RSS और भाजपा की छवि धूमिल करने के प्रयासों में एक बार फिर से बीबीसी के झूठ का पर्दाफाश हुआ है। बीबीसी ने एक बार फिर अपनी खबर को एंगल देने के लिए आरएसएस को बदनाम करने की कोशिश की है। अब ये चाहे उसने अपने अजेंडे के तहत किया हो या फिर अज्ञातनावश, लेकिन एक बार फिर स्पष्ट हुआ है कि बीबीसी अपनी रिपोर्टों के जरिए हिंदूवादी संगठनों को बदनाम करने के लिए इतना आतुर है कि वो भूल चुका है, खबर में किसी तथ्य की पुष्टि करने से पहले उसके बारे में खँगालना पत्रकारिता का मूल धर्म है।
दरअसल, कुछ समय पहले एक खबर आई कि दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने पर चिंता जाहिर की। साथ ही इस संबंध में केंद्र सरकार और राज्य सरकार को फटकार भी लगाई गई। जिसपर भारतीय किसान यूनियन की ओर से प्रतिक्रिया दी गई है। उनकी ओर से पंजाब के महासचिव हरिंदर लाखोवाल ने अपने बयान में कहा कि हम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपने लिए सब्सिडी माँग रहे हैं जब तक किसानों के खाते में सब्सिडी नहीं आएगी तब तक हम ऐसे ही पराली जलाते रहेंगे।
अब चूँकि प्रदूषण मुद्दे पर इतना गैर-जिम्मेदाराना बयान आया तो इस पर हर मीडिया हाउस में रिपोर्ट की जानी आम बात है। लेकिन बीबीसी ने इस पूरी रिपोर्ट को करके आखिर में अपनी अजेंडापरस्त पत्रकारिता का फिर उदाहरण दे दिया। दरअसल, रिपोर्ट के अंत में लिखा गया कि ‘भारतीय किसान यूनियन’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध संगठन है। जबकि वास्तविकता में ये संगठन आरएसएस से जुड़ा हुआ ही नहीं है।
हालाँकि, ये बात सच है कि आरएसएस से किसानों का बहुत बड़ा संगठन जुड़ा हुआ है, लेकिन उसका नाम भारतीय किसान यूनियन नहीं है, बल्कि भारतीय किसान संघ है। जिसकी स्थापना श्री दत्तोपंथ जी थेंगड़ी द्वारा 4 मार्च 1979 में की गई थी।
जबकि भारतीय किसान यूनियन की स्थापना चौधरी महेंद्र सिंह टिकैट द्वारा की गई थी। जिसकी पुष्टि स्वयं भारतीय किसान संघ ने पिछले साल अपने एक बयान में की थी और बताया था कि दोनों संगठन अलग-अलग हैं।
अब ये कहा जा सकता है कि प्रथम दृष्टया, इन दोनों संगठनों के नाम में समानता के कारण इनमें फर्क़ समझना थोड़ा कठिन है क्योंकि ‘यूनियन’ का हिंदी पर्याय ‘संघ’ ही होता है। इसके अलावा इंटरनेट पर भारतीय किसान यूनियन डालने पर भी आरएसएस से जुड़े संगठन यानी भारतीय किसान संघ का ही पेज खुलता है। जिसका तकनीकी कारण, दोनों शब्दों का लगभग एक जैसा मिलना या फिर आरएसएस से जुड़े इस संघ का गूगल पर ज्यादा सर्च किया जाना हो सकता है। इसलिए, मुमकिन है कि ये गलती किसी पत्रकार से अज्ञानतवश या हड़बड़ी में हुई हो।
लेकिन, ऐसी स्थिति में भी बीबीसी को ये समझने की जरूरत है कि जब आप किसी मामूली खबर में जबरन अपने संस्थान के अजेंडे को परोसने की कोशिश करते हैं, तब ये गलती भूल नहीं, उतावलापन कहलाती है। उस समय साफ पता चलता है कि ये जल्दबाजी में किसी की छवि धूमिल करने का एक प्रयास है। इसके लिए जरूरी है कि रिपोर्ट में झूठी पुष्टि करने से पहले तथ्यों की छानबीन की जाए। ताकि पाठक और विरोधी आप पर, आपकी पत्रकारिता पर, आपके संस्थान की नीतियों पर सवाल न उठा पाएँ?
बता दें कि बीबीसी की भाँति ही हिंदी मीडिया के जाने-माने संस्थान जनसत्ता ने भी इस खबर को इसी एँगल से पेश किया है।
अब जब सारा सच सामने है तो यह कहा जा सकता है कि एजेंडाबाजी की आड़ में बीबीसी जैसे बड़े संस्थान फेक न्यूज़ या मनचाहा ट्वीस्ट देने के अड्डे बनते जा रहे हैं। उस पर मजेदार बात यह है कि पकड़े जाने पर भी न माफ़ी माँगते हैं और न ही जल्दी भूल-सुधार करते हैं।