कसमों में सबसे बड़ी कसम कही गई है ‘कसम पैदा करने वाले की’। किसान भी पैदा करते हैं, अनाज, सब्जी, दलहन, तिलहन और आज कल आंदोलन। किसानों को अन्नदाता भी कहा जा रहा है और उनके इस पर्यायवाची शब्द को वो लोग भाजपा समर्थकों और आंदोलन विरोधियों पर मार रहे हैं, जो हमेशा यह कहते हैं कि ‘बॉर्डर पर जवान मर रहे हैं’ कह कर आप उन्हें चुप नहीं करा सकते, उन पर लोकतंत्र में सवाल पूछे जाएँगे।
लेकिन किसानों से आप सवाल नहीं पूछ सकते, खास कर उनसे तो बिलकुल नहीं जो आंदोलन करने के लिए किसान बने हैं। आप बात को समझिए कि ‘अन्नदाता’ सड़क पर आ गए हैं। इसके साथ एक और वामपंथी तत्वज्ञान समझिए कि ‘इतने लोग आए हैं, कुछ तो सही बात होगी’। ऐसी ही ‘कुछ तो बात होगी’ वाली दलील शाहीन बाग वालों ने दी थी, बाद में पता चला कि कुछ नहीं बहुत बातें थीं, और 53 लाशें दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों में गिर गई।
साथ ही, इन्हें क्या पता कि आप एक बुजुर्ग युवा नेता को, जो कभी मुँह पर करुआ तेल लगा कर गरीब दिखने की कोशिश करता है, तो कभी सर पर घुँघराले बाल बना कर कंधे पर कंप्यूटर ढो कर लाने वाले पिता की तरह बनना चाहता है, लगातार पप्पू बना कर चिढ़ाएँगे तो क्या वो बदला नहीं लेगा? पप्पू को पास होना है, पप्पू को मौका मिला है, पप्पू को पप्पा बनना है, लेकिन पप्पू जगह छोड़-छोड़ कर फटी जेब लिए ‘यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ मत पूछो कहाँ कहाँ’ आता जाता रहता है, तो वो क्यों नहीं बिना बोले पिछवाड़े से समर्थन देगा?
अन्नदाता हैं भाई, मामूली चीज थोड़े ही है। आपने क्या दिया है देश को? अन्न दिया है? कोई दुष्ट यह कह देगा कि अन्न जब तक फ्री में नहीं दे रहे, तब तक काहे के अन्नदाता! ऐसे ही लोगों ने तीसरी कक्षा में ‘नहीं हुआ है अभी सवेरा सूरज की लाली पहचान, चिड़ियों के जगने से पहले खाट छोड़ उठ चला किसान’ ध्यान से नहीं पढ़ा। कितनी भावुक कविता है। मुझे तो लगता है कि सीनियर क्लास में यही कविता पढ़ाई जाती तो अगली पंक्तियाँ यह होती कि ‘कानूनों को पढ़ने से पहले, आंदोलन करने चला किसान’।
देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज किसानों को सड़क पर, इस सर्दी में बैठना पड़ रहा है। क्या माँगा है उन्होंने? बस यही न कि तीनों बिल जो 27 करोड़ वयस्कों द्वारा चुने हुए सांसदों ने, काफी गहन विचार के बाद पास किया, उसे सरकार वापस ले ले क्योंकि 32 संगठन कह रहे हैं। अब आप ही बताइए कि चुने हुए 305 सांसद ज्यादा हैं, या फिर 32 संगठनों में शामिल सैकड़ों किसान? आप ही बताइए कि क्या सांसद अब किसानों के लिए कानून बनाएँगे?
आप कह देंगे कि अजीत जी, कानून बनाने का काम तो सांसद का ही है लोकतंत्र में। आपकी बात सही है, लेकिन कोई काम लम्बे समय से होता आ रहा हो, तो जरूरी नहीं कि वो सही ही हो। जैसे कि पहले के किसान इस सीजन में खेती करते थे, अब नहीं करते। पहले के किसान खेती की बेहतरी की माँग करते थे, अब वाले अर्बन नक्सलों, दिल्ली के हिंदू विरोधी दंगों को भड़काने वाले दंगाइयों की रिहाई की बात कर रहे हैं। पहले किसान ट्रैक्टर से खेती करते थे, अब ट्रैक्टर में आग लगाते हैं।
इसलिए, पहले सांसद कानून बनाते थे, तो अभी भी वही बनाएँगे, ये कहीं से भी उचित नहीं है। अच्छी बात तो यह होगी कि किसान अपने कानून स्वयं बनाए, आतंकी UAPA में संशोधन करे, डॉक्टर निजी प्रैक्टिस पर बिल बनाएँ। चुन कर आने का मतलब यह थोड़े ही है कि आपको खेती भी आती है। नेता लोग को क्या आता है? मोदी ने कभी कुदाल चलाई है? अमित शाह ने कभी धनिया बोया है? सॉरी, उन्होंने तो काफी धनिया बोया है पिछले साल, लेकिन आप शब्दों पर मत जाइए, भाव पर ध्यान दीजिए।
किसान का मतलब यह नहीं होता कि फटी हुई गंजी पहने हुए, दरारों वाले धान के खेत में, सर पर हाथ रखे, चिलचिलाती धूप में सूरज को ताकता रहे। किसान का मतलब है अन्नदाता, किसान का मतलब है कि वो सड़कें बंद करा सकता है, रेल रोक सकता है, और जरूरत पड़े तो सड़क पर प्रोजेक्टर लगा कर सलीमा देखते हुए इन्ज्वॉय कर सकता है।
कुछ लोग एक तस्वीर घुमा रहे हैं कि देखो प्रोजेक्टर और स्क्रीन लगा कर सिनेमा चल रहा है। मतलब, क्या चाहते हैं आप लोग? किसान रिलेक्स न करे? जब हरी पगड़ी वाले अन्नदाता भाई चार महीने का राशन ले कर आ गए हैं, कुछ के बच्चे वहीं ऑनलाइन क्लास करते हैं और फिर बाकी टाइम बाप के लिए वो भगत सिंह बन जाते हैं, वो थोड़े ‘लेज़ी लम्हे’ न गुजारें? मैं तो कहता हूँ कि वहीं जेसीबी से बीच सड़क में एक छोटा सा पूल खोद दो, पानी भर दो और स्वीमिंग पूल का भी आनंद लो।
पहले तो जोश-जोश में साइन करा लिया कि अम्बानी और अडानी का कुछ भी इस्तेमाल नहीं करेंगे। इसमें ‘जियो’ कम्पनी का सिम भी था। आप ही बताइए कि डेढ़ जीबी डेटा वाला सिस्टम भी हटा दिया आत्मसम्मान में, और आत्मनिर्भरता को सुचारु बनाने वाले इंटरनेट के कुछ साइटों को पहले ही संघी, फासीवादी सरकार ने बंद करा रखा है, फिर आदमी प्रोजक्टर पर सिनेमा भी न देखे? चाहते क्या हैं लोग?
नहीं, आप लोगों को चाहिए कि सोते-जागते ये किसान नारेबाजी क्यों नहीं कर रहे हैं। ये क्या तरीका है? आंदोलन का ये मतलब थोड़े ही है कि नारेबाजी किए जा रहे हैं, गला फाड़ा दिया। अरे टीवी वाले आएँगे तो दस-बीस आदमी लगा देंगे नारा। बाकी लोगों को बस भीड़ में दिखना चाहिए। ऐसा भी क्या काम करना कि जो टीवी पर दिखे ही नहीं। आप लोग यह चाहते हैं कि बेचारे किसान, जो कि अन्नदाता होते हैं, बिना कैमरे के फर्जी का हल्ला करते रहे? ये किस तरह की घटिया सोच है? आप क्यों चाहते हैं कि कोई व्यक्ति ऐसा काम करे जिसका कोई परिणाम ही न हो?
‘आंदोलन कर रहे हैं तो सिनेमा क्यों देख रहे हैं, बिरयानी क्यों खा रहे हैं’ जैसी बातें करना सीधे तौर पर अन्नदाताओं को नीचा दिखाने की कोशिश है। जब कोई व्यक्ति राशन-पानी ले कर किसी मिशन पर निकल गया है, तो उसे नारा लगाने और हल्ला करने के अलावा खाना बनाना, रिलेक्स करना, गीत गाना, ट्वीट करना, मोदी को ठोकने की बात सोचना, खालिस्तानी पोस्टर और नारे लगाना आदि भी तो करना ही होगा न! अंग्रेजी में कहावत है कि ‘वरायटी इज़ द स्पाइस ऑफ लाइफ’। तो इधर वरायटी-वरायटी के काम हुए, उधर जीवन में मसाला मिल गया, शाहीन बाग वाला मुल्ला मुर्गा ले आया, मसाला लगा कर मैरिनेट कर दिया…
यह भी पाया गया कि कुछ लोग कह रहे हैं कि किसानों ने कानून ही नहीं पढ़ा है। आप ही बताइए कि अन्नदाता अन्न उपजाएगा, उसे मंडी में 8.5% टैक्स और ट्रकों की एंट्री फीस दे कर आढ़तियों को बेचेगा, या फिर वो बिल पढ़ने के झंझट में रहेगा? पढ़ना होता तो वो आंदोलन क्यों करते? शाहीन बाग वालों ने क्या CAA वाला कानून पढ़ा था? आंदोलन करें कि कानून को पढ़ने के चक्कर में रहें?
कानून का कागज अगर गलती से पढ़ लेंगे, तो यह भी तो समस्या है कि कहीं उन्हें यह लग जाए कि कानून में तो पहले की सारी बातें हैं ही, और किसानों को नए विकल्प दिए गए हैं, तो वो आंदोलन कर पाएँगे? अंग्रेज़ी में एक कहावत है (दूसरी कहावत, आज तो मैं ‘ऑन फायर’ हूँ) कि ‘इग्नरेंस इज़ ब्लिस’। कोई पगड़ी वाला किसान अगर सड़क पर ब्लिस का अनुभव करना चाहता है, तो वो इतनी भीड़ में क्या करेगा? उसको तो इग्नरेंस से ही ब्लिस मिल सकेगा तत्काल में। इसलिए, कानून को पढ़ने का तो कोई तुक ही नहीं बनता। जो भी लोग यह कह रहे हैं कि किसानों को एक बार बिल पढ़ लेना चाहिए, वो अन्नदाता के दुश्मन हैं, और उन्हें लानत है।
आप सोचिए कि 32 संगठन के लोग हैं वहाँ, और यह कह रहे हैं कि पाँच सौ संगठन के किसानों की बात है यह तो क्या आप यह कहेंगे कि कहाँ हैं बाकी के किसान? आप यह कहेंगे कि बिहारी किसान कहाँ है, यूपी वाला क्यों नहीं आ रहा? क्या आपको नहीं पता कि बिहार और यूपी वाला खेतों में खरीफ सीजन की तैयारी कर रहा है? किसान किसान होता है, क्या बिहारी, क्या पंजाबी। आप क्या अन्नदाता के नाम पर, उनकी बातों पर विश्वास नहीं कर सकते कि पूरे देश के किसान उनके साथ हैं? शर्म कीजिए कि आपकी थाली में जो रोटी है, वो यही अन्नदाता देता है। ठीक है कि आप पैसे देते हैं लेकिन पैसों से क्या होता है, कोई अनाज उपजा रहा है आपके लिए, क्या यह कम बात है।
यह भी लोग कह रहे हैं कि मैं खबरदाता हूँ, वो चिकित्सादाता है, वो मनोरंजनदाता है, वो शिक्षादाता है, रवीश फेकन्यूज और प्रपंचदाता है, सब लोग कुछ न कुछ दे ही रहे हैं, तो सब अपने नाम में ‘दाता’ लगा कर इमोशनल ब्लैकमेल करने लगें? कोई कहेगा कि मैं चिकित्सा न करूँ तो तुम मर जाओगे, कोई कहेगा कि मैं मनोरंजन न करूँ तो तुम बोर हो जाओगे, कोई कहेगा कि मैं खबर न दूँ तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि दुनिया में क्या चल रहा है, रवीश कहेगा कि वो फेकन्यूज और प्रोपेगेंडा न करे तो वामपंथियों को ऑर्गेज्म ही नहीं मिलेगा…
लेकिन, आप ही सोचिए कि क्या ये सब किसान के आगे कुछ भी हैं? इलाजदाता डॉक्टर चिकित्सा न दें तो आदमी मर जाएगा। तो भाई मेरे, जब वो मर ही गया तो उसे क्या पता चलेगा कि चिकित्सा का क्या महत्व है। लेकिन अन्नदाता अगर अन्न न दें तो आप जीवित नहीं रह पाएँगे। दोनों बातों में अंतर है। एक के न मिलने पर आदमी मर जाता है, दूसरे के न मिलने पर आदमी जीवित नहीं रह पाता। इसलिए उसका वैल्यू अधिक है। मरने पर आदमी मर ही जाता है, लेकिन जीवित न रहने पर आदमी महसूस करता है कि वो जीवित नहीं रह पा रहा है। फिलॉसफी वाली बात है, आपको समझ में नहीं आएगी।
इसलिए ये सब मत कहा कीजिए कि शिक्षादाता कल आंदोलन कर के कहेगा कि हम न पढ़ाएँ तो तुम पढ़ ही नहीं पाओगे। ठीक है, नहीं पढ़ पाएँगे। कम से कम एक फायदा तो होगा कि किसान आंदोलन या शाहीन बाग टाइप कुछ करेंगे तो ये तो नहीं कह पाएगा कोई कि तुमने तो बिल पढ़ा ही नहीं। है कि नहीं? सारे ‘दाता’ एक नहीं होते, और दाताओं में ‘अन्नदाता’ का विशेष महत्व है क्योंकि वो आंदोलनदाता बने हुए हैं।
तत्काल प्रभाव से सरकार को चाहिए कि किसानों के सारे कानून वो निरस्त करे और उन्हें नए संसद भवन के भूमिपूजन की ईंट के बगल में बिठा कर, उनसे पूछ कर, नए कानून बनवाए। साथ ही, एक संशोधन यह भी करे कि अगर 370 हटाना हो तो कश्मीरी आतंकियों से राय ली जाए, रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाना है तो कोर्ट न जा कर बाबर की औलादों से निर्णय लिखवाए जाएँ, और सांसद बनने का सिस्टम खतम हो।
आप ही सोचिए कि क्या मतलब है सांसद का या प्रधानमंत्री का? उसको हर चीज आती है क्या? फिर वही आदमी किसान पर भी कानून बनाता है, इसरो में रॉकेट का फंड भी देता है, सर्जिकल स्ट्राइक का भी निर्णय लेता है, कोरोना में लॉकडाउन की भी बात करता है… सब काम बस दस-बीस लोग मिल कर तय कर लेते हैं! ये कोई तरीका है? किसने भेजा है उनको अपना प्रतिनिधि बना कर…