इतिहासकार रामचंद्र गुहा, पत्रकार आशुतोष (गुप्ता, वही आम आदमी पार्टी वाले), कॉन्ग्रेस पार्टी (व उसका वृहत्तर इको-सिस्टम), बॉलीवुड, 80%+ भारतीय बौद्धिक वर्ग, और (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्यारोहण के बाद से) भाजपा-संघ- इन सब में क्या समानता है?
मोहनदास करमचंद गाँधी इन सब के मानक (model) हिन्दू हैं।
अगर इनमें से किसी को भी अपने विरोधी के हिन्दू होने पर प्रश्न उठाना होता है तो वे फटाक से “अगर महात्मा गाँधी होते तो क्या वे आपकी इस बात का समर्थन करते?” की मिसाइल दाग देते हैं। गोया गाँधी जी की शाबाशी ही हर हिन्दू के जीवन का अंतिम ध्येय है!
गाँधी जी का भारत राष्ट्र-राज्य के निर्माण में योगदान निःसंदेह महत्वपूर्ण है। सत्य के प्रति उनका आग्रह यानि सत्याग्रह की बेशक भारत की आज़ादी में भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। पर ‘कोबिगुरू’ रबीन्द्रनाथ टैगोर से ‘महात्मा’ की उपाधि पाने वाले गाँधी का दर्शन भारतीय प्रचलन, आध्यात्म, और परम्पराओं से उतना ही दूर है जितना तेल पानी की प्रकृति से दूर होता है।
आधुनिक हिन्दू की आत्मा और उसके विश्वदर्शन को वेदों-उपनिषदों-महापुराणों, पतंजलि के योग सूत्रों, श्रीकृष्ण की गीता आदि से जोड़ने वाले गाँधी जी नहीं, श्री ऑरोबिन्दो और स्वामी विवेकानंद थे। और प्रमुखतम विषयों पर उनके विचारों का गाँधी जी से कोई साम्य नहीं था- दूर-दूर तक नहीं।
अहिंसा
गाँधी जी ने जितना दुरूपयोग ‘अहिंसा’ शब्द का किया, भारतीय राजनीति में उतना दुरुपयोग शायद ही, कभी भी, किसी भी शब्द या सिद्धांत का हुआ होगा। अहिंसा को उसके भावार्थ और परिप्रेक्ष्य के बिना literally प्रयोग करना शुरू कर दिया। न केवल खुद किया बल्कि दूसरे (केवल) हिन्दुओं के लिए भी अनिवार्य कर दिया। यहाँ तक कि जिस भगवद्गीता का उद्देश्य ही अर्जुन को युद्ध और धर्मोचित वध के लिए प्रेरित करना था, उसे भी गाँधी जी ने पता नहीं किस कोण से तोड़-मरोड़कर उसमें भी हिंसा को हर परिस्थिति में नकारने की सीख तलाश ली। और खुद के लिए ही नहीं तलाशी, बल्कि हिन्दुओं के गले भी जबरन बाँधने लगे।
नतीजन हिन्दुओं में जहाँ यथोचित हिंसा के लिए भी घृणा उत्पन्न हुई, वहीं दूसरे समुदाय (खासकर कि मुस्लिम) हिन्दुओं में इसी पलटवार की क्षमता के ह्रास के बल पर बढ़ते चले गए। इसी बढ़त की चरम परिणति थी 1947 का नरसंहार।
इसी के उलट थे श्री ऑरोबिन्दो और स्वामी विवेकानंद के विचार।
स्वामी विवेकानंद से जब अहिंसा के बारे में उनके विचार पूछे गए तो उन्होंने साफ कहा कि शत-प्रतिशत अहिंसा केवल सन्यासियोंके लिए उचित है; गृहस्थ के लिए आत्मरक्षा सर्वोपरि है। जीएस बाणहट्टी की किताब ‘लाइफ एण्ड फ़िलॉसॉफ़ी ऑफ़ विवेकानंद’ के अनुसार विवेकानंद से जब पूछा गया कि यदि कमज़ोर को ताकतवर के हाथों शोषित देखें तो क्या करना चाहिए, तो उन्होंने कहा, ‘(शोषक को) पीटना चाहिए, और क्या?’
अपने ग्रन्थ ‘एसेज़ ऑन गीता’ (गीता पर निबंध) में श्री ऑरोबिन्दो लिखते हैं (अनूदित), “यदि आपका केवल आत्म-बल आसुरिक शक्ति को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है और इसके बाद भी आप शारीरिक प्रतिरोध नहीं करते, तो असुर बिना किसी विरोध के मनुष्यों और राष्ट्रों को कुचलता आगे बढ़ता है, विनाश करता है, हत्याएँ करता है, सब कुछ बहुत आसानी से नष्ट-भ्रष्ट कर देता है, और आपकी अहिंसा दूसरों की हिंसा जैसी ही तबाही करती है।”
हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध
गाँधी जी हिन्दुओं और सम्प्रदाय विशेष को अपनी दो आँखें कहते थे, यह तो बड़ी अच्छी थी, पर जब एक आँख दूसरी आँख के विनाश को आमादा थी तो गाँधी जी का हिन्दुओं के प्रति सौतेला व्यवहार घोर निराशाजनक था।
न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी खबर के अनुसार गाँधी जी ने हिन्दुओं से कहा कि वे (दंगों से बचने के लिए) नोआखली छोड़ दें या क़त्ल हो जाएँ। 6 अप्रैल, 1947 को नई दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा, “…अगर मुस्लिम हम सभी (हिन्दुओं) की हत्या कर देना चाहते हैं तो हमें ‘वीरतापूर्वक’ मृत्यु स्वीकार कर लेनी चाहिए। यदि वे हम सबको मारकर अपना राज स्थापित करना चाहते हैं तो हम अपने प्राणों को उत्सर्ग कर उन्हें एक नई दुनिया में पहुँचाएँगे…”
(Collected Works of Mahatma Gandhi, Vol. 94 page 249)
क्या कोई बता सकता है कि उन्होंने मुस्लिमों को भी ऐसी ही कोई सलाह दी हो?
वहीं श्री ऑरोबिन्दो ऐसी कोई अव्यवहारिक राय नहीं रखते थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रश्न पर उन्होंने कहा(अनूदित), “जिस मज़हब/पंथ के सिद्धांत में सहिष्णुता हो, उसके साथ (बेशक) शांति के साथ रहा जा सकता है। पर उनके साथ शांति के साथ रह पाना कैसे संभव है जिनका सिद्धांत ही ‘मैं तुम्हें (अपने से भिन्न ईश्वर के तुम्हारे विचारों को) नहीं सहूँगा’ है? ऐसे व्यक्तियों के साथ एकता कैसे संभव है?”
‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका के संपादक से वार्तालाप में स्वामी विवेकानंद ने भी साफ कहा कि वह इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद से बहुत प्रभावित नहीं हैं। वह मुहम्मद के प्रशिक्षित योगी न होने की भी बात कहते थे, और कहते थे कि चरमपंथी तरीकों से नुकसान ही अधिक हुआ है।
ऐसा नहीं है कि ऑरोबिन्दो-विवेकानंद व्यक्तिगत मुस्लिमों से व्यक्तिगत हिन्दुओं के संघर्ष का समर्थन करते थे- वे दोनों इसके खिलाफ थे। पर वे इस्लाम और हिंदुत्व में निहित नैसर्गिक विरोधाभासों को साफ-साफ देखते समझते थे (गाँधी जी के उलट), और हिन्दुओं को केवल इसके प्रति सदा सजग रहने की सलाह देते थे।
आंतरिक दमन व ‘हिंसा’ पर था गाँधी जी का जोर
गाँधी जी के आत्मकथ्यों को यदि कोई निष्पक्ष भाव से पढ़े तो यह साफ हो जाएगा कि स्व-दमन ही गाँधी जी के सारे अजीबोगरीब सिद्धांतों का मूल था। और यह क्रूर था, निष्ठुर था, बलात् था। खुद को हिन्दू मानते हुए भी हिन्दुओं से कट जाने की अपील भी इसी दमन का बाह्य, सार्वजनिक अभिव्यक्ति थी- और उनके अन्य ‘प्रयोग’, जिनमें विवाहित युगलों को शारीरिक सम्बन्ध न बनाने की सीख शामिल हैं, इसी विचार के अन्य व्यक्त स्वरूप थे। यह नैतिकता का चरमपंथ था।
और, स्व-दमन व चरमपंथी नैतिकता कभी भी हिन्दू दर्शन नहीं रहे। विवेकानंद सन्यासी होते हुए भी धूम्रपान करते थे, मटन खाते थे– उनके गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस भोजन के शौकीन थे। हिन्दू दर्शन बाह्य, जबरिया, इच्छा होते हुए भी स्थायी त्याग का कभी नहीं रहा। स्थायी त्याग तभी किया जाता था जब इच्छा (वासना) समाप्त हो जाती थी।
समय है बदलाव का
उपरोक्त उदाहरण केवल राजनीति पर आधारित हैं- यदि राजनीति छोड़ और गहरे जाएँगे तो गाँधी जी का दर्शन और भी अहिंदू होता जाता है। इसका यह अर्थ नहीं कि भारत के राजनीतिक इतिहास में गाँधी जी का एक विशेष, महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। बिलकुल है। सौ बार है।
पर समय आ गया है कि गाँधी जी के मापदण्ड पर हिन्दुओं का, या किसी के हिंदुत्व का, आकलन बंद किया जाए। यदि किसी के हिंदुत्व का आकलन होना ही है तो वह श्री ऑरोबिन्दो और स्वामी विवेकानंद के मानक पर किया जाए।