अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और अरुण शौरी जैसों ने पत्रकारिता से राजनीति में क़दम रखा और नए मानक स्थापित किए। लेकिन, पत्रकार से नेता बने दो चेहरे ऐसे भी हैं जिन्होंने इनके ठीक उलट प्रतिमान स्थापित किए हैं। इनमें से एक ने अपने नेता को ‘धोबी का कुत्ता’ बना दिया तो दूसरे को उसके नेता ने ‘धोबी का कुत्ता’ बना दिया।
एक देश की राजधानी में राजनीति करना चाहता था तो दूसरा देश की आर्थिक राजधानी में राजनीति या उसे जो भी कह लीजिए, कर रहा है। अपने नेता उद्धव ठाकरे को ‘धोबी का कुत्ता‘ बनाने वाले पत्रकार का नाम है संजय राउत। वहीं जिन्हें उनके नेता अरविन्द केजरीवाल ने ही ‘धोबी का कुत्ता’ बना दिया, उनका नाम है आशुतोष। राउत पत्रकार भी हैं और राजनेता भी। आशुतोष पत्रकार थे, राजनेता बने और अब फिर पत्रकार हैं। राजनीति का सत्यानाश होने के बाद अब वो ‘सत्यहिंदी’ चलाते हैं। वहीं जिस राउत के कारण महाराष्ट्र आज इस राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है, वो ‘सामना’ के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं।
दोनों में एक और चीज कॉमन है। वो है- राज्यसभा का पद। एक को आते-आते ही मिल गया। दूसरे को जाते-जाते भी नहीं मिला। एक आया था पत्रकारिता करने लेकिन नवाजा गया राज्यसभा के पद से। दूसरा पत्रकारिता छोड़ के राज्यसभा के लिए ही आया था, लेकिन ये पद गुप्ताओं के हिस्से चला गया। संजय राउत 2004 में राज्यसभा भेजे गए, 2010 में फिर भेजे गए और 2016 में तीसरी बार भेजे गए। उम्मीद है कि उन्हें 2022 में फिर से भेजा जाएगा। आशुतोष का 5 सालों में ही आम आदमी पार्टी से मोहभंग हो गया और वो निकल लिए।
एक ने फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखी है। दूसरे ने क़िताब लिखी है। दोनों ही वास्तविकताओं पर आधारित रचनाएँ हैं। राउत ने बाल ठाकरे पर बनी नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत फ़िल्म ‘ठाकरे’ की कहानी लिखी। आशुतोष ने अन्ना हजारे के आंदोलन की यादों को एक पुस्तक के रूप में समेटा। लेकिन उसकी सफलता का सारा श्रेय किसी और को दे दिया। मार्च 2018 में जब अन्ना ने अनशन शुरू किया, तब आशुतोष ने कहा कि उनके पास अब अरविन्द केजरीवाल के रूप में एक्स-फैक्टर नहीं है। राउत ने भी कई पुस्तकें लिख रखी हैं। इस तरह दोनों ही लेखक हुए।
राउत और आशुतोष में कई समानताएँ और विषमताएँ हैं। राउत ने कहा कि आंबेडकर का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और ट्रोल हुए। बता दें कि बाबासाहब का जन्म मध्य प्रदेश के महू में हुआ था। आशुतोष के लिए केजरीवाल ने कहा कि इस जन्म में तो आपका इस्तीफा मैं स्वीकार नहीं कर सकता। जन्म-जन्म का ये खेल अब यहाँ आ पहुँचा है कि महाराष्ट्र में नई सरकार का ही जन्म नहीं हो पा रहा। एक सुबह-सुबह न सिर्फ़ ब्रेड और अंडे खाता है, बल्कि उसकी फोटो लेकर जनता को बताता है कि ठण्ड के दिनों में नाश्ते में क्या लेना चाहिए। दूसरा अण्डों को ही शाकाहारी घोषित करने की बात करता है। अफसोस ये कि राउत ने ये बात संसद में कही। आशुतोष को मौक़ा ही नहीं मिला।
those who treats dogs only as dog i dont know which world they live in
— ashutosh (@ashutosh83B) November 18, 2011
संजय राउत ने तो ये भी कहा था कि शाकाहारी चिकन की व्यवस्था होनी चाहिए। खैर, संसद के रूप में उनके पास एक ऐसा प्लॅटफॉर्म है जहाँ वो कुछ भी बोल सकते हैं। आशुतोष ये काम ट्विटर पर करते हैं। राउत ट्विटर पर ये सब नहीं करते। वो ट्विटर पर कविता-पाठ करते हैं। दोनों में एक और समानता है कि दोनों ही कॉर्टून प्रेमी हैं। जहाँ एक के नेता ही कार्टूनिस्ट हुआ करते थे, दूसरे के नेता कार्टूनिस्टों के फेवरिट कैरेक्टर हैं। बाल ठाकरे के कार्टून जहाँ पूरे देश में चर्चा का विषय बनते थे तो अरविन्द केजरीवल कार्टूनिस्टों को ढेर सारा मसाला देने का काम करते हैं।
एक की दिल्ली में सरकार बनने के बाद भी एकांतवास में दिन कटे, दूसरा सरकार न बनने के बावजूद ‘मुख्यमंत्री हमारा ही होगा’ कहते फिर रहा है। दोनों की विचारधारा अब धीरे-धीरे एक ही जगह जाकर रुक गई है। ‘सत्य हिंदी’ हो या ‘सामना’, दोनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ लेख प्रकाशित होते हैं। दोनों के ही ट्वीट्स भाजपा पर कटाक्ष होते हैं। दोनों ही सोशल मीडिया पर मजाक की विषय-वास्तु बन कर रह गए हैं। एक ने महाराष्ट्र के सीएम की ही तुलना कुत्ते से कर डाली थी, दूसरा कुत्ते को ही कुत्ता नहीं समझता। संजय राउत ने फडणवीस को लेकर कहा था कि एक कुत्ता भी सत्ता में आने के बाद ख़ुद को शेर समझने लगता है। दूसरे को इस बात से दिक्कत थी कि लोग कुत्ते को कुत्ता क्यों समझते हैं?
“लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
— Sanjay Raut (@rautsanjay61) November 12, 2019
कोशीश करने वालों की कभी हार नही होती ।’
बच्चन.
हम होंगे कामयाब..
जरूर होंगे…
‘सामना’ और ”सत्य हिंदी एक ही ढर्रे पर चलते दिख रहे हैं। मराठी और हिंदी एक जैसे दिख रहे हैं। संजय राउत कुछ कारणों से अस्पताल में भर्ती थे। अंदर थे तो ‘अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ’ लिख रहे थे, बाहर आ गए हैं तो ‘मुख्यमंत्री शिवसेना का ही बनेगा’ बोल रहे हैं। एक बात तो तय है। कल को अगर अरविन्द केजरीवाल पर कोई फ़िल्म बनती है तो आशुतोष से बढ़िया कौन होगा उस फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने वाला? इसके बाद वो इस मामले में भी राउत के टक्कर के हो जाएँगे। फ़िलहाल पत्रकारों की राजनीति या राजनीति की पत्रकारिता- दोनों में से किसी का भी लुफ्त उठा सकते हैं। दोनों एक-दूसरे में घुसी हुई हैं।