पत्रकारिता के स्वघोषित चरम मानदंड ने, जो बराबर किसी न किसी अंग्रेज़ी प्रोपेगेंडा का अनुवाद हिन्दी में अपने वाल पर डालते रहते हैं ये कहकर कि हिन्दी पत्रकारिता ने हिन्दी पाठकों का नुकसान ही किया है, आज ‘द हिन्दू’ की चिरकुटई (जो आधे घंटे में धो कर सुखा दी गई) का अनुवाद किया।
चूँकि सरकार के ख़िलाफ़ वाली बात थी, तो हमेशा की तरह ख़बर या ख़ुलासे ‘चौंका देने वाले’ से लेकर अब ‘सन्न कर देने’ वाले तक पहुँची है। रवीश जी आजकल हर फ़र्ज़ी ख़बर का अनुवाद करते हुए सन्न हो जाते हैं, चौंक जाते हैं, अघोषित आपातकाल देखने लगते हैं, या छत पर जाकर बार-बार देखने लगते हैं कि एनडीटीवी का केबल तो अमित शाह काट नहीं रहा!
जस्टिस लोया वाली बात पर सुप्रीम कोर्ट के जवाब आने के बाद इन्होंने कोई आर्टिकल नहीं लिखा। अमित शाह के बेटे पर सवाल उठाने वाले आर्टिकल का भी अनुवाद करने के बाद इन्होंने उसके फ़र्ज़ी और ‘स्पिन-फ़्रेंडली’ पाए जाने पर कुछ ज्ञान नहीं दिया। कारवाँ द्वारा अजित डोभाल के बेटे पर सवाल उठाने वाले फ़र्ज़ीवाड़े का भी अनुवाद करने के बाद इन्होंने कोई माफ़ी नहीं माँगी।
चलिए माफ़ी भी मत माँगिए, लेकिन ये तो लिख ही सकते हैं कि चौंकाने और सन-सननन-साँय-साँय कराने से लेकर ‘बताता है कि इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं’ वाले लेख को सत्य मानकर आपने जो ब्रह्मज्ञान अपने फ़ेसबुक वाल और प्राइम टाइम में दिया, उस पर लेटेस्ट ये चल रहा है। जब आदमी कोर्ट में केस करता है तो फिर आप ‘फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन’ पर आ जाते हैं, प्रेस फ़्रीडम पर अटैक दिखने लगता है आपको!
मतलब, आपने जो लिख दिया वही अंतिम सत्य है, और एक नागरिक को कोर्ट जाने का भी अधिकार नहीं क्योंकि आपने उस आर्टिकल का अनुवाद किया है? या आपको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के जज तभी तक कंपीटेंट हैं जब तक वो आपके मतलब की बातें करते हैं, और बाकी समय वो बेकार हो जाते हैं? ये किस तरह का अप्रोच है?
आप आधे समय टीवी नहीं देखने की बात करते हैं, और यह भी बताते हैं कि टेलिग्राफ़ का घटिया शीर्षक कैसे नए पत्रकारों के लिए सीखने लायक है। जबकि आपको पता है कि वो सीखने लायक नहीं, खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचे से आगे कुछ भी नहीं है।
आज भी आपने राफ़ेल वाले मुद्दे पर एन राम के लेख का अनुवाद करते हुए आपने विस्तार से लिख दिए। आधे घंटे में सरकार ने, उस नेगोशिएशन टीम ने और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने ख़ारिज कर दिया। यही नहीं, आपके सामने भी तो उसी सोशल मीडिया पर उस नोट का पूरा भाग आया होगा, क्या आपने उसी नोट का सही हिस्सा कभी लगाया अपने वाल पर?
या आपको लगता है कि आपने जो लिख दिया वो लिख दिया? क्या आपकी बुद्धि इतनी क्षीण पड़ गई है कि आपको ये पता नहीं चल रहा कि ‘द हिन्दू’ ने जानबूझकर ऊपर और नीचे के हिस्सों को क्रॉप कर दिया था? क्या आपने कहीं ये लिखा कि इससे एन राम की विश्वसनीयता पर सवाल उठता है?
आपने नहीं लिखा, क्योंकि वो आपको सूट नहीं करता। हो सकता है आप शाम में प्राइम टाइम भी कर दें, और ये साबित करने में तैंतीस मिनट निकाल दें कि ‘अगर इतना कुछ हो रहा है तो जाँच क्यों नहीं करा लेती सरकार’? जबकि, आपको अच्छे से पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपना निर्णय दे दिया है। आपको अच्छे से पता है कि रक्षा मसलों को पब्लिक में गोपनीयता और द्विपक्षीय संधियों के कारण नहीं रखा जा सकता।
लेकिन इससे आपका मन नहीं भरता। क्योंकि आप लगातार झूठ की चाभी टाइट करके अपने करियर को रेंगने के लिए ऊर्जा दे रहे हैं। जब पूरे भारत में बिजली आती है तो आप चौंतीस मिनट बताते हैं कि तीन गाँव में तो नहीं आई। इस बात पर आप तीन मिनट ही बोलते कि ‘सरकार का दावा गलत है, लेकिन बिजली पहुँचाना एक बहुत बड़ी बात है’, तो भी समझ सकता था।
झूठ बोल कर निकल लेना आपकी आदत और मजबूरी दोनों ही है। आप आज के प्राइम टाइम में फिर से यही बात कहेंगे कि ‘जाँच से पीछे क्यों हट रही है सरकार’। आपको देखने वाले रवीश भक्त भी सोशल मीडिया पर बवाल काट देंगे कि ‘हाँ भाई, जाँच से क्यों भाग रही है सरकार’। जबकि आप जानते हैं, आप ये कहते रह सकते हैं, क्योंकि जो जाँच होनी थी वो हो गई, बस आपको मैग्निफाइंग ग्लास लेकर राफ़ेल के कॉकपिट में राहुल गाँधी के साथ बुलाना रह गया है!
पत्रकारिता सरकार के विरोध में ही नहीं होती, पत्रकारिता समाज को सूचित करने को कहते हैं। सरकार की ख़ामियों को भी बताइए, और उपलब्धियों को भी। उपलब्धियों के प्रतिशत में हेर-फेर लगे तो बत्तीस मिनट उपलब्धि पर बोलकर, तीन मिनट बताइए कि डेटा गलत दे रही है सरकार। मैं अब ये नहीं कहता कि मैं रवीश का प्राइम टाइम देखा करता था, क्योंकि अब आपने सुधरने की उम्मीद छोड़ दी है। मतलब, संभावना नहीं दिखती।
आपको तो अनुभव है इतना कि आप पत्रकारिता की नई परिभाषा गढ़ सकते हैं। एन राम जैसे लोगों का पतन देखकर लगता है कि पत्रकारिता विचारधारा से ऊपर कभी नहीं उठ सकती। ये लोग स्तम्भ हुआ करते थे, लोग आपके रिपोर्ट की क़समें खाते थे, आईएएस बनने की इच्छा रखने वाले इसी ‘हिन्दू’ को पढ़कर इंटरव्यू में कोट करते थे।
अब यही एन राम, यही हिन्दू और यही रवीश कुमार हर दिन ऐसे कारनामे कर रहे हैं कि मुझे कोई कल को पूछे कि पत्रकारिता में क्या नहीं करना चाहिए तो इनके नाम बताने में झिझक नहीं होगी। आप और आपका गिरोह पत्रकारिता के नाम पर कलंक है। आप टीवी पर आने वाले एक अवसादग्रस्त व्यक्ति हैं, पत्रकार नहीं।
आपको आयुष्मान योजना का लाभ लेकर मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए, उसके बाद अपने पुराने संस्थान में लौटकर, नए लोगों से बात करनी चाहिए। और अंत में अपनी ही रिपोर्ट देखनी चाहिए जो आपने नौकरियों पर की, एसएससी पर की, गाँवों पर की, राजनीति पर की। आप वो कार्यक्रम देखिएगा जो आपने राजनीति पर की, न कि किसी नेता या पार्टी पर।