हाल के दिनों में मंदिर परिसर या उसके आसपास गोमांस या गाय के अवशेष फेंकने की घटनाओं की बाढ़ आ गई है। ऐसी घटनाएँ ज्यादातर बकरीद जैसे त्योहारों में देखने को मिलती हैं। कई बार हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए यह काम किए जाते हैं। इससे समाज में तनाव बढ़ता है।
ऐसे मामलों की संख्या बढ़ने और त्योहारों के समय इनकी बार-बार होने से यह संदेह होता है कि यह जानबूझकर किया जा रहा है। शायद किसी खास मकसद से जैसे कि मजहबी तनाव फैलाना या मंदिरों को अपवित्र करना।
हाल ही में देश के अलग-अलग हिस्सों से इस तरह की कई घटनाएँ सामने आई हैं, जिनको नीचे डिटेल में लिखा गया है। इन पर ध्यान देना जरूरी है ताकि समय रहते सही कार्रवाई की जा सके और सामाजिक सौहार्द बना रहे।
असम: मुस्लिम बहुल धुबरी में हिंदू मंदिर के बाहर फेंका गया गाय का सिर
असम के सीएम हिमंत बिस्वा सरमा ने 13 जून 2025 को बताया कि बकरीद के अगले दिन धुबरी के मुस्लिम बहुल इलाके में एक हनुमान मंदिर के पास गाय का कटा हुआ सिर मिला, जिससे हिंदू समुदाय में तनाव फैल गया।
शांति बैठक के बाद भी अगली सुबह फिर से मंदिर में गाय का सिर फेंका गया। मुख्यमंत्री ने कहा कि धुबरी में एक मजहबी समूह सक्रिय है, जो जिले को बांग्लादेश में मिलाना चाहता है।
कुछ लोगों ने पथराव किया और ‘नबीन बांग्ला’ नाम के संगठन के पोस्टर लगाए। सीएम ने इसके बाद ने देखते ही गोली मारने का आदेश दिया और बताया कि इस मामले में अब तक 38 लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं।
असम: हजरत अली और 4 अन्य ने लखीमपुर में काली मंदिर के पास गाय का कटा हुआ सिर फेंका
असम के गोलपारा जिले के लखीपुर कस्बे में एक हिंदू मंदिर के पास गाय का कटा हुआ सिर फेंकने की घटना सामने आई, जिससे इलाके में मजहबी तनाव फैल गया।
घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस मौके पर पहुँची, सिर को हटाया और क्षेत्र की घेराबंदी कर दी ताकि आगे कोई और अपवित्र घटना न हो।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने 15 जून 2025 को बताया कि इस मामले में 5 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तार किए गए आरोपितों के नाम बोदिर अली, हजरत अली, तारा मिया, शाजमल मिया और जहाँगीर अलोम है।
असम: लखीमपुर में प्रार्थना स्थल के पास गाय की खोपड़ियाँ बरामद 7 मुस्लिम लोगों को किया गिरफ्तार
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने 18 जून 2025 को बताया कि लखीमपुर जिले में एक नामघर (प्रार्थना स्थल) के पास तीन गायों की खोपड़ियाँ मिलने के बाद सात मुस्लिम व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है।
ये खोपड़ियाँ सिरिंग चुक नाम घर से करीब 30 मीटर दूर सड़क किनारे पाई गई। पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए जिन लोगों को गिरफ्तार किया, जिनके नाम मोनसूर अली, मोहम्मद रज्जाक अली, साहा अली, दिलुआर हुसैन, दिलदार हुसैन, अबू कलाम अली और जाहिदुल इस्लाम है। बरामद खोपड़ियाँ जब्त कर ली गई और मामले की जाँच जारी है।
In a swift and coordinated response, Lakhimpur Police have apprehended 7 individuals in connection with the recovery of 3 cattle skulls found approximately 30 meters from Siring Chuk Namghar, along the roadside.
The arrested persons are: 1.Monsur Ali (60) – Rangchali Debera…
उत्तर प्रदेश: लखनऊ में प्राचीन हनुमान मंदिर के बाहर गाय का कटा हुआ सिर फेंका गया
लखनऊ के मदेयगंज इलाके से मार्च 2025 में एक प्राचीन हनुमान मंदिर के बाहर अज्ञात लोगों ने एक बछड़े का कटा हुआ सिर फेंका। इससे स्थानीय हिंदू समुदाय में आक्रोश फैल गया और लोगों ने पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन किया।
उन्होंने बताया कि यह दो साल में तीसरी बार है जब मंदिर के पास ऐसी घटना हुई है। अप्रैल 2024 में भी एक गाय पर हमला कर उसका मांस मंदिर के पास फेंका गया था, लेकिन पुलिस ने तब कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की थी।
यूपी: महाकुंभ मेले के बाद हिंदुओं के घरों के बाहर गाय का कटा हुआ सिर मिला
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के दरियाबाद इलाके मार्च 2025 में हिंदू व्यापारियों के घरों के बाहर गाय के अवशेष पाए गए। गोपाल अग्रवाल के घर के बाहर गाय का कटा हुआ सिर और दीपक कपूर के घर के बाहर गाय का पैर मिला।
पुलिस अधिकारी संजय द्विवेदी ने बताया कि यह घटना सांप्रदायिक तनाव फैलाने के इरादे से की गई थी। गोपाल अग्रवाल के अनुसार, पिछले पाँच महीनों में यह तीसरी बार है जब उनके घर के बाहर गाय के अवशेष फेंके गए, लेकिन पहले की घटनाओं में पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की थी।
यूपी: अमेठी में हनुमान मंदिर के पास मांस फेंका गया
उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले में 6 जून 2025 को शीतलगंज पुन्नपुर गाँव में स्थित प्राचीन हनुमान मंदिर के पास कुछ बदमाशों ने माँस का टुकड़ा फेंक दिया। सुबह श्रद्धालुओं ने मंदिर के बाहर माँस देखा तो आक्रोशित हो गए।
स्थानीय हिंदू कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद थाना प्रभारी बृजेश सिंह पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुँचे, भीड़ को शांत कराया और माँस को हटा कर मिट्टी में दबवा दिया। पुलिस ने मामले में कार्रवाई का आश्वासन दिया है।
2024
मध्य प्रदेश: रतलाम के जगन्नाथ महादेव मंदिर में गाय का सिर फेंका गया
मध्य प्रदेश के रतलाम जिले के जौरा कस्बे में भगवान जगन्नाथ मंदिर के परिसर में जून 2024 को दो मुस्लिम युवकों ने गाय का कटा हुआ सिर फेंक दिया और भाग गए। इस घटना से इलाके में तनाव फैल गया।
पुलिस ने इस मामले में सलमान मेवाती, शाकिर कुरैशी, नोशाद कुरैशी और शाहरुख सत्तार के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) लगाया। साथ ही प्रशासन ने आरोपितों के घरों के अवैध हिस्सों को भी गिरा दिया।
दिल्ली: संगम विहार में काली मंदिर के पास बछड़े का कटा हुआ सिर मिला
बकरीद से पहले जून 2024 में दिल्ली के संगम विहार के गुप्ता कॉलोनी के पास एक बछड़े का कटा हुआ सिर मिला। इस घटना से इलाके में तनाव फैल गया और स्थानीय हिंदू संगठनों ने इसे जानबूझकर किया गया अपमान माना, साथ ही इस्लामवादियों पर आरोप लगाए। पुलिस ने मामला दर्ज कर जाँच शुरू कर दी है।
राजस्थान: जयपुर में शिव मंदिर के बाहर स्कूटी सवार युवकों ने फेंके मांस के टुकड़े
जयपुर के सुभाष चौक इलाके में 18 जून 2024 को उस समय तनाव फैल गया जब कुछ अज्ञात लोग बाइक पर आए और चाणक्य मार्ग स्थित शिव मंदिर के सामने मांस फेंककर भाग गए।
यह घटना शाम करीब 4:30 बजे हुई और सीसीटीवी कैमरे में रिकॉर्ड हो गई। घटना गंगा एकादशी के दिन हुई, जो हिंदुओं के लिए पवित्र माना जाता है। मांस के टुकड़े मंदिर के सामने पड़े होने का वीडियो भी सामने आया। घटना की खबर फैलते ही लोग मौके पर पहुँचे और विरोध प्रदर्शन किया। बाद में प्रदर्शनकारियों ने सुभाष चौक थाने में शिकायत दर्ज कराई।
दिल्ली: नवरात्रि पर इस्लामवादियों ने हिंदुओं पर मांस के टुकड़े फेंके
दिल्ली के तीस हजारी इलाके में अक्टूबर 2024 को उस समय तनाव फैल गया जब झंडेवाला देवी मंदिर से पवित्र ज्योति ले जा रहे श्रद्धालुओं के जुलूस पर कुछ लोगों ने मांस के टुकड़े फेंक दिए।
इससे धार्मिक जुलूस अपवित्र हो गया और स्थानीय हिंदू समुदाय में आक्रोश फैल गया। लोगों ने आरोप लगाया कि यह हमला जानबूझकर हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए किया गया था।
2023
यूपी: सोनभद्र में हनुमान मंदिर के पास बछड़े का शव मिला
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र के रॉबर्ट्सगंज में 28 जुलाई 2023 को हनुमान मंदिर के पास एक गाय के बछड़े का शव मिला। इस घटना से स्थानीय लोग भड़क गए और पुलिस को बुलाकर शिकायत की। हिंदू संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया जिसके बाद पुलिस ने मामले की जाँच शुरू की।
यूपी: शाहजहांपुर में मंदिर के पास मांस से भरा बोरा मिला
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर इलाके में जुलाई 2023 में एक मंदिर के पास मांस के अवशेषों से भरा एक थैला मिला। सूचना मिलने पर शाहजहांपुर पुलिस ने मामले की जाँच के लिए तीन टीमें बनाई। इसके बाद अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया।
2022
यूपी: कन्नौज में मंदिर के अंदर मांस के टुकड़े फेंके गए, मूर्ति तोड़ी गई
उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले के रसूलाबाद गाँव में 16 जुलाई 2022 को एक हिंदू मंदिर के अंदर मांस का टुकड़ा फेंका गया। इससे स्थानीय हिंदू संगठनों में आक्रोश फैल गया और लोगों ने सड़क जाम कर प्रदर्शन किया। पुलिस अधिकारियों ने मौके पर आकर मंदिर की सफाई कराई और मामले की जाँच शुरू की।
यूपी: शामली जिले में मंदिर परिसर में मांस के टुकड़े फेंके गए
उत्तर प्रदेश के शामली जिले सिक्का गाँव में एक मंदिर परिसर में सितंबर 2022 को अज्ञात लोगों ने मांस के टुकड़े फेंके। यह घटना सुबह करीब 5 बजे सामने आई जब एक महिला पूजा के लिए मंदिर गई।
सिक्का गाँव के आसपास 11 जगह मांस के टुकड़े फेंके गए, जिससे इलाके में तनाव फैल गया। यह घटना मंदिर में हो रहे वार्षिक उत्सव के दौरान हुई, जिसे सांप्रदायिक शांति बिगाड़ने की कोशिश माना जा रहा है।
झारखंड: फुलबरिया के कालीबाड़ी दुर्गा मंदिर में मांस फेंका गया
झारखंड के साहिबगंज जिले के राजमहल थाना क्षेत्र के फुलबरिया में कालीबाड़ी दुर्गा मंदिर के अंदर कुछ अज्ञात बदमाशों ने मांस जैसा आपत्तिजनक सामान फेंका। यह घटना फरवरी 2022 की है। इससे इलाके में तनाव फैल गया।
2021
दिल्ली: कालिंदी कुंज में 4 गायों की हत्या कर उनके अवशेष मंदिर के पास फेंके गए
दिल्ली के कालिंदी कुंज इलाके में 2021 के दौरान गोहत्या का मामला सामने आया, जहाँ कम से कम चार गायों के शव फेंके गए थे। एक गाय का शव शीतला माता मंदिर के पास, मिला और दूसरा अवशेष डी ब्लॉक के मंदिर के पास और बाकी नाले के पास फेंके गए। स्थानीय लोगों को मौके से एक पहचान पत्र मिला, जिसमें नाम इसानुल होदा और पिता का नाम अब्दुल जलील दर्ज था।
2019
झारखंड: शिव मंदिर के पास मांस के टुकड़े फेंके गए
झारखंड के करमदाहा (धनबाद और जामताड़ा जिले की सीमा) में दुखिया महादेव मंदिर के पास दिसंबर 2019 में प्रतिबंधित मांस के टुकड़े फेंके गए, जिससे हिंदू समुदाय में आक्रोश फैल गया।
मांस को गोमांस माना गया और इसे हिंदू भावनाओं को भड़काने की कोशिश बताया गया। गुस्साए लोगों ने करीब 6 घंटे तक सड़क जाम कर दी। पुलिस ने मौके पर पहुँचकर भीड़ को शांत किया और अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की।
हाल के वर्षों में गायों को मारकर उनके अवशेष हिंदू मंदिरों के अंदर या आस-पास फेंकने की घटनाएँ बढ़ी हैं, जो हिंदू आस्था पर सीधा हमला है। कई ऐसी घटनाएँ रिपोर्ट नहीं होतीं, लेकिन इस्लामी कट्टरपंथी और अन्य हिंदू विरोधी लोग जानबूझकर हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाने और दंगे भड़काने के लिए ये काम करते हैं।
खासकर इस्लामी त्योहारों के दौरान यह पैटर्न देखने को मिलता है। असम के धुबरी में मंदिरों के पास गाय के अवशेष फेंकने की घटना इससे जुड़ी संगठित साजिश का हिस्सा लगती है। साथ ही, कुछ राजनीतिक दल और समूह भी गोहत्या और हिंदू विरोधी नारे लगाने वाले तत्वों को समर्थन देते हैं, जिससे ये घटनाएँ बढ़ती हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 50 साल पहले, 12 जून 1975 को एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला दिया जिसने देश की राजनीति की दिशा बदल दी। जज जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को 1971 के लोकसभा चुनाव में चुनावी गड़बड़ी का दोषी पाया। इसके चलते उनकी रायबरेली सीट से निर्वाचन रद्द कर दिया गया। उन्हें छह साल तक कोई भी राजनीतिक पद संभालने से भी रोक दिया गया।
यह केस राज नारायण ने दायर किया था, जो 1971 में इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनाव हार गए थे। अदालत के फैसले के बावजूद इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा नहीं दिया। इसके बाद, सिर्फ 13 दिन बाद, उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लगाने के लिए मना लिया।
यह आपातकाल 25 जून 1975 को लगाया गया और इससे देश में लोकतंत्र, प्रेस की आज़ादी और नागरिक अधिकारों पर गहरा असर पड़ा।
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद (फोटो साभार : मनोरमा ऑनलाइन)
देश में 25 जून 1975 को राष्ट्रीय आपातकाल (Emergency) लगाया गया, जो मार्च 1977 तक चला। इस दौरान भारत में लोकतंत्र लगभग खत्म कर दिया गया और एक तानाशाही शासन की शुरुआत हुई।
इंदिरा गाँधी की सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया, मीडिया की आजादी छीन ली, लोगों के मौलिक अधिकारों को रौंदा, मानवाधिकारों का उल्लंघन किया और आम नागरिकों को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और हत्या तक की गई।
इस दौर में संविधान को भी कमजोर किया गया। हालाँकि, आपातकाल का हर पहलू चौंकाने वाला था, लेकिन खासकर छात्रों पर किए गए अत्याचार बेहद निंदनीय थे। युवा लड़के-लड़कियों को, जिनका जीवन शिक्षा और भविष्य बनाने पर केंद्रित होना चाहिए था, उन्हें सरकारी तंत्र का निशाना बनाया गया।
इंदिरा गाँधी, जिन्हें उनके समर्थक ‘आयरन लेडी’ कहते थे, ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया और देश को डर और दमन के माहौल में धकेल दिया।
हालाँकि कई लोग इंदिरा गाँधी के खिलाफ खड़े हुए, लेकिन उन्हें एक ऐसे शासन का सामना करना पड़ा जिसने भारत के इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ दिया। इस दौर में व्यक्तिगत आजादी और संस्थाओं की स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए और मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई।
कॉन्ग्रेस पार्टी, खासकर गाँधी परिवार का इतिहास रहा है कि उन्होंने असहमति की आवाजों को दबाया है। जब भी कलाकारों या छात्रों ने कॉन्ग्रेस या गाँधी परिवार के खिलाफ बोलने की कोशिश की, उन्हें परेशानी, धमकी या सजा झेलनी पड़ी।
आज राहुल गाँधी खुद को छात्रों का समर्थक बताने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह बस एक दिखावा है, ताकि वे सत्ता तक पहुँच सकें। असल में, वे अपनी दादी इंदिरा गाँधी से अलग नहीं हैं, जिनके नेतृत्व में आपातकाल के दौरान छात्रों को प्रताड़ित किया गया और कई की जान तक चली गई। यह तानाशाही सोच आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।
राहुल गाँधी ने आज तक कभी भी अपनी दादी इंदिरा गाँधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान छात्रों पर हुए दमन पर कुछ नहीं कहा है। इससे साफ होता है कि उन्हें छात्रों की भलाई की असली चिंता नहीं है। वे छात्रों का इस्तेमाल सिर्फ अपने राजनीतिक फायदे के लिए करते हैं, खासकर भाजपा पर हमला करने के लिए।
दिलचस्प बात यह है कि वे भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी छात्रों से मिलते हैं और उन्हें सरकार की ‘गलत’ नीतियों के बारे में बताते हैं। लेकिन इन बैठकों में कभी भी कॉन्ग्रेस के खुद के इतिहास, खासकर आपातकाल के समय किए गए अत्याचारों का जिक्र नहीं करते। राहुल गाँधी कोशिश करते हैं कि कॉन्ग्रेस को छात्रों के हितैषी और भाजपा को उनके विरोधी के रूप में दिखाया जाए।
उन्होंने ‘भगवाकरण’ और भाषा की राजनीति जैसे मुद्दों को बढ़ावा देकर छात्रों को भड़काने की कोशिश की है। लेकिन जब बात आपातकाल के दौरान छात्रों पर हुए अत्याचार की आती है जैसे गिरफ्तारी, प्रताड़ना और यहाँ तक कि मौत तो राहुल गाँधी पूरी तरह चुप रहते हैं।
NEP को राहुल गाँधी ने बनाया हथियार
राहुल गाँधी ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP) को बिना छात्रों और शिक्षकों की राय लिए 2021 में लागू कर दिया। उनका कहना था कि यह नीति एक खास विचारधारा फैलाने और भारतीय समाज को सांप्रदायिक बनाने के मकसद से इस्तेमाल की जा रही है।
तिरुनेलवेली (तमिलनाडु) में सेंट जेवियर्स कॉलेज में प्रोफेसरों से बातचीत करते हुए राहुल ने कहा, “शिक्षा प्रणाली छात्रों और शिक्षकों के लिए होती है, इसलिए कोई भी नई नीति उनके साथ चर्चा करके ही बननी चाहिए। लेकिन अफसोस, ऐसा नहीं हुआ।”
उन्होंने यह भी कहा कि नई नीति में एक ही संस्थान के पास बहुत ज्यादा अधिकार दे दिए गए हैं, जिससे शिक्षा व्यवस्था को नुकसान हो सकता है। हालांकि उन्होंने माना कि यह नीति कुछ मामलों में लचीली है, लेकिन उनका आरोप था कि इसका असली मकसद समाज में एक खास सोच थोपना और सांप्रदायिकता फैलाना है।
सांसद राहुल गाँधी ने कहा कि वे नहीं मानते कि शिक्षा सिर्फ अमीर लोगों के लिए होनी चाहिए। उन्होंने वादा किया कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आती है, तो वे छात्रवृत्तियों को बढ़ावा देंगे ताकि सभी छात्रों को पढ़ाई का मौका मिले।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि धर्म को पूरी तरह से शिक्षा या चर्चा से हटाना सही नहीं है। सभी धर्मों को शामिल किया जाना चाहिए और जब तक विचार शांति से, बिना नफरत और गुस्से के सामने रखे जा रहे हैं, तब तक कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन समस्या तब होती है जब किसी को सिर्फ इसलिए चुप कराया जाता है क्योंकि वह किसी खास धर्म से है।
राहुल गाँधी ने केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि वह खुद को हिंदू धर्म का प्रतिनिधि बताती है, लेकिन जिन विचारों को वे बढ़ावा देते हैं, उनका असल धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा, “कहीं भी नहीं लिखा है कि लोगों का अपमान करें या उन्हें मारें।”
हालाँकि, उनके ये बयान भाजपा और केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए अक्सर बहुसंख्यक धर्म और उसके मानने वालों का अपमान करने की आदत जैसे लगते हैं।
इस साल मार्च में कॉन्ग्रेस के एक पदाधिकारी ने जंतर-मंतर पर भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (NSUI) के विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्रों को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि “एक संगठन भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने की कोशिश कर रहा है, और वह संगठन RSS है। अगर शिक्षा व्यवस्था इनके हाथों में चली गई, तो देश और नौकरियाँ दोनों खतरे में पड़ जाएँगी।”
यह विरोध प्रदर्शन UGC के नए मसौदा नियमों, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020, और पेपर लीक जैसी घटनाओं के खिलाफ था। कॉन्ग्रेस नेता ने आरोप लगाया कि सरकार देश के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को भी RSS के नियंत्रण में देना चाहती है।
उन्होंने यह भी दावा किया कि RSS अपने चुने हुए लोगों को देशभर के विश्वविद्यालयों में कुलपति बनवा रही है, ताकि शिक्षा संस्थानों पर पूरा नियंत्रण किया जा सके। राहुल गाँधी ने हाल ही में एक भाषण में कहा, “कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने कुंभ मेले की बात की, जो अच्छी बात है, लेकिन मैं चाहता था कि वे बेरोजगारी पर भी बोलते। आपकी सरकार ने देश के युवाओं को बेरोजगार कर दिया है, और इस पर भी बात होनी चाहिए।”
उन्होंने यह भी कहा कि वह छात्रों के साथ हैं और आरएसएस, अडानी और अंबानी पर निशाना साधते हुए बोले, “हम सब एकजुट हैं और मिलकर लड़ेंगे।” राहुल गाँधी और उनके राजनीतिक गठबंधन की ये पुरानी आदत रही है कि वे भाजपा की आलोचना करने के लिए बार-बार आरएसएस और हिंदुत्व की विचारधारा को निशाना बनाते हैं। चाहे तथ्य कुछ भी कहें।
वहीं मोदी सरकार ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), जिसमें तीन भाषा वाला फॉर्मूला भी शामिल है, छात्रों और शिक्षकों की सहमति से ही लागू की जाएगी।
फिर भी, राहुल गाँधी अपने बयानों में बार-बार आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके पास आरएसएस के खिलाफ अपने दावों को साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं होता। उनका प्रचार अधिकतर आरोपों और नकारात्मक भावना पर आधारित होता है, न कि तथ्यों पर।
राहुल गाँधी ने NEET परीक्षा को लेकर छात्रों को भड़काने की कोशिश की
रायबरेली के सांसद ने पिछले साल लोकसभा में कहा था कि मेडिकल की प्रवेश परीक्षा NEET (नीट) अमीर छात्रों के लिए बनाई गई है। उन्होंने इसे एक ‘पेशेवर परीक्षा’ की बजाय ‘व्यावसायिक परीक्षा’ कहा, यानी यह पैसे वालों के लिए ज्यादा फायदेमंद है।
उन्होंने कहा कि नीट की तैयारी में छात्र कई साल लगा देते हैं, उनके परिवार उन्हें आर्थिक और भावनात्मक रूप से समर्थन देते हैं। लेकिन अब छात्रों का भरोसा इस परीक्षा से उठ गया है। उन्होंने बताया कि कई नीट छात्रों से मिलने पर यह साफ हुआ कि वे मानते हैं कि यह परीक्षा सिर्फ अमीर लोगों के लिए बनी है, ताकि उनके लिए सिस्टम में आसानी हो जाए। उनका मानना है कि यह परीक्षा गरीब और मेधावी छात्रों की मदद करने के लिए नहीं बनाई गई है।
राहुल गाँधी ने पहले एक वीडियो जारी कर NEET और दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं के उम्मीदवारों को संबोधित किया था। उन्होंने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वह संसद में पेपर लीक जैसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा से बच रही है।
राहुल ने कहा, “हम चर्चा इसलिए चाहते थे ताकि इस समस्या का हल निकाला जा सके, लेकिन यह साफ है कि सरकार ऐसा नहीं चाहती। मुझे लगा कि यह निर्देश सीधे प्रधानमंत्री से आया था।”
उन्होंने आगे कहा, “यह दुख की बात है कि देश के प्रधानमंत्री, जिन्हें इस मुद्दे पर चर्चा की अगुवाई करनी चाहिए और जनता को यह बताना चाहिए कि वे क्या कदम उठाएंगे, वे बहस से ही बचते हैं। हमारा मकसद सरकार से लड़ना नहीं है, हम बस अपनी बात रखना चाहते हैं।”
राहुल गाँधी ने कहा, “मैंने संसद में इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की, लेकिन मुझे बोलने नहीं दिया गया। यह साफ है कि यह एक बड़ी प्रणालीगत समस्या है और इसमें बहुत भ्रष्टाचार है। हम इसे ऐसे नहीं चलने दे सकते।” उन्होंने दोहराया कि पेपर लीक हुआ था और हर कोई इसे जानता है।
उन्होंने पहले प्रधानमंत्री मोदी पर भी हमला किया था और कहा था कि उनके नए कार्यकाल के शुरू होने से पहले ही NEET-UG मेडिकल प्रवेश परीक्षा में अनियमितताओं ने 24 लाख से अधिक छात्रों की उम्मीदें खत्म कर दीं।
राहुल ने कहा कि उनकी पार्टी ने अपने चुनावी वादे में कानून बनाकर छात्रों को पेपर लीक जैसी समस्याओं से आजादी दिलाने का वादा किया था।
कॉन्ग्रेस नेता ने कहा कि एक ही परीक्षा केंद्र से 6 छात्रों ने सबसे अधिक अंक हासिल किए हैं, जो असामान्य है। साथ ही, कई छात्रों को ऐसे अंक मिले हैं जो तकनीकी रूप से मुमकिन नहीं हैं। इसके बावजूद सरकार पेपर लीक की बात को लगातार नकार रही है।
उन्होंने देश के सभी छात्रों को भरोसा दिलाया कि वे संसद में उनकी आवाज बनेंगे और उनके भविष्य से जुड़े मुद्दों को मजबूती से उठाएंगे। उन्होंने कहा कि युवाओं ने कॉन्ग्रेस गठबंधन पर भरोसा जताया है, जो उनकी आवाज दबने नहीं देगा।
नरेंद्र मोदी ने अभी शपथ भी नहीं ली है और NEET परीक्षा में हुई धांधली ने 24 लाख से अधिक स्टूडेंट्स और उनके परिवारों को तोड़ दिया है।
एक ही एग्जाम सेंटर से 6 छात्र मैक्सिमम मार्क्स के साथ टॉप कर जाते हैं, कितनों को ऐसे मार्क्स मिलते हैं जो टेक्निकली संभव ही नहीं है, लेकिन सरकार…
उल्लेखनीय रूप से, नेशनल टेस्टिंग एजेंसी ने किसी भी विसंगति से इनकार किया तथा कहा कि बेहतर अंकों के पीछे कुछ कारक एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किए गए संशोधन तथा परीक्षा में देरी से आने वाले छात्रों को दिए गए अनुग्रह अंक थे।
पेपर लीक एक गंभीर समस्या है, जिस पर सख्त कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन इसे हल करने के बजाय, राहुल गाँधी इस मुद्दे का इस्तेमाल राजनीतिक फायदा उठाने के लिए कर रहे हैं। इससे साफ दिखता है कि इन मामलों को उठाने के पीछे उनकी असली मंशा छात्रों की मदद करना नहीं, बल्कि राजनीति करना है।
राहुल गाँधी के अघोषित DUSU दौरे से विवाद
कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी अक्सर अलग-अलग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्रों से मिलते हैं और अपनी पार्टी को छात्रों के हितों की रक्षा करने वाली पार्टी के रूप में पेश करते हैं। साथ ही वे भाजपा सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं, यह कहते हुए कि ये छात्रों के लिए नुकसानदायक हैं।
हाल ही में ऐसा ही एक मामला दिल्ली में हुआ, जिसने काफी विवाद खड़ा कर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) कार्यालय में राहुल गांधी के अचानक दौरे पर छात्र प्रतिनिधियों और विश्वविद्यालय प्रशासन ने आपत्ति जताई।
विश्वविद्यालय के बयान के मुताबिक, राहुल गाँधी ने DUSU कार्यालय में एक घंटे से भी ज्यादा समय बिताया और इस दौरान सुरक्षा गार्डों ने पूरे इलाके को घेर रखा था। इस अचानक हुई मुलाकात पर विरोध दर्ज किया गया क्योंकि यह बिना किसी पूर्व सूचना के हुई थी।
चौंकाने वाली बात यह है कि राहुल गाँधी ने अब अपनी विवादास्पद जाति-आधारित राजनीति को विश्वविद्यालयों तक भी फैला दिया है। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी से बार-बार चुनावी हार के बाद, यह कॉन्ग्रेस की राजनीति की मुख्य रणनीति बनती दिख रही है।
राहुल गाँधी ने कथित रूप से अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के छात्रों से कहा कि वे डॉ बी आर अंबेडकर की सोच से प्रेरणा लें और एक निष्पक्ष व समावेशी शैक्षणिक माहौल बनाने में हिस्सा लें। उन्होंने अंबेडकर के तीन शब्दों का जिक्र किया “शिक्षित हो, आंदोलन करो और संगठित हो।”
एनएसयूआई नेता और डूसू अध्यक्ष रौनक खत्री ने बताया कि छात्रों ने जाति आधारित भेदभाव, फैकल्टी पदों पर वंचित समुदायों की कमी और बड़ी कंपनियों में नौकरियों से बाहर किए जाने को लेकर अपनी चिंता जताई।
हालाँकि, दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने राहुल गाँधी के इस अचानक दौरे की निंदा की। यह दूसरी बार था जब उन्होंने बिना किसी पूर्व सूचना के कैंपस का दौरा किया।
विश्वविद्यालय की प्रॉक्टर रजनी अब्बी ने एक नोटिस जारी कर बताया कि DUSU सचिव को उनके ही कार्यालय में जाने नहीं दिया गया। एनएसयूआई के छात्रों ने उन्हें अंदर जाने से रोका। सचिव का कमरा अंदर से बंद था और वहाँ मौजूद कुछ छात्रों को एनएसयूआई सदस्यों ने परेशान किया। प्रशासन ने कहा कि इस घटना में शामिल छात्रों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
राहुल गाँधी अक्सर यह दिखाते हैं कि वे छात्रों, खासकर समाज के कमजोर वर्गों से आने वाले छात्रों के लिए बहुत चिंतित हैं। वे सरकार पर हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। लेकिन हकीकत यह है कि वे अक्सर अपने कहे पर खरे नहीं उतरते जैसा कि हाल की दिल्ली विश्वविद्यालय (DUSU) की घटना से साफ दिखा, जहाँ उनकी पार्टी से जुड़े छात्रों पर दूसरों को परेशान करने का आरोप लगा, लेकिन राहुल ने इस पर कुछ नहीं कहा।
उनकी छात्रों के प्रति चिंता अक्सर केवल राजनीतिक फायदे तक ही सीमित लगती है। अगर वे सच में चिंतित होते, तो अपनी पार्टी के लोगों द्वारा किए गए गलत व्यवहार की भी आलोचना करते।
जब वे चुनावी राज्य बिहार में 10 जून, 2025 को एक विश्वविद्यालय के हॉस्टल गए, तो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी। उन्होंने कहा कि दलित, आदिवासी (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) और अल्पसंख्यक समुदायों के 90% छात्र बहुत खराब हालत में हॉस्टल में रह रहे हैं और उनकी पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप में भी देरी हो रही है।
राहुल गाँधी ने लिखा, “मैं आपसे दो अहम मुद्दों को हल करने की अपील करता हूँ, क्योंकि ये कमजोर वर्गों के छात्रों की शिक्षा में रुकावट बन रहे हैं।”
हालाँकि, उनके बयान से साफ लगता है कि बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर उन्होंने ये बातें कहीं। वे एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं, जो हर मौके को राजनीतिक फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल करना जानते हैं। लेकिन असली बात यह है कि लोग अब उनकी असलियत समझने लगे हैं और सिर्फ वादों पर उन्हें वोट नहीं देते।
आपताकाल में छात्रों को दी गई थीं प्रताड़नाएँ
ऊपर दिए गए उदाहरण सिर्फ कुछ ही हैं जो यह दिखाते हैं कि राहुल गाँधी बार-बार शिक्षा और छात्रों से जुड़े मुद्दों को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे अक्सर भाजपा को दोषी ठहराते हैं, लेकिन खुद अपनी पार्टी की गलतियों को नजरअंदाज करते हैं।
राहुल गाँधी कभी यह स्वीकार नहीं करते कि आपातकाल के दौरान कॉन्ग्रेस सरकार ने छात्रों को प्रताड़ना दी थी। यह दौर भारत के इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है। उस समय ‘मीसा’ (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) का दुरुपयोग करके कई छात्रों और विरोधियों को जेल में डाल दिया गया था।
विडंबना यह है कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव, जो अब कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन में हैं, उन्होंने खुद उस दौर की यातनाएँ झेली थीं। उन्होंने अपने उस अनुभव की याद में अपनी सबसे बड़ी बेटी का नाम ही ‘मीसा’ रख दिया।
यह सब दिखाता है कि राहुल गाँधी राजनीतिक लाभ के लिए छात्रों की बात तो करते हैं, लेकिन इतिहास की सच्चाइयों से अक्सर आँखें चुरा लेते हैं।
कासु ब्रह्मानंद रेड्डी (बीच में), गृह मंत्री जिन्होंने आंतरिक आपातकाल लगाने के लिए राष्ट्रपति की सहमति मांगने वाले पत्र पर हस्ताक्षर किए। (फोटो साभार : मनोरमा ऑनलाइन)
आपातकाल के दौरान, लोगों को बिना किसी ठोस कारण के, सिर्फ संदेह या झूठे आरोपों के आधार पर हिरासत में लिया गया। छात्रों और युवाओं को चुप कराने की कोशिश की गई, लेकिन ये चीजें उनके लिए अस्वीकार्य थीं। सरकार का विरोध करने वाले छात्र नेताओं को जेल में डाल दिया गया, जबकि सिर्फ उन्हीं को छोड़ दिया गया जो कॉन्ग्रेस का समर्थन करते थे।
युवाओं ने इंदिरा गाँधी सरकार के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन उनका विरोध बेरहमी से कुचला गया। कई छात्रों को झूठे आरोपों में फँसा उनको प्रताड़ित किया गया। इससे उनके परिवार भी प्रभावित हुए।
केरल के कालीकट में 1 मार्च 1976 को क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र पी राजन को पुलिस ने बिना किसी पुख्ता आरोप के गिरफ्तार किया। अगले दिन 2 मार्च को, कक्कायम पुलिस कैंप में उन्हें बेरहमी से पीटा गया, जिससे उनकी मौत हो गई। पुलिस ने उन्हें लोहे और लकड़ी के रोलर्स से लगातार यातना दी थी।
इस बात को केरल हाई कोर्ट के जजों की एक पीठ के सामने सरकार के अधिकारियों, जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री के करुणाकरण भी शामिल थे, उन्होंने स्वीकार किया। यह सच्चाई राजन के पिता टी वी ईचारा वारियर की ओर से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की सुनवाई में सामने आई।
राजन का शव कभी नहीं मिला। उसके पिता ने अकेले संघर्ष करके यह सच्चाई सामने लाई कि उनका बेटा पुलिस हिरासत में मारा गया था। एक और छात्र नेता, राजवर्धन, को भी इतनी बेरहमी से पीटा गया कि वह बेहोश हो गया और खून की उल्टी करने लगा, फिर भी उसे कोई इलाज नहीं मिला। ये सभी घटनाएँ दिखाती हैं कि आपातकाल के दौरान छात्रों के साथ कितना अन्याय और अत्याचार हुआ।
छात्रों पर ‘हवाई जहाज’ तकनीक से हमला
लोगों के मुताबिक, आपातकाल के दौरान कर्नाटक में पुलिस द्वारा यातना देने का एक ‘पसंदीदा’ तरीका था जिसे ‘हवाई जहाज’ कहा जाता था। इसमें पीड़ित के हाथों को उसकी पीठ के पीछे बांध दिया जाता था, फिर उसे रस्सी और पुली की मदद से जमीन से कई फीट ऊपर हवा में लटका दिया जाता था। इस हालत में उसका पूरा शरीर हवा में झूलता था और वह बेहद दर्दनाक स्थिति में होता था।
आपातकाल के दौरान छात्रों के साथ जो हुआ, वह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय माना जाता है। देश भर में कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्रों को केवल विरोध करने या सवाल उठाने के लिए बेरहमी से यातनाएं दी गई।
बेलगाम कॉलेज के छात्रों को ‘हवाई जहाज’ तकनीक से छत से लटका दिया गया और थर्ड-डिग्री टॉर्चर किया गया, जिससे वे दर्द के मारे बेहोश हो गए। हुबली में तीन छात्र नेताओं पुट्टू स्वामी, पद्मनाभ हरिहर और श्रीकांत देसाई को भी इसी तरह की बर्बरता का सामना करना पड़ा। मैसूर में छात्र नेता रवि को गिरफ्तार कर बुरी तरह पीटा गया और उसे भी हवा में लटका कर प्रताड़ित किया गया।
मैंगलोर के केनरा कॉलेज में 12 नवंबर 1975 को छात्र उदय शंकर को बिना किसी वारंट के पुलिस ने हिरासत में लिया और पुलिस अधीक्षक की मौजूदगी में बुरी तरह मारा-पीटा गया। उसे खाना नहीं दिया गया और तीन बार ‘हवाई जहाज’ तकनीक से यातनाएँ दी गई।
बेंगलुरु के छात्र श्रीकांत, शिमोगा के छात्रों और दिल्ली विश्वविद्यालय के कई छात्रों पर भी यही अत्याचार दोहराए गए। DU के छात्र नेता हेमंत कुमार विश्नोई को पिकनिक के दौरान पकड़कर उल्टा लटकाया गया, जलती मोमबत्तियाँ तलवों पर रखी गई और उसकी नाक व मलाशय पर मिर्च पाउडर लगाया गया। इसके बावजूद उसने झूठा कबूलनामा देने से इनकार कर दिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र महावीर सिंह को इतनी यातना दी गई कि उसकी त्वचा ने उसके कपड़ों पर प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। शिव कुमार शर्मा को मिर्च पाउडर में साँस लेने पर मजबूर किया गया और डंडे, जूते और राइफल की बट से पीटा गया।
छात्र नेता अश्विनी कुमार को जमीन पर लिटाकर पुलिसकर्मी उसकी छाती पर भारी जूते पहनकर नाचने लगे। 26 जून 1975 को एक ही दिन में दिल्ली विश्वविद्यालय के 200 से ज्यादा शिक्षकों को हिरासत में लिया गया।
जेएनयू के छात्र 23 जून 1976 के दिन जसबीर सिंह को भी पुलिस ने बुरी तरह प्रताड़ित किया। उसे जंजीरों से कुर्सियों के बीच बांधकर लटकाया गया, पीटा गया और धमकाया गया कि अगर वह मर गया, तो उसकी लाश यमुना नदी में फेंक दी जाएगी।
वह खून की उल्टी करने लगा, लेकिन उसकी यातनाएं कई दिनों तक जारी रहीं। इन सब घटनाओं से यह साफ है कि आपातकाल के दौरान छात्रों को न केवल उनकी आवाज दबाने के लिए निशाना बनाया गया, बल्कि उन पर अमानवीय अत्याचार भी किए गए।
अश्विनी चौबे भी हुए थे शिकार
आपातकाल की घोषणा से एक साल पहले, अश्विनी कुमार चौबे, जो आज एक केंद्रीय मंत्री हैं, को सरकारी दमन का सामना करना पड़ा था। उस समय बिहार में अब्दुल गफूर की सरकार थी।
उन्हें इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वे पटना विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की इकाई के प्रमुख थे। उन्होंने भ्रष्टाचार और खराब शासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उनके इस सक्रिय योगदान के कारण ही उन्हें राजनीतिक रूप से परेशान किया गया।
अश्विनी कुमार चौबे (फोटो साभार : ज़ी न्यूज़)
आपातकाल की घोषणा से एक साल पहले, 1974 में अश्विनी कुमार चौबे जो आज केंद्रीय मंत्री हैं उनको बिहार सरकार ने निशाना बनाया। उस समय वे पटना विश्वविद्यालय में आरएसएस इकाई के प्रमुख थे और जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। उन्होंने अब्दुल गफूर और तत्कालीन वित्त मंत्री दरोगा राय पर चीनी मिलों में हुए घोटालों को उजागर किया। इसके बाद सरकार ने बदले की भावना से उन्हें प्रताड़ित किया।
चौबे 12 जून 1974 को गिरफ्तार कर डीआईआर (भारत की रक्षा अधिनियम) के तहत जेल भेजा गया। पटना के बाहर फुलवारीशरीफ जेल में उन्हें बहुत ही बेरहमी से यातना दी गई। उन्हें गर्म तवे पर लिटाया गया, लोहे की छड़ों से जलाया गया और लाठियों से पीटा गया। पुलिस ने उन्हें अंधा करने की कोशिश भी की। फिर उन्हें बोरे में लपेटकर फेंक दिया गया।
चार दिन बाद वे अस्पताल में होश में आए, तब तक उनके शरीर में गंभीर घाव थे और उनकी किडनी खराब हो चुकी थी। इसके बावजूद, उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) के तहत जेल भेजा गया।
जब वे 12 जुलाई 1975 को छुपकर अपनी बीएससी ऑनर्स की परीक्षा देने पटना साइंस कॉलेज पहुँचे, तब फिर गिरफ़्तार कर आरा जेल भेज दिया गया। बाद में उन्हें बिना खाना-पानी दिए बक्सर जेल ले जाया गया, जहाँ उन्हें मानसिक रोगियों के वार्ड के पास एक गंदी, बदबूदार और मच्छरों से भरी कोठरी में रखा गया।
वहाँ उन्होंने पाँच महीने बिताए, जिससे उनकी हालत बेहद खराब हो गई।
आख़िरकार, उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में शिफ्ट किया गया, जहाँ उन्होंने आपातकाल समाप्त होने तक अगले 11 महीने पुलिस की निगरानी में बिताए। यह पूरी कहानी दिखाती है कि कैसे सरकार ने एक युवा छात्र नेता पर बेरहमी से ज़ुल्म किया, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने सच्चाई के लिए आवाज उठाई थी।
जेपी आंदोलन के दौरान छात्रों पर कॉन्ग्रेस सरकार का अत्याचार
गुजरात में कॉन्ग्रेस सरकार को नव निर्माण आंदोलन के कारण सत्ता से हटना पड़ा। इस आंदोलन के दौरान पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल किया, जिससे 326 छात्र गिरफ्तार हुए।
इसके बाद यह आंदोलन और तेज हो गया। जनसंघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP), समाजवादी पार्टी की समाजवादी युवजन सभा (SYS), लोक दल जैसे राजनीतिक छात्र संगठन भी इस आंदोलन से जुड़ गए। बाद में यह आंदोलन जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व वाले आंदोलन का हिस्सा बन गया।
जयप्रकाश नारायण आंदोलन (फोटो साभार : द हिंदू)
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की छात्र शाखा, अखिल भारतीय छात्र संघ (एआईएसएफ) भी आंदोलन में शामिल हो गई थी। 1973 में विपक्षी दलों ने देशभर में हड़ताल की अपील की।
उसी साल 17 अगस्त को भोपाल (मध्य प्रदेश) में पुलिस ने आंदोलन कर रहे छात्रों पर कार्रवाई की, जिसमें 8 छात्रों की मौत हो गई। रैना जाँच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मध्य प्रदेश की कॉन्ग्रेस सरकार की कार्रवाई जरूरत से ज्यादा थी और उन्होंने मामले को सही तरीके से नहीं संभाला।
इसके बाद, 18 फरवरी 1974 को पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ ने एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें पूरे बिहार से छात्र नेता शामिल हुए। वहाँ ‘बिहार छात्र संघर्ष समिति’ (BCSS) का गठन किया गया।
लालू प्रसाद यादव को इसका अध्यक्ष चुना गया और सुशील कुमार मोदी, नरेंद्र सिंह, वशिष्ठ नारायण सिंह, चंद्रदेव प्रसाद वर्मा, मोहम्मद शहाबुद्दीन और रामविलास पासवान जैसे युवा नेता भी इसके मुख्य सदस्य बने। उनकी मुख्य माँगें छात्रावास में भोजन की व्यवस्था और बेहतर शिक्षा थीं।
आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण। (फोटो साभार: नॉलेज लॉ)
छात्रों ने बिहार विधानसभा 18 मार्च 1974 में घेराव किया। यह जयप्रकाश नारायण आंदोलन का एक अहम मोड़ था। इस दौरान पुलिस की गोलीबारी में तीन छात्रों की मौत हो गई। इसके बाद पूरे बिहार में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए और लोग मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को हटाने की माँग करने लगे। 12 अप्रैल को फिर से पुलिस फायरिंग हुई, जिसमें आठ और छात्रों की जान गई। इसके बाद जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन को और तेज कर दिया। वे लोकतंत्र में सुधार की माँग कर रहे थे।
आपातकाल की भयावहता
पाकिस्तान 1971 में मिली जीत की चमक धीरे-धीरे फीकी पड़ गई। इसके बाद जब 1975 में आपातकाल लगा, तो इंदिरा गाँधी की सरकार की सख्ती और दमन सभी ने महसूस की।
आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों समेत करीब दस लाख लोगों को MISA (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) के तहत बिना कोई आरोप या मुकदमा चलाए 18 महीने तक जेल में बंद रखा गया।
इस कानून के जरिए सरकार ने लोगों के मौलिक अधिकारों और आज़ादी को छीन लिया, जो भारतीय संविधान द्वारा सुरक्षित किए गए थे।
आपातकाल (फोटो साभार : नो लॉ)
एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार, 21 महीने के आपातकाल के दौरान भारत में करीब 1,40,000 लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के गिरफ्तार किया गया। इनमें विपक्षी नेता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और आम नागरिक शामिल थे। कॉन्ग्रेस सरकार के इस दमन से मधु दंडवते, श्याम नंदन मिश्रा, लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बड़े नेता भी नहीं बच सके।
इस दौरान जबरन नसबंदी अभियान भी चलाया गया। एक साल में 62 लाख पुरुषों की नसबंदी करवाई गई, जो नाज़ी शासन के नसबंदी आंकड़ों से 15 गुना ज्यादा थी। इसके अलावा, एक विमान का अपहरण भी हुआ, और इस पर संसद में सरकार ने शर्मनाक तरीके से सफाई दी।
आज के समय में राहुल गाँधी भी कई बार छात्रों के मुद्दों को भाजपा के खिलाफ राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि, उन पर भी तानाशाही सोच अपनाने के आरोप लगते हैं।
उदाहरण के लिए, 2011 में एक छात्र को सिर्फ राहुल गाँधी का मज़ाक उड़ाने पर गिरफ्तार कर लिया गया। वहीं दूसरी ओर, उन्होंने जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वाले उमर खालिद जैसे छात्रों का समर्थन किया। बाद में उमर खालिद को दिल्ली 2020 के दंगों का मास्टरमाइंड माना गया, जिसमें कॉन्ग्रेस से जुड़े लोग भी शामिल थे।
इससे साफ है कि जैसे इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आपातकाल के दौरान छात्रों और विरोधियों को दबाया, वैसे ही राहुल गाँधी भी राजनीति के हिसाब से कभी छात्रों का समर्थन करते हैं और कभी उन्हें निशाना बनाते हैं।
आज की सरकार पर राहुल गाँधी जो आरोप लगाते हैं, वे उस दौर की तुलना में बेहद मामूली हैं, जब लोगों को लोकतंत्र बचाने के लिए अपनी आजादी, करियर और यहाँ तक कि जान तक गंवानी पड़ी थी। भारतीय लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी की तानाशाही में हुआ था, जब संविधान और नागरिक अधिकारों को कुचल दिया गया था।
हाल ही में उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक ऐसी घटना सामने आई हैं, जो न केवल विवाह संस्था को हिला रही हैं। बल्कि पुरुषों की सुरक्षा और सामाजिक नैतिकता पर गंभीर सवाल खड़े कर रही हैं। ये घटनाएँ केवल वैवाहिक असफलता के प्रतीक के साथ उस सामाजिक और कानूनी असंतुलन की ओर इशारा करती हैं, जो पुरुषों को अदृश्य पीड़ित बना रहा है।
बदायूं में एक नवविवाहिता शादी के 8 दिन बाद प्रेमी संग कोतवाली पहुँच जाती है और पति संग रहने से इनकार कर देती है। बागपत में एक शादीशुदा महिला अपने प्रेमी के साथ OYO होटल में पकड़ी जाती है और खिड़की से कूदकर भाग निकलती है। लखनऊ के अंबेडकर नगर में महिला ने पति को पीटकर घर से निकाला और फिर प्रेमी से शादी कर ली।
औरैया में पत्नी ने शादी के 15 दिन बाद ही पति की हत्या की साजिश रच दी। कन्नौज में महिला ने प्रेमी संग मिलकर पति का गला घोंटकर हत्या की। गोरखपुर में पत्नी ने पति पर दहेज का झूठा केस किया और प्रेमी संग मंदिर में शादी कर ली। जौनपुर में पत्नी की बेवफाई के बाद प्रेमी से उसका विवाह करवा दिया।
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि विवाह अब कई बार भावनात्मक धोखा, आर्थिक शोषण और यहाँ तक कि जानलेवा षडयंत्र का माध्यम बन चुका है। दुख की बात यह है कि इन सब मामलों में पुरुष सबसे कमजोर कड़ी बनकर रह गया है, जिसकी न कहीं सुनवाई है और न कोई सरकारी सुरक्षा।
यह तो आगरा में टीसीएस मैनेजर मानव शर्मा ने भी आत्महत्या करने से पहले कहा था। मानव शर्मा का वो आखिरी वीडियो देख हर व्यक्ति की आँखे नम हुई थी। उन्होंने कहा था, “कोई मर्दों के बारे में भी सोचे…बेचारे बहुत अकेले होते हैं।” मानव अपनी पत्नी निकिता और उसके घरवालों की प्रताड़ना से परेशान था।
क्या यही महिला सशक्तिकरण है?
जब महिलाएँ अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रही हों, तब क्या पुरुषों की पीड़ा को नजरअंदाज करना न्याय है? ये घटनाएँ केवल व्यक्तिगत धोखे की नहीं, बल्कि सामाजिक असंतुलन की प्रतीक हैं। दुख की बात यह है कि इन सब मामलों में पुरुष सबसे कमजोर कड़ी बनकर रह गया है जिसकी न कहीं सुनवाई है, न कोई सरकारी सुरक्षा।
आज जरूरत है कि इस असंतुलन को संवैधानिक और सामाजिक स्तर पर समझा जाए। ‘जेंडर न्यूट्रल कानून’ समय की माँग है। महिलाओं की तरह पुरुषों को भी संवैधानिक संरक्षण मिले, इसके लिए ‘पुरुष आयोग’ की स्थापना अनिवार्य है। साथ ही, विवाह पूर्व काउंसलिंग और नैतिक शिक्षा को भी सामाजिक मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए।
एक समाज तभी संतुलित होता है जब वह दोनों पक्षों की पीड़ा को समझे। केवल महिला-सशक्तिकरण नहीं, ‘न्याय-सशक्तिकरण’ जरूरी है। चाहे वह पुरुष के लिए हो या महिला के लिए।
12 जून, 2025 को अहमदाबाद में दोपहर 1:40 बजे एअर इंडिया के विमान ने उड़ान भरी। 1 ही मिनट के भीतर यह क्रैश हो गया। इस हादसे में 250+ से अधिक लोग मारे गए। विमान में मौजूद मात्र एक यात्री जीवित बचा। जैसे-जैसे हादसे की जानकारियाँ सामने आती गईं, स्थिति साफ़ होने के बजाय और भी विस्मय भरी हो गई। पता चला कि यह एअर इंडिया का 787-8 ड्रीमलाइनर विमान था। यह बोइंग कम्पनी द्वारा निर्मित है और पहली बार विमान का यह मॉडल हादसे का शिकार हुआ है।
बोइंग का नाम आते ही लोगों के दिमाग में इससे जुड़े हादसों का इतिहास घूमने लगा। बोइंग के बीते कुछ सालों में अमेरिकी सरकार के नियमों के साथ खेलने और अपने अनुसार नियम बनाने की घटनाएँ भी दिमाग में कौंधी। वर्तमान में अहमदाबाद हादसे में काल कवलित हुए ड्रीमलाइनर का ब्लैक बॉक्स अमेरिका भेजा गया है। जहाँ इसकी जाँच की जाएगी। इसके बाद ही हादसे के कारण स्पष्ट होंगे। लेकिन इससे पहले बोइंग के पुराने कारनामों पर दुनिया की बाजार एक बार और आ गई है।
1997 का मर्जर और बोइंग की धूमिल होती प्रतिष्ठा
बोइंग वर्तमान में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी एयरक्राफ्ट निर्माता कम्पनी है। बोइंग ने ही विश्व को पहला जेट यात्री विमान ‘707’ दिया था। इसकी प्रतिष्ठा विश्व की बेहतरीन इंजनियरिंग कम्पनियों में होती थी। इसने 747 जैसा पहला जंबो जेट दिया, जिसने विश्व को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई। सिर्फ यात्री विमान ही नहीं बल्कि मिलिट्री विमानों के मामले में भी बोइंग एक बेहतरीन कम्पनी बनी। इसने विशालकाय C-17 ग्लोबमास्टर जैसे विमान बनाए, जो आज भारतीय वायु सेना उपयोग करती है।
लेकिन 1997 में बोइंग और मैकडोनाल्ड डगलस मर्ज हो गईं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसी के बाद बोइंग का ‘फाल फ्रॉम ग्रेस’ यानी अर्श से फर्श पर गिरना चालू हो गया। बोइंग इसके बाद इंजीनियरिंग पर फोकस रखने वाली कम्पनी से नफे-नुकसान पर फोकस रखने वाली कम्पनी बन गई। इसका फोकस अब दुनिया को बेहतरीन तरीके से बनाए विमान देना नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा नफा कमाना हो गया। जहाँ पहले कर्मचारियों से पारदर्शी रहने को कहा जाता था, अब उन्हें गलतियाँ छुपाने को कहा जाने लगा।
इसके चलते बोइंग की प्रतिष्ठा धूमिल होती गई। वैश्विक बाजार में वह लीडर नहीं रही। एयरबस ने उसे बड़ी पटखनी दी। बोइंग की गिरती प्रतिष्ठा का अंदाजा इसी से जा सकता है कि बीते 2-3 दशक में वह कोई नया विमान मॉडल नहीं ला पाई है बल्कि पुराने पर ही प्रयोग करके काम चला रही है। इसके चलते सैकड़ों यात्रियों को जान गँवानी पड़ी है। बोइंग, अब जब क्वालिटी में फेल हुई है तो उसका फोकस अमेरिका और बाहर के देशों में नियम और नीतियों को प्रभावित करने और उनमें अपने अनुसार बदलाव करवाने पर रहा है।
अमेरिका में लॉबीइंग पर हजारों करोड़ खर्च करती है बोइंग
बोइंग एक अमेरिकी कम्पनी है और इसकी आय का बड़ा हिस्सा अमेरिकी सरकार से मिलने वाले ठेकों से आता है। बोइंग अमेरिका के लिए कई सैन्य विमान बनाती है। इसके अलावा अमेरिका के ही नियम एवं नीतियाँ बोइंग पर लागू होते हैं। यह अमेरिकी नीतियाँ कैसे उसके हित में रहें, इसके लिए वह हजारों करोड़ खर्च करती है।
अमेरिका में स्टॉक बाजार के नियामक SEC की एक रिपोर्ट कहती है कि बोइंग ने 2010-2022 के लॉबीइंगपर 20 करोड़ डॉलर (₹1700 करोड़+) से अधिक खर्च किए हैं। अकेले 2021 और 2022 में 2.6 करोड़ डॉलर (₹225 करोड़) खर्च किए हैं। SEC की ही एक रिपोर्ट बताती है कि 1998 से बोइंग ने लॉबीइंग पर 32 करोड़ डॉलर(₹2700 करोड़) से अधिक खर्च किए हैं। SEC बताती है कि बोइंग अमेरिका के भीतर लॉबीइंगपर खर्च करने के मामले में 9वें नम्बर पर है।
बोइंग इस काम में 9वें नम्बर पर तब है जब मार्केट कैप यानी हैसियत के मामले में वह अमेरिका में 70-80वें नम्बर पर है। इसका सीधा मतलब है कि बोइंग अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च लॉबीइंग के लिए करती है। बोइंग अपने अनुसार नियम तोड़ने-मरोड़ने के लिए अमेरिका की दोनों पार्टियों यानी डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन को पैसा देती है। यह खर्च, उसके लॉबीइंग पर खर्च से इतर है। एक रिपोर्ट के अनुसार, बोइंग ने वर्ष 2004-2024 के बीच 43 मिलियन डॉलर (₹3500 करोड़+) खर्च किए हैं।
बोइंग यह भी ध्यान रखती है कि वह किसी एक पार्टी को ज्यादा फेवर ना करे। रिपोर्ट्स बताती हैं कि बोइंग दोनों पार्टियों को लगभग बराबर ही फंडिंग करती है। हालाँकि, बोइंग ने बीते वर्षों में अधिक फंडिंग डेमोक्रेट्स को दी है। अमेरिका में इस प्रक्रिया को लॉबीइंगकहा जाता है। वैसे तो अमेरिका में लॉबीइंग कोई गैर-कानूनी काम नहीं है, लेकिन बोइंग की एक लॉबीइंग ने 300+ लोगों की जान ली है। यह बोइंग के इतिहास में काला धब्बा है।
जब बोइंग के लालच ने ले लीं 300 से अधिक जिंदगियाँ
बोइंग हजारों करोड़ का खर्च लॉबीइंगऔर पार्टियों पर करती है। बोइंग कोई समाज कल्याण संस्था नहीं है जो वह इतने पैसे फालतू में देती हो। यह सब कुछ फायदे के लिए किया जाता है। बोइंग के लालच और लॉबीइंगसे बचने के चलते कुछ सालों पहले 300 से अधिक जानें गई थीं। यह कहानी चालू होती है 2010 के आसपास। कभी विश्व के एयरक्राफ्ट मार्केट पर राज करने वाली बोइंग को यूरोप से निकली कम्पनी एयरबस लगातर पटखनी दे रही थी। एयरबस की सफलता का राज उसके नए A320 नियो विमान थे।
यह बोइंग के 737 विमानों की तुलना में आधुनिक थे और कम तेल खपत करते थे। लगातार एयरलाइन्स इसके चलते एयरबस को आर्डर दे रहीं थी और बोइंग की हार हो रही थी। बोइंग ने ऐसे में एक नया विमान बनाने की सोची। लेकिन बोइंग नए विमान के डेवलपमेंट में पैसा नहीं लगाना चाहता था। ऐसे में उसने एक नया आइडिया निकाला। उसने प्लान बनाया कि 1960 के दशक में डिजाइन किए गए बोइंग 737 को ही नया रूप देना है। बोइंग ने इस नए प्लेन का नाम 737 मैक्स रखा।
बोइंग ने इसके बाद विमान के डिजाइन में कुछ बदलाव किए। विमान के विंग्स में भी बदलाव किए गए। विमान के कॉकपिट में बदलाव हुआ। इसका लैंडिंग गियर भी बदला गया। नए विमान में नए लीप-1 इंजन भी लगाए गए जो 14% अधिक तेल बचाते थे। यह इंजन पुराने इंजनों के मुकाबले बड़े थे। जहाँ पुराने इंजन 737 के विंग्स (पंख) के नीचे लगाए जाते थे तो वहीं नए इंजन बड़े होने के चलते इन्हें पंखों पर खिसका दिया गया। ऐसा ना करने पर इंजन जमीन में टकरा रहे थे।
यहीं से सारी कहानी बिगड़ गई। नए इंजन पुराने के मुकाबले अधिक भारी थे। ऐसे में इनके चलते विमान का अगला हिस्सा हवा में ज्यादा उठता था जो विमान को नियंत्रित करने के लिए एक समस्या था। बोइंग ने इसका हल निकाला और एक सिस्टम MCAS लाया। MCAS विमान के अगले हिस्से को अपने आप नीचे की तरफ दबा देता था। यह काम सेंसर के जरिए होता था। जैसे ही विमान के सेंसर को लगता कि विमान का अगला हिस्सा अधिक हवा में उठ रहा है, तुरंत ही वह उसे नीचे गिरा देता।
बोइंग का यह विमान पूरी दुनिया में हिट हुआ। इसके हजारों आर्डर मिले। लेकिन बोइंग ने इस पूरे मामले में एक बेईमानी कर ली। बोइंग ने 737 को पूरी तरह बदल दिया था। लेकिन उसने दावा किया कि इसे फिर से अमेरिकी विमान नियामक FAA से प्रमाणन लेने की जरूरत नहीं है। दरअसल, विमान के हर सिस्टम के लिए प्रमाणन लेना बड़ा खर्च होता है। इससे विमान की डिलीवरी टाइमलाइन भी बढ़ जाती। इसके अलावा नए सिस्टम्स के ऊपर पायलटों को भी ट्रेनिंग देनी पड़ती।
बोइंग ने इन सब से बचने के लिए FAA के सामने दावा किया कि यह मूलतः एक पुराना विमान ही है, ऐसे में इसके लिए अलग से प्रमाणन लेने की आवश्यकता नहीं है। उसने कानूनों के लूपहोल्स का भी फायदा उठाया। बोइंग ने पूरा नया विमान बना कर तैयार कर दिया लेकिन FAA को उसके सिस्टम्स का प्रमाणन नहीं करने दिया। यहाँ तक कि बोइंग ने अमेरिका में बड़े स्तर पर लॉबीइंग की और 2018 में एक कानून भी प्रभाव से पास करवाया।
वर्ष 2018 में अमेरिकी संसद ने बोइंग की मजबूत लॉबीइंग के बाद FAA रीऑथराइजेशन एक्ट पास किया। यह कानून अमेरिका में विमान बनाने वाली कम्पनियों को यह अधिकार देता था कि वह अपनी बनाई तकनीकों का खुद प्रमाणन कर सकें। इस कानून ने FAA की शक्तियों को सीमित कर दिया इस कानून का सीधा संबंध बोइंग के 737 मैक्स प्रोग्राम से था। अब बोइंग को खुले तौर पर अधिकार मिल गया कि वह 737 मैक्स विमानों के नए सिस्टम को बिना किसी बाहरी प्रमाणन के बेचे।
इसके बाद बोइंग ने धुआँधार तरीके से 737 मैक्स की बिक्री जारी रखी। पूरे विश्व की एयरलाइंस ने यह विमान खरीदे भी। 29 अक्टूबर, 2018 को ऐसी ही इंडोनेशिया की लायन एयर का एक विमान उड़ने के कुछ ही समय के बाद समुद्र में क्रैश हो गया। इस दुर्घटना में 189 यात्री और क्रू के लोग मारे गए। नए प्लेन का इस तरह से गिरना और क्रैश हो जाना किसी को नहीं समझ आया। इस दुर्घटना में मरने वाले पायलट भारतीय थे। वही इस विमान को उड़ा रहे थे।
इस घटना के मात्र 6 महीने के बाद ही मार्च, 2019 में इथियोपियन एयरलाइन्स का एक विमान राजधानी आदिस अबाबा से उड़ने के कुछ ही मिनटों के बाद क्रैश हो गया। इस दुर्घटना में भी 157 लोग, क्रू समेत मारे गए। इसके बाद बोइंग के ऊपर बढ़ना चालू हो गया और उसके दुनिया भर में 737 विमान जमीन पर खड़े हो गए। दोनों दुर्घटनाओं की जाँच हुई तो पता चला कि बोइंग के विमान को नीचे की तरफ दबाने वाले MCAS सेंसर की वजह से यह हादसे हुए।
सामने आया कि दोनों दुर्घटनाओं में MCAS ने विमान को नीचे की तरफ दबाना जारी रखा जबकि पायलट इस दौरान लगतार उसे उड़ाने का प्रयास करते रहे। पायलट इसमें विफल रहे और इस गड़बड़ सिस्टम ने विमान को नीचे गिरा दिया। दोनों हादसों की जाँच के बाद जब दबाव बढ़ा तो बोइंग ने माना कि उसने यह जानकारियाँ छुपाई थीं। बोइंग ने माना कि उसने पायलटों को इस नए सिस्टम के विषय में बताया ही नहीं था।
बोइंग ने इस MCAS सिस्टम को खुद ही सुरक्षित प्रमाणित किया था। बाद में यही 346 लोगों की मौत का कारण बना। 737 मैक्स की सुरक्षा जाँच FAA नहीं कर सके, इसके लिए उसने कानून पहले ही बनवा लिया था। इसके लिए उसने हजारों करोड़ खर्च किए थे और अमेरिकी संसद में लोग अपने पक्ष में किए थे। बोइंग की इस लॉबीइंग का परिणाम 346 लोगों और क्रू की मौत, हजारों प्लेन का जमीन पर खड़ा होना और एयरलाइन्स को हजारों करोड़ के घाटे के रूप में हुआ।
बोइंग की लॉबीइंग का दायरा सैन्य विमानों में भी
बोइंग, यात्री विमान बनाने के साथ ही सैन्य विमान भी बनाती है। अमेरिकी वायु सेना में एक चौथाई विमान बोइंग के बनाए ही हैं। बोइंग ने कई मौकों पर अपनी लॉबीइंगका दबाव बना कर अमेरिका में ठेके हासिल किए हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण अमेरिकी वायु सेना को हवा में विमानों में तेल भरने वाले रिफ्युलर विमानों की सप्लाई था। यह पूरी प्रतियोगिता वर्ष 2000 के आसपास चालू हुई थी। इसमें पहले बोइंग के 767 विमानों पर बने टैंकर विमान सेलेक्ट किए गए थे।
बोइंग KC-46
इस प्रक्रिया में बाद में भ्रष्टाचार सामने आया और बोइंग को किनारे कर दिया गया। दोबारा हुई प्रतियोगिता में एयरबस जीत गई और उसका A330 MRTT अमेरिकी वायु सेना को सप्लाई किया जाना था। हालाँकि, बोइंग ने इस पर बवाल कर दिया और लॉबीइंग चालू करके एयरबस को मिला यह ठेका रद्द करवा दिया। बाद में बोइंग का बनाया KC-46 ही अमेरिकी वायु सेना में शामिल हुआ। हालाँकि, यह पहला मौक़ा नहीं था जब बोइंग ने एयरबस की एंट्री अमेरिका में रोकी हो।
1970 के दशक में एयरबस यूरोप में सफलता के बाद अमेरिका में एंट्री लेना चाहती थी लेकिन तब भी बोइंग ने इसके खिलाफ लगातार अमेरिकी सरकार से दबाव डलवाया। एयरबस को लम्बे समय तक अमेरिकी बाजार से बाहर रखने का श्रेय बोइंग को ही है। हालाँकि, बोइंग दूसरे देशों में जाते ही अपने धन बल का इस्तेमाल करने लगती है और ठेके पाने के लिए लॉबीइंग करती है। ऐसे ही एक मामले में बोइंग ने सऊदी अरब को 37 बिलियन डॉलर (₹3 लाख करोड़+) की डील की थी।
अमेरिका और सऊदी के रिश्ते हालाँकि इसके बाद बिगड़ गए। यह विवाद अमेरिकी नागरिक और पत्रकार जमाल खशोगजी की तुर्की में हत्या से जुड़ा था। अमेरिका, लगातार सऊदी पर दबाव बना रहा था। इसके जवाब में सऊदी ने इस डील को लेकर अपना रुख बदल लिया। बोइंग इसके बाद हरकत में आई और उसने तुरंत ही यह डील बचाने के लिए अमेरिकी सरकार और सऊदी सरकार से बात करना चालू कर दिया।
अमेरिका के भीतर F/A-18 विमानों को लगातर सेवा में रखना हो या F-15EX विमानों की लॉबीइंग, हमेशा बोइंग इस दिशा में काम करती आई है।
भारत में भी लॉबीइंग की कोशिश करती रही है बोइंग
ऐसा नहीं है कि भारत बोइंग के इन लॉबीइंग की कोशिशों से अछूता है। बोइंग ने भारत के दूसरे एयरक्राफ्ट कैरियर विक्रांत के लिए विमान बेचने का काफी प्रयास किया। बोइंग इसके लिए F/A-18 विमान बेचना चाहती थी। इसके लिए बोइंग ने भारत में अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन तक दिए। हालाँकि, भारतीय नौसेना ने अपनी जरूरतों को देखते हुए फ़्रांस में बना राफेल-M विमान चुना। इसके लिए हाल ही में डील भी फाइनल हो चुकी है।
यह अकेला ऐसा मौक़ा नहीं था। बोइंग इससे पहले F-21 विमान भी भारत को बेचने के प्रयास कर चुकी है। असल में यह F-16 लड़ाकू विमान है जो पाकिस्तानी वायु सेना उपयोग करती है। बोइंग ने भारतीय वायु सेना को यह बताने का प्रयास किया कि F-21, पकिस्तान द्वारा उपयोग किए जाने वाले F-16 विमान से एकदम अलग है। हालाँकि, वायु सेना ने इस पर अपनी कोई रूचि दिखाने से स्पष्ट तौर पर मना कर दिया।
बोइंग अहमदाबाद मामले में अब क्या रुख अपनाएगी, ये भविष्य के गर्भ में है। यदि विमान में तकनीकी खामियाँ निकली तो क्या बोइंग उन्हें स्वीकार करेगी या किसी जुगाड़ के सहारे बच निकलने का प्रयास करेगी, यह भी समय बताएगा। लेकिन उसका ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वह नैतिक मूल्यों में कोई ख़ास विश्वास नहीं रखती।
दीघा जगन्नाथ धाम के प्रसाद का वितरण बंगाल सरकार ‘दुआरे सरकार’ योजना के तहत करवा रही है। लेकिन इन प्रसादों को जगन्नाथ मंदिर धाम ट्रस्ट द्वारा नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर बनाया जा रहा है। इसका बीजेपी लगातार विरोध कर रही है। अब प्रसाद के मुस्लिम मिठाई विक्रेताओं द्वारा बनवाए जाने की बात सामने आई है।
रानीनगर में दीघा जगन्नाथ धाम सांस्कृतिक केन्द्र के राशन डीलरों को जो प्रसाद वितरण के लिए चुने गए हैं उनमें चार में से तीन मुस्लिम हैं। इसके खिलाफ बीजेपी ने आवाज बुलंद की है। बीजेपी नेताओं का कहना है कि ये हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने जैसा है।
नोटिफिकेशन को लेकर बीजेपी नेता सुकांता मजुमदार ने ट्वीट किया है। बांग्ला में किए गए ट्वीट में उन्होने कहा, “मैं पश्चिम बंगाल प्रशासन से पूछना चाहता हूँ कि क्या यह अधिसूचना सत्य है?
পশ্চিমবঙ্গের প্রশাসনের কাছে জানতে চাইছি, এই বিজ্ঞপ্তিটি কি সত্য?
রানীনগর – ১ নং ব্লকে 'দীঘা জগন্নাথ ধাম সাংস্কৃতিক কেন্দ্র' এর প্রসাদ (মিষ্টান্ন) রেশন ডিলারদের কাছে সরবরাহের জন্য যে বিজ্ঞপ্তি সামনে এসেছে তা নিয়ে এখন স্থানীয় হিন্দুদের মধ্যে আশঙ্কা তৈরি হয়েছে। এই বিজ্ঞপ্তির… pic.twitter.com/UMZIWxDTdt
— Dr. Sukanta Majumdar (@DrSukantaBJP) June 18, 2025
रानीनगर के ब्लॉक नंबर 1 में ‘दीघा जगन्नाथ धाम सांस्कृतिक केंद्र’ के राशन डीलरों को प्रसाद (मिठाई) की आपूर्ति के लिए जो अधिसूचना जारी की गई है, उससे अब स्थानीय हिंदुओं में आशंका पैदा हो गई है। इस अधिसूचना की सच्चाई को प्रशासन के संज्ञान में तुरंत लाया जाना चाहिए।
नोटिस से पता चलता है कि कई स्थानीय मिठाई की दुकानों के मालिकों के नाम और नंबर दिए गए हैं, और सूचीबद्ध चार मिठाई की दुकानों में से तीन मुसलमानों के हैं!
तो क्या सरकार माननीय ‘तोषण’ की ओबीसी सूची की तरह मुसलमानों के आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा रही है?
क्या मुस्लिम व्यापारियों को भी हिंदुओं को वितरित करने के लिए प्रसाद तैयार करने का ठेका दिया जा रहा है?
इससे पहले नेता विपक्ष शुवेंदू अधिकारी ने भी इस मामले को उठाया। उनका कहना है कि न सिर्फ मिठाई खरीदना बल्कि स्थानीय दुकान से मिठाई के डिब्बे खरीदना भी हिन्दू धर्म का अपमान है। मिठाई के पैकेट को दिखाते हुए उन्होने कहा था कि पूर्वी मेदिनीपुर के दीघा में बने जगन्नाथ मंदिर से प्रसाद लाने के बजाए राज्य सरकार स्थानीय दुकान से मिठाई तैयार करवा रही है। भगवान के प्रसाद के नाम पर स्थानीय दुकानों की मिठाई घरों तक पहुँचेगी। ये हिन्दुओं का अपमान है।
राज्य सरकार ने प्रसाद के पैकेट के लिए 20 रुपए दाम तय किए हैं।
आयरलैंड में अविवाहित माँओं के लिए बने ‘बॉन सेकॉर्स मदर एंड बेबी होम’ की खुदाई की जा रही है। होम के सेप्टिक टैंक से मरे हुए 796 बच्चों के अवशेष मिले थे।
न्यूयॉर्क पोस्ट की ख़बर के मुताबिक ये बच्चे 1925 से 1961 के बीच यानी 35 साल के दौरान यहाँ फेंके गए। कैथोलिक चर्च इस आश्रम को चलाता था। इन बच्चों को यहाँ दफन कर दिया गया। इस जगह को सामूहिक कब्र के रूप में जाना जाता है। अब इसकी खुदाई की जा रही है। इससे कई ‘राज’ उजागर होने की उम्मीद है।
इस खुदाई से आयरलैंड के उस एक काले अतीत के बारे में पता चलेगा जब चर्च शक्तिशाली हुआ करते थे और समाज को नियंत्रित करते थे।
स्थानीय इतिहासकार कैथरीन कॉर्लेस ने स्काई न्यूज को बताया कि आशंका है कि कई नवजात के अवशेषों को एक साथ यहाँ फेंक दिया गया। केवल दो बच्चों को ही कब्रिस्तान में दफनाया गया। बॉन सेकॉर्स में हुए खौफनाक नरसंहार का पूरा मामला 2014 में कॉर्लेस ने ही दुनिया के सामने उजागर किया था।
कैथोलिक ईसाई धर्म की छवि को बनाए रखने के लिए इस ‘होम’ में अविवाहित गर्भवती महिलाओं को भेजा जाता था, जहाँ ये अपने बच्चे को जन्म देती थीं। इन बच्चों के देखभाल की जानकारी कैथोलिक नन करती थी।
‘बॉन सेकॉर्स मदर एंड बेबी होम’ को 1971 में तोड़ डाला गया और इसे चलाने वाली संस्था को 1972 में निलंबित कर दिया गया। माना जाता है कि नवजात बच्चों के अवशेष बॉन सेकॉर्स मदर एंड बेबी होम की जमीन के नीचे अभी भी हैं। हालाँकि अब इस जगह के आस-पास आधुनिक अपार्टमेंट्स बन गए हैं।
अविवाहित गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए इस होम में भेजा जाता था। इस दौरान एक साल तक बिना वेतन के काम करने के लिए इन्हें मजबूर किया जाता था। ये महिलाएँ पूरी तरह नजरबंद रखी जाती थीं। यहाँ तक कि माँओं को उनके नवजात बच्चों से अलग कर दिया जाता था, जिन्हें नन तब तक पालती थीं जब तक कि उन्हें गोद नहीं ले लिया जाता। बच्चे को किसने गोद लिया? कब लिया? इसकी जानकारी भी माँ को नहीं दी जाती थी।
2014 में सामूहिक कब्र की जानकारी मिलने के बाद आयरलैंड की संसद ने 2022 में कानून पारित किया जिसके बाद टुअम में खुदाई का कार्य शुरू हो सका। एक दशक से भी अधिक समय बीतने के बाद जाँचकर्ताओं की एक टीम ने फोरेंसिक जाँच शुरू की। शिशुओं के अवशेषों की पहचान करने और उन्हें सम्मानजनक तरीके से फिर से दफनाने की पूरी प्रक्रिया में दो साल तक का समय लगने की उम्मीद है।
एनेट मैके नाम की महिला की बहन भी उन अविवाहित माँओं में शामिल थीं जिनके बच्चे को सेप्टिक टैंक में फेंका गया था। एनेट मैके ने स्काई न्यूज को बताया, “मुझे सामूहिक क्रब से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। क्योंकि लोग बता रहे हैं कि बहुत अधिक अवशेष नहीं बचे होंगे। नवजात बच्चों के शरीर की हड्डी काफी मुलायम होती है और ये जल्दी नष्ट हो जाती है।”
मार्गरेट “मैगी” ओ’कॉनर नाम की एक महिला ने 17 साल की उम्र में बलात्कार के बाद होम में एक बच्ची को जन्म दिया। नवजात की छह महीने बाद मृत्यु हो गई। नन ने इसकी जानकारी माँ को नहीं दी। माँ मार्गरेट भी भी जिंदा हैं। वह यूके में रहती हैं। घटना की जानकारी मिलने के बारे में महिला ने बताया, “वह बाहर कपड़े धो रही थी और एक नन उसके पीछे आई। वह बोली “तुम्हारे पाप का बच्चा मर गया है।”
आयरलैंड सरकार और कैथोलिक चर्च द्वारा समर्थित बॉन सेकॉर्स एक संस्था थी जिसने आयरलैंड में उत्पीड़न का एक नेटवर्क बनाया था। इसकी वास्तविकता बाद के वर्षों में पता चली।
बॉन सेकॉर्स संस्था के होम में वैसी माताएँ भी रहती थीं, जो एक्सट्रा मेरिटल अफेयर के बाद बच्चे पैदा करने का ‘अपराध’ करती थीं। ऐसी महिलाओं को ‘मैग्डलीन लॉन्ड्रियों’ में भेज दिया जाता था। कैथोलिक आदेशों का पालन करने वाली ये तथाकथित “पतित महिलाओं” का इस्तेमाल करती थी। इन संस्थाओं को सरकारों का मौन समर्थन प्राप्त था।
इन “पतित महिलाओं” से वैश्यावृति कराई जाती थी। ये महिलाएँ भी नन के साथ समाज की बलात्कार की शिकार अविवाहित महिलाओं, अनाथ लड़कियों या परिवार से अलग हुए बच्चों को लेने आती थीं।
1990 में अंतिम ‘मैग्डलीन लॉन्ड्री’ को बंद कर दिया गया। आयरलैंड सरकार ने आधिकारिक तौर पर इसके लिए 2014 में माफी माँगी थी। 2022 में मुआवजा स्कीम बनाया गया जिसके तहत 814 जिंदा बचे पीड़ितों को 28,384 करोड़ रुपए बाँटे गए।
सुप्रीम कोर्ट की एक 3 जजों की कमेटी ने जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने की सिफारिश पेश की है। इसके बाद जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने की संभावना है। इसी मामले में भ्रष्टाचार के आरोप में फँसे जस्टिस यशवंत वर्मा का सपोर्ट वकील कपिल सिब्बल ने किया है। कपिल सिब्बल ने कहा कि जस्टिस वर्मा अब तक के सबसे बेस्ट जजों में से एक है।
64 पेज रिपोर्ट की मुख्य बातें
सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की कमेटी ने जस्टिस यशवंत वर्मा को पद से हटाने की सिफारिश की है। यह सिफारिश 64 पेज की एक रिपोर्ट में की गई है, जिसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजा गया है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि जले हुए नोट जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास के स्टोररूम में ही मिले थे।
स्टोररूम तक सिर्फ जस्टिस वर्मा और उनके परिवार की ही पहुँच थी, किसी बाहरी व्यक्ति की नहीं थी। जाँच में सामने आया है कि आग बुझाने के दौरान फायरफाइटर्स ने ‘आधे जले हुए नोट’ देखे थे। एक गवाह ने तो यहाँ तक कहा कि उसने जिंदगी में पहली बार इतना ज्यादा कैश का पहाड़ देखा था। कमेटी ने माना है कि इतने सारे नोट बिना जस्टिस वर्मा या उनके परिवार की मर्जी के वहाँ नहीं रखे जा सकते थे।
कमेटी ने जस्टिस वर्मा की बेटी दिया वर्मा और उनके निजी सचिव राजिंदर कार्की की भूमिका की भी जाँच की है, जिन पर आरोप है कि उन्होंने फायरफाइटर्स को कैश की जानकारी किसी को भी बताने को मना किया था। इन सभी बातों के आधार पर कमेटी ने कहा है कि जस्टिस वर्मा को पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं।
हालाँकि, जस्टिस वर्मा ने इन आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि उन्हें या उनके परिवार को इस कैश के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जस्टिस वर्मा ने यह भी कहा था कि स्टोररूम में कोई भी आ-जा सकता था।
जून 2025 महीने की शुरुआत में खबर आई थी कि जस्टिस वर्मा को हटाने की प्रक्रिया जल्द ही शुरू हो सकती है। यह भारत के इतिहास में किसी सिटिंग जज को जबरन हटाने का पहला मामला होगा।
जाँच में क्या सामने आया?
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा केस में एक जाँच कमेटी बनाई थी। मामले में 55 गवाहों से पूछताछ की गई थी। इसमें जस्टिस वर्मा की बेटी दिया वर्मा भी शामिल थीं। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि कई गवाहों, वीडियो और तस्वीरों से यह साबित होता है कि जस्टिस वर्मा के दिल्ली वाले घर के स्टोररूम में बड़ी मात्रा में कैश खासकर 500 रुपए के नोट मिले थे, जिनमें से कुछ आधे जले हुए थे।
सबसे हैरानी की बात यह है कि इतनी बड़ी घटना के बावजूद ना तो जस्टिस वर्मा और ना ही उनके परिवार ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई थी और ना ही किसी बड़े ज्यूडिशियल ऑफिसर को इसकी जानकारी दी थी। कमेटी ने इसे विचित्र व्यवहार बताया था।
कमेटी ने यह साफ किया कि जस्टिस वर्मा को जले हुए कैश की जानकारी ना होने का दावा करना एक अविश्वसनीय है। कमेटी ने सवाल किया, “अगर कोई साजिश थी, तो जस्टिस वर्मा ने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस या भारत के चीफ जस्टिस को सूचित क्यों नहीं किया?”
फायर और पुलिस कर्मियों ने भी बताया कि उन्होंने आग बुझाने के बाद स्टोररूम में 500 रुपये के नोटों का ‘बड़ा पहाड़’ देखा था। हालाँकि, घर के नौकरों ने कैश देखने से मना किया, पर कमेटी ने सरकारी अधिकारियों के बयानों को सच माना।
जाँच में यह भी सामने आया कि जिस स्टोररूम में आग लगी थी, उसका कंट्रोल केवल और केवल जस्टिस वर्मा और उनके परिवार के पास था। इसके अलावा घटना के बाद कथित तौर पर जला हुआ कैश ‘गायब’ हो गया और कमरा साफ कर दिया गया।
कमेटी ने कहा है कि जस्टिस वर्मा के निजी सचिव राजिंदर सिंह कार्की ने फायर ऑफिसर को कहा था, कि वे अपनी रिपोर्ट में कैश का जिक्र न करे। फायर सर्विस के ऑफिसर ने यह भी दावा किया था कि उन्हें इस मामले को आगे न बढ़ाने के लिए कहा गया था, क्योंकि इसमें ‘ऊपर के लोग शामिल थे।’
मामला क्या है?
मार्च 2025 में, दिल्ली में जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में आग लग गई थी। आग बुझाने के दौरान फायरफाइटर्स को स्टोररूम में जले हुए 500 रुपए के नोटों का एक बड़ा पहाड़ मिला था। इस घटना के बाद तत्कालीन CJI ने जस्टिस वर्मा पर आरोप लगाए थे।
फिर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जाँच के लिए एक कमेटी बनाई थी। जस्टिस वर्मा को इस घटना के कुछ ही दिनों बाद दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट ट्राँसफर कर दिया गया था। ऐसा करने पर कुछ वकीलों और लीगल वर्कर्स ने इसका विरोध किया था।
जस्टिस वर्मा पर क्या-क्या कार्रवाई हो चुकी है?
जस्टिस यशवंत वर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक 3 सदस्यीय जाँच कमेटी का गठन किया है। कमेटी ने 55 गवाहों से पूछताछ की और जस्टिस वर्मा का बयान दर्ज किया है। कमेटी ने अपनी 64 पेज की रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सौंपी थी, जिसमें जस्टिस वर्मा को पद से हटाने की सिफारिश की गई थी।
जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट ट्राँसफर कर दिया गया है, लेकिन उन्हें कोई ज्यूडिशियल काम नहीं सौंपा गया है। जस्टिस वर्मा ने अभी तक ना तो इस्तीफा दिया है और ना ही वॉलंटरी रिटायरमेंट लिया है।
अब संसद में उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने की संभावना जताई जा रही है, जो भारत में किसी सिटिंग जज को हटाने का पहला मामला होगा।
जस्टिस वर्मा ने जाँच को ‘फंडामेंटल रूप से गलत’ बताया है, लेकिन कमेटी ने उनके बचाव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ‘करेंसी नोट कई लोगों ने देखे और वास्तविक समय में रिकॉर्ड किए गए। यह असंभव है कि उन्हें फँसाने के लिए लगाया गया हो” कमेटी ने सबूत हटाने या घटनास्थल को साफ करने में उनकी बेटी और निजी सचिव की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं।
अब तक के बेस्ट जज वर्मा- कपिल सिब्बल
वरिष्ठ वकील और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने इस मामले में जस्टिस यशवंत वर्मा का बचाव किया है। मंगलवार (17 जून 2025) को सिब्बल ने जस्टिस वर्मा को ‘सबसे बेहतरीन जजों में से एक’ बताया और सरकार की इस कार्रवाई की आलोचना की है। सिब्बल का आरोप है कि सरकार का असली मकसद कॉलेजियम सिस्टम को खत्म करना और न्यायिक नियुक्तियों पर कंट्रोल पाना है।
सिब्बल ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह जस्टिस वर्मा के खिलाफ तो मामला चला रही है, लेकिन जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ ऐसी ही कार्रवाई नहीं कर रही है। जस्टिस शेखर यादव पर पिछले साल कुछ ‘सांप्रदायिक’ टिप्पणियों के आरोप लगे थे और उनके खिलाफ विपक्ष के सांसदों ने महाभियोग का नोटिस भी दिया था।
सिब्बल ने कहा, “मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूँ कि वह (वर्मा) सबसे बेहतरीन जजों में से एक हैं जिनके सामने मैंने बहस की है। आप हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी भी वकील से पूछ लें, इस जज पर कोई गलत काम करने का आरोप नहीं है।”
सिब्बल ने आगे कहा, “यह चौंकाने वाला है कि आप (सरकार) एक ऐसे जज को निशाना बना रहे हैं जिसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है और आप एक ऐसे जज की रक्षा कर रहे हैं जिसके खिलाफ सबूत की जरूरत नहीं है क्योंकि उनका बयान सार्वजनिक डोमेन में है और अध्यक्ष के पास एक महाभियोग प्रस्ताव लंबित है और वह हस्ताक्षर सत्यापन के लिए इस पर बैठे हैं।”
हालाँकि, सिब्बल के दावों के विपरीत, चीफ जस्टिस संजीव खन्ना को भेजी गई एक तीन-जजों की जाँच पैनल की रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि जस्टिस यशवंत वर्मा के तुगलक रोड वाले घर में 14 मार्च 2025 को बड़ी मात्रा में कैश मिला था।
खालिस्तानियों ने भारत के खिलाफ साजिश रचने के लिए कनाडा को पनाहगाह के तौर पर इस्तेमाल किया है। यह दावा कनाडा की खुफिया एजेंसी की एक रिपोर्ट में किया गया है। दावा है कि कनाडा की धरती से खालिस्तानी भारत को निशाना बना रहे हैं। खालिस्तानी कनाडा में रहकर फंडिंग जुटा रहे हैं, जिससे भारत में हिंसा की घटना को अंजाम दे रहे हैं।
बता दें कि भारत लंबे समय से इस मुद्दे पर चिंता जता रहा, जिसकी पुष्टि कनाडा की खुफिया एजेंसी (CSIS) ने कर दी है। CSIS ने बुधवार (18 जून 2025) को एक वार्षिक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में कनाडा की राष्ट्रीय सुरक्षा पर खास चिंताओं और खतरों को रेखांकित किया है।
कनाडा की खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट में खालिस्तान पर की गई टिप्पणी (साभार: CSIS)
साल 2024 की इस रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है, “खालिस्तानी चरमपंथी मुख्य रूप से भारत में हिंसा को बढ़ावा देने, धन जुटाने या योजना बनाने के लिए कनाडा को इस्तेमाल किया जा रहा है।”
रिपोर्ट में कनाडा स्थित खालिस्तानी चरमपंथियों (CBKE) के सक्रिय समूह का भी जिक्र किया है। यह समूह कनाडा में बैठकर भारत के पंजाब में खालिस्तान के स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य पर काम कर रहे हैं।
वहीं, इस रिपोर्ट में कनाडा ने पहली बार खालिस्तानी समूहों के लिए अधिकारिक रूप से ‘उग्रवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया है। कनाडा ने खालिस्तानी चरमपंथी को राष्ट्रीय की सुरक्षा के लिए खतरा बताया है।
साल 2023 में खालिस्तानी आतंकवादी की हत्या से बिगड़े संबंध
खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की 18 जून 2023 में हत्या के बाद कनाडा और भारत के संबंध बिगड़ गए थे। जहाँ कनाडा ने निज्जर की हत्या को भारत सरकार का हस्तक्षेप बताया था। इसका खंडन करते हुए भारत ने इन आरोपों को बेतुका और निराधार करार दिया था।
इसके बाद भारत ने कनाडा में अपने 6 राजनयिकों को भी वापस बुला लिया था, तब भी भारत ने कनाडा पर खालिस्तानी चरमपंथियों को पनाह देने और उनकी गतिविधियों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया था। अब जाकर कनाडा ने खालिस्तान पर पनाहगाह वाले आरोपों को स्वीकार कर लिया है।
भारत पर लगाया विदेशी हस्तक्षेप का आरोप
CSIS ने अपनी रिपोर्ट में भारत पर कनाडा में विदेशी हस्तक्षेप का भी आरोप लगाया है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत ‘ट्रांस नेशनल दमन’ यानी सीमा पार दमन में मुख्य भूमिका निभाता है। रिपोर्ट में चीन को कनाडा के लिए सबसे बड़ा सीक्रेट खतरा बताया गया। इसके अलावा रूस, ईरान और पाकिस्तान का भी नाम लिया है।
रिपोर्ट में लिखा गया कि कनाडा को भारत सरकार के जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक समुदायों के साथ कनाडा की राजनीतिक प्रणाली में जारी विदेशी हस्तक्षेप के लिए सतर्क रहना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया है, “कनाडा स्थित उनके प्रॉक्सी एजेंटों सहित भारतीय अधिकारी कई तरह की गतिविधियों में शामिल हैं, जो कनाडाई समुदायों और राजनेताओं को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।”
भारत-कनाडा के प्रधानमंत्री ने की मुलाकात
कनाडा की खुफिया एजेंसी (CSIS) की यह रिपोर्ट उस वक्त सामने आई है, जब हाल ही में कनाडा के पीएम मार्क कार्नी और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुलाकात की। मंगलवार (18 जून 2025) को जी-7 शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के प्रधानमंत्री ने आपसी संबंधों को मजबूत करने की शपथ ली।
राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) ने कोयंबटूर कार बम ब्लास्ट में 4 और आरोपितों की गिरफ्तारी कर ली है। गिरफ्तार किए गए आरोपितों के नाम अहमद अली, जवाहर सातिक, राजा अब्दुल्ला उर्फ एमएसी राजा और शेख दाऊद के रूप में हुई है। इस मामले में अब तक कुल 8 गिरफ्तारियाँ हो चुकी हैं।
4 More Accused Arrested by NIA in TN Radicalisation and Recruitment Case Involving Kovai Arabic College pic.twitter.com/fEkSZFAKQe
इन गिरफ्तारियों से एक बड़े आतंकी भर्ती नेटवर्क का पर्दाफाश हुआ है, जिसमें मद्रास अरबी कॉलेज के संस्थापक जमील बाशा का नाम भी शामिल है। NIA का दावा है कि आरोपितों ने तमिलनाडु के युवाओं को भड़काकर आतंकी गतिविधियों के लिए तैयार किया जा रहा था।
बाशा, जिसे पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका है, अरबी भाषा की कक्षाओं की आड़ में सलाफी-जिहादी विचारधारा फैला रहा था। उसका मकसद ‘जिहाद के ज़रिए खिलाफत बनाना’ और भारत की लोकतांत्रिक सरकार को हटाकर इस्लामिक शासन लागू करना था।
कोयंबटूर धमाका: क्या है ISIS कनेक्शन?
अक्टूबर 2022 में कोयंबटूर में एक कार में धमाका हुआ था। इसमें जमीशा मुबीन नाम का शख्स मारा गया था। भारत की जाँच एजेंसी NIA का कहना है कि यह धमाका एक आतंकी ग्रुप की लोगों को कट्टरपंथी बनाने की कोशिशों का नतीजा था।
शुरुआत में लगा था कि मुबीन एक पुराने मंदिर को उड़ाना चाहता था, लेकिन सूत्रों से पता चला है कि उसका असली मकसद शहर के बीच में जाकर ज़्यादा तबाही मचाना था। उसने पुलिस चौकी देखकर मंदिर के सामने गाड़ी रोकी, और फिर गैस लीक होने से धमाका हो गया।
मुबीन की लाश से 7 लोहे की पिन मिली थीं। उसके घर की तलाशी और उसके शरीर पर लिखी बातों से साफ हुआ कि वह इस्लामिक स्टेट (ISIS) नाम के आतंकी संगठन की सोच से जुड़ा था। वह लोगों को ‘मुस्लिम’ या ‘काफ़िर’ (गैर-मुस्लिम) में बाँटकर ‘जिहाद’ (धर्म युद्ध) की बात करता था।
जाँच और आगे की कार्रवाई
NIA (राष्ट्रीय जाँच एजेंसी) ने 30 अक्टूबर 2022 को इस धमाके की जाँच शुरू की थी। शुरुआत में इस मामले में पहले भी कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिनके नाम मुहम्मद तालका, मोहम्मद अजहरुद्दीन, मोहम्मद रियाज, फिरोज इस्माइल और मोहम्मद नवाज इस्माइल थे।
NIA का मानना है कि यह सब भारत के खिलाफ आतंकी सोच फैलाने की साजिश है और वे इसकी पूरी गहराई से जाँच कर रहे हैं। उनका मकसद है कि तमिलनाडु पुलिस और बाकी खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर इस आतंकी ग्रुप को पूरी तरह से खत्म किया जाए। NIA ने यह भी बताया है कि अभी और गिरफ्तारियाँ हो सकती हैं।
दक्षिण भारत में आतंकी गतिविधियाँ
पिछले कुछ सालों से भारत की जाँच एजेंसी NIA साउथ इंडिया के कई राज्यों में आतंकवाद से जुड़े मामलों की जाँच कर रही है।
जनवरी 2023: केरल के कोल्लम से PFI (एक प्रतिबंधित संगठन) का एक रिपोर्टर मोहम्मद सादिक पकड़ा गया। यह शख्स गैर-मुस्लिमों (जिन्हें वे ‘काफिर’ कहते हैं) की जानकारी इकट्ठा करता था।
दिसंबर 2022: केरल से PFI का वकील मोहम्मद मुबारक गिरफ्तार हुआ। यह चरमपंथियों को गला काटने जैसी खतरनाक ट्रेनिंग दे रहा था।
जुलाई 2019: तमिलनाडु में वाहदत-ए-इस्लामी हिंद नाम के एक कट्टरपंथी संगठन का पर्दाफाश हुआ और इसके 14 संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया। इस संगठन का मकसद भारत को एक इस्लामिक देश बनाना था। ये सभी घटनाएँ बताती हैं कि दक्षिण भारत में कट्टरपंथी सोच को फैलाने और युवाओं को आतंकी कामों में शामिल करने की लगातार कोशिशें हो रही हैं।
केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि अगले तीन सालों में भारत का फिनटेक मार्केट ₹3.5 लाख करोड़ की हो जाएगी। उन्होने फिनटेक बाजार में सालाना 30 फीसदी वृद्धि की उम्मीद जताई है।
वित्त मंत्री ने कहा कि भारतीय फिनटेक इनोवेशन में विश्वस्तरीय क्वालिटी उत्पाद बनाने की क्षमता है। फिनटेक कंपनियाँ देश के ग्रामीण क्षेत्रों को न केवल एक सामाजिक जिम्मेदारी की तरह लें, बल्कि नए बाजार अवसर के रूप में भी देख सकते हैं। इन कंपनियों को अब ‘मेक इन इंडिया’ के साथ-साथ ‘मेक फॉर द वर्ल्ड’ भी बनना चाहिए।
वित्त मंत्रालय ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा, ‘‘सीतारमण ने आश्वासन दिया कि सरकार फिनटेक उद्योग को समर्थन देना जारी रखेगी।’’
Smt @nsitharaman interacted with Founders, CEOs and senior leaders of various Fintech companies during the Digital Payments Awards 2025 in New Delhi.
She assured that the government will continue to support Fintech industry.
— Nirmala Sitharaman Office (@nsitharamanoffc) June 18, 2025
डिजिटल पेमेंट्स अवॉर्ड्स 2025 देने के मौके पर उन्होने कहा, भारत में फिनटेक क्रांति और भी फलेगी-फूलेगी। इस क्षेत्र में ‘काफी बड़ा’ अवसर अभी भी हैं। उन्होंने कहा, “मेरा विश्वास है कि इसके सर्वश्रेष्ठ अध्याय अभी लिखे जाने बाकी हैं।” उन्होने सभी नागरिकों को इससे जोड़ने और दुनिया को दिशा देने का आह्वान किया।
विश्व बैंक के एक रिपोर्ट का हवाले देते हुए उन्होंने कहा कि डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर के जरिए भारत पिछले 6 साल में 80 फीसदी वित्तीय समावेशन दर हासिल की है। वित्त मंत्री ने कहा, ” भारत अब डिजिटल भुगतान के लेनेदेन का करीब आधा हिस्सा यानी 48.5 फीसदी यूपीआई से कर रहा है” इतना ही नहीं दुनियाभर में 35 करोड़ से ज्यादा यूजर यूपीआई इकोसिस्टम का इस्तेमाल कर रहे हैं। दुनिया के कई देश जैसे भूटान, फ्रांस, मॉरीशस, नेपाल, सिंगापुर,श्रीलंका और यूएई अब यूपीआई का इस्तेमाल कर रहे हैं।
वित्त मंत्री के मुताबिक भारत में जितना इनोवेशन हो रहा है वो दूसरे देशों के लिए सपने से कम नहीं है। उन्होंने कहा, “कई उन्नत देश हमारी फिनटेक कंपनियों द्वारा बनाए गए रफ्तार के करीब भी नहीं हैं, यह भारतीय फिनटेक क्षेत्र के लिए बहुत ही काबिले तारीफ है,”
भारत की कंपनियों और एक्सपोर्टरों का लक्ष्य अब ग्लोबल मार्केट पर कब्जा होना चाहिए। हमारे पास टैलेंट है, उच्च मापदंड और हर समस्या का समाधान मौजूद हैं।
कोरोना महामारी के दौरान ऑनलाइन पेमेंट ऐप लाइफलाइन बन गयी। जब सभी अपने घर में बंद थे और बाहर सुनसान था तो बगैर संपर्क में आए भुगतान और डोरस्टेप बैंकिंग को मजबूत किया गया। उन्होंने कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के अनुसार, भारत का डिजिटल भुगतान सूचकांक, जो डिजिटल भुगतान के समग्र उपयोग को मापता है, पिछले पाँच वर्षों में चौगुना हो गया है, 2018 में 100 से 2024 में 465 तक। दुनिया के सभी डिजिटल भुगतान लेनदेन का 48.5% से अधिक भारत में होता है। 35 करोड़ से अधिक यूजर्स UPI का इस्तेमाल करते हैं।