ने जिस वीरता और देशभक्ति का परिचय दिया- उसकी मिसाल इतिहास में शायद ही कहीं और मिले। युद्ध की शुरुआत में ही राणा सांगा ने बाबर की सेना पर ऐसा हमला किया, जिस से पूरी इस्लामिक फ़ौज में हड़कंप मच गया। राणा के ताबरतोड़ आक्रामक से बाबर की सैन्य संरचना बिखर सी गई।
लेकिन, राणा सांगा एक जगह चूक गए थे। बाबर ने जिस तरह पानीपत में इब्राहिम लोदी को हराया था, उस से उन्होंने कोई सीख नहीं ली थी। भारतीय वीरों की उस सूची में राणा का भी नाम है, जिन्होंने अपनी वीरता के बावज़ूद दुश्मन के छल, कपट और पैंतरेबाज़ी का अंदाज़ा लगाना उचित नहीं समझा। युद्ध के पहले बाबर ने युद्धस्थल का पूरी तरह मुआयना किया था। किस तरफ से, कहाँ और किस ओर वार करना है- ये सब उसने पहले ही सुनिश्चित कर लिया था। खानवा और आगरा की दूरी 35 मील के क़रीब है।
राणा सांगा ने इन सब की जरूरत नहीं समझी। अपनी हाथी सेना और तलवारबाज़ों की क्षमता पर भरोसा करने वाले राणा को इस बात का अंदाज़ा न था कि बाबर की तोपों के सामने वीरता का प्रदर्शन कर बलिदान तो दिया जा सकता है, लेकिन तीर और भाले से मशीनों को शायद ही जीता जा सकता है। मालवा और गुजरात की संयुक्त सुल्तानी सेना को धुल चटाने वाले राणा सांगा बाबर की पैंतरेबाज़ी ने वाक़िफ़ न थे। उन्होंने संगठन, सेना और रणनीति- इन सब पर ध्यान दिया था, लेकिन दुश्मन की चाल को समझने की कोशिश न करना उन्हें भारी पड़ा।
बाबर ने खानवा में भी पानीपत वाला तरीका ही आज़माया। उसने ख़ुद को मध्य में रख बाकी दोनों तरफ से सेना का ऐसा चक्रव्यूह बनाया, जिस से एक बार में कई तरफ से आक्रमण किया जा सके। अगर राणा पानीपत के युद्ध से थोड़ी भी सीख ले लेते, तो शायद इस तकनीक की काट की योजना तैयार कर सकते थे। तन-बदन पर लगे अनगिनत घावों से जूझते राणा सांगा ने सीधा बाबर की तरफ प्रस्थान किया और दुश्मन के मुखिया का ही काम तमाम करने के लिए पूरी ताक़त से धावा बोला।
लेकिन बीच में ही राणा की सेना बिखर गई। बाबर द्वारा कई तरफ से हो रहे आक्रमण और तोपों द्वारा काफ़ी कम दूरी से किए जा रहे फायर ने राणा के योद्धाओं को तितर-बितर कर डाला। हालाँकि, राजपूत सेना की हार देख योद्धाओं ने राणा को युद्धस्थल छोड़ने की सलाह दी। हठी राणा ने साफ़ मना कर दिया। हालाँकि, किसी तरह राणा को वहाँ से निकाल लिया गया लेकिन उनके ज़ख्म ऐसे थे, कि वह फिर युद्ध में लौट नहीं सके। राणा के जाते ही उनकी सेना की हार हुई और बाबर ने इस्लामिक साम्राज्य को एक नया विस्तार दिया। साम्राज्यवाद का यह रथ बाद में क़रीब दो दशकों के लिए रुका, जिसका श्रेय शेरशाह सूरी और हेमचन्द्र विक्रमादित्य को जाता है।
लेकिन राणा हार मानने वालों में से नहीं थे। अपनी पराजय उन्हें स्वीकार न थी। इतिहासकार प्रदीप बरुआ लिखते हैं कि अगर बाबर ने तोपों की मदद नहीं ली होती और पानीपत वाली रणनीति न दोहराई होती, तो शायद दिल्ली में मेवाड़ का केसरिया ध्वज फहरा रहा होता। इस युद्ध के बाद राणा का गठबंधन बिखर गया।
लेकिन इस युद्ध में राणा सांगा ने जिस तरह का प्रदर्शन किया, उसकी तुलना महाभारत काल के योद्धाओं से की जा सकती है। राणा के शरीर पर 80 ज़ख्म थे। पहले की कई युद्धों में लड़ते-लड़ते उनका एक हाथ जा चुका था। एक ही आँख से देख पाते थे, दूसरी युद्ध की बलि चढ़ गई थी। एक ही पाँव से ठीक से चल पाते थे, दूसरा अपाहिज हो चुका था। फिर भी उन्होंने बाबर से टक्कर लेने का निर्णय लिया और उसे नाकों चने चबाने को मज़बूर किया। यह जज़्बा प्रशंसनीय है।
आज (30 जनवरी) के दिन ही 1528 में उनका स्वर्गवास हो गया। ज़ख्मों से जूझ रहे राणा दिल्ली में बैठे बाबर को फिर से ललकारने की योजना तैयार कर रहे थे। लेकिन, उनके दरबारियों और अन्य राजाओं को ये पसंद नहीं था। उन्हें दिल्ली और आगरा कब्ज़ा कर बैठा बाबर अपराजेय नज़र आ रहा था। उनके निधन के बाद भी बाबर उन्हें अपना सबसे बड़ा ख़तरा मानता रहा, जब तक वह निश्चित नहीं हो गया कि राणा सचमुच नहीं रहे। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि बीमार राणा के दोबारा युद्ध की योजना से तंग आकर उनके ही लोगों ने उन्हें ज़हर दे दिया था।
जो भी ही, अगर हम अहिंसा के पुजारी गाँधीजी को याद करते हैं, तो 30 जनवरी को वीरों के वीर महाराणा सांगा को भी याद करना चाहिए। राणा ने जिस जज़्बे की नींव रखी, उस पर चल कर प्रताप, हेमू और बाजीराव जैसे कितने योद्धा अमर हो गए। राणा का अखंड हिन्दू साम्राज्य का स्वप्न भले ही उनके जीवन रहते सफल न हो पाया हो, लेकिन उनके व्यक्तित्व से पूरा राजस्थान प्रेरणा लेता है, उनकी वीरता भारत के कण-कण में समाहित है।