‘द टेलीग्राफ’ ने दावा किया कि केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कॉन्ग्रेस सरकार के अध्यक्ष राहुल गांधी के ‘मैनहुड’ (Manhood) पर सवाल किए हैं। जबकि यदि हक़ीक़त पर गौर किया जाए, तो किन्हीं भी मायनों में स्मृति ईरानी ने ऐसी कोई भी बात नहीं कही।
दरअसल, किसी की कही बात को दूसरी दिशा दिखाकर अपने पाठकों को बरगलाना बेहद आसान होता है, लेकिन पूरी बात बताने से न जाने क्यों आजकल के मीडिया संस्थान कतराने लगे हैं। स्मृति ईरानी की जिस बात पर ‘द टेलीग्राफ़’ ने इतनी बड़ी बात कह दी, वो वास्तव में कुछ और ही थी। उन्होंने कहा था कि बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह अपने ‘पुरूषार्थ’ के दम पर पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुँचे हैं, जबकि राहुल गाँधी को पार्टी के अध्यक्ष होने का पद उनकी माँ की वज़ह से मिला है। अब इसमें स्मृति ईरानी की क्या गलती है, अगर ‘द टेलीग्राफ़’ जैसा अखबार अपने अनुवादकों की काबिलियत देखे बिना उन्हें ट्रांस्लेटर की पोस्ट दे देते हैं! या शायद हिन्दी की समझ इतनी बेकार है कि ‘पुरुष’ से बने शब्दों को वो लिंग से आगे सोच नहीं पाते!
‘द टेलीग्राफ’ की यह रिपोर्टिंग जिसमें उन्होंने ‘पुरूषार्थ’ की व्याख्या करते हुए ‘मैनहुड’ शब्द का इस्तेमाल किया, न सिर्फ़ गलत है, बल्कि बेहद शर्मनाक भी।
हिन्दुत्व की कम से कम जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी इस बात को बहुत बेहतरीन तरीके से जानता है, कि पुरूषार्थ का तात्पर्य व्यक्ति द्वारा किए गए सद्कर्म से है न कि पौरुष से। हिन्दू धर्म में 4 पुरूषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। स्मृति ईरानी ने इसी संदर्भ में कहा था कि अमित शाह पार्टी के अध्यक्ष अपने निजी आचरण और अपनी निष्ठा के कारण बने हैं जबकि राहुल का पद उन्हें वंशवाद की वज़ह से मिला है।
पुरूषार्थ को ‘मैनहुड’ बताने वाले एलिटिस्टों की इस गलती से साफ़ मालूम पड़ता है कि उन्हें हिन्दू धर्म और उससे जुड़े सांस्कृतिक शब्दों के बारे में इतनी भी जानकारी नहीं है कि वो ‘पुरूषार्थ’ जैसे प्रचलित शब्द का सही अर्थ खोज सकें। या, यह भी संभव है की अपने अंध-विरोध में वो जानबूझकर ऐसी भ्रामक बातें लिखते हैं। ‘द टेलीग्रॉफ़’ की इस हरकत से ऐसा लगता है, जैसे उदारवादियों के साथ मिलकर वो सिर्फ इधर-उधर की बेकार बातों पर ध्यान देते में ही अस्त-व्यस्त है।
‘पुरूषार्थ’ को ‘मैनहुड’ कहने वाले ऐसे ही लोग और संस्थान सबरीमाला जैसे संवेदनशील मामले को केवल माहवारी से जोड़ कर देख पा रहे हैं, इनके लिए सबरीमाला विवाद पर कोई और नज़रिए या तर्क खुल ही नहीं रहे हैं। ऐसे ही लोगों के लिए इलाहाबाद के प्रयागराज दोबारा कहे में दिक्कत है। ये मात्र एक गलती नहीं हैं जिसने किसी की छवि बिगाड़ने का प्रयास किया हो। आज ऐसे ही अनेकों किस्म के बयानों को अधूरा और गलत तरीके से पेश करना ही मीडिया के कई अन्य संस्थानों की पहचान होती जा रही हैं, इन लोगों के लिए मात्र सेक्शुएलिटी और यौन सम्बंधों पर बात करना उदारवादी होने का मापदंड है। बेहद शर्म की बात है कि ये उदारवादी लोग अपनी ही भाषा के सांस्कृतिक शब्दों का अर्थ समझने में असमर्थ हैं।