स्टूडियों में भीड़ भारी है। संख्या के हिसाब से नहीं। दुखों के लिहाज से। पीछे स्क्रीन काली है। आगे मुनव्वर बैठे हैं। साथ हैं बकल टिकैत और आंदोलनजीवी यादव भी। सूत्रधार बने हैं, अपने मैग्सेसे कुमार। सब के सब छलनी थे। जख्मों से नहीं। पेगासस (Pegasus) से।
जख्म भले साझा हैं। पर राग से छेड़खानी अपनी-अपनी हैं। हालाँकि शब्द एक ही हैं। कैफी आजमी से उधार लिए। जरा आप भी गौर फरमाइए;
ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं
किसको सुनाऊँ हाल-ए-दिल बेक़रार का
बुझता हुआ चराग़ हूँ अपने मज़ार का
ऐ काश भूल जाऊँ मगर भूलता नहीं
किस धूम से उठा था जनाज़ा बहार का
ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं
शब्द भले जावेद साहेब के ससुर के थे। लेकिन धुन मदन मोहन की नहीं थी। आवाज भी लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी वाली नहीं थी। सो, स्टूडियो में भी श्वान का जुटान तगड़ा था। भों-भों की स्वर लहरी में सारे शब्द दब गए थे।
अब मुनव्वर से रहा नहीं गया। उस भीड़ में वे सबसे छोटे भी नहीं हैं। जानते हैं यहाँ हिस्से माँ नहीं आएगी। काली स्क्रीन पर शायराना जख्म शायद कुछ काम कर जाए। अर्ज किया;
मैं भुलाना भी नहीं चाहता इस को लेकिन
पेगासस ज़ख़्म का रहना भी बुरा होता है
फिर फरमाया- कमबख्त पेगासस। तुमने ये किया गया। कर्ट वेस्टरगार्ड शांति से चला गया। बिरादरों को मौका तक नहीं दिया नफरत दिखाने का। काश! तुम ना होते। इस सोशल मीडिया को हम नफरत से रंग देते।
बकल टिकैत के पल्ले कुछ न आई। न कर्ट जुबान पर आई और न पेगासस जुबान से बाहर। ऐसे में आंदोलनजीवी यादव हौले-हौले आगे आए। हौले से ही बोले- भाई बकल टिकैत, ये शब्द आपके सिलेबस से बाहर हैं। आप तो बस नफरत को ट्रैक्टर पर चढ़ाइए। बकल टिकैत बोले- भाई आंदोलनजीवी, हिलाना तो इसी मॉनसून से था। लेकिन ये पेचकस कहाँ से आई है, धमकी हमारी भी खाई है।
आंदोलनजीवी यादव बोले- सही फरमाया भाई बकल। हौले-हौले आई है, सभी खलिहरों की खेत अचानक से लहलहाई है। बताओ भला उसकी जासूसी कौन करे, जिसकी कुर्ते की फटी जेब भी रफ्फू हो न सके। जो मशीनों में आलू डाल सोना बनाए, वो भला फोन से कौन सा गुल खिलाए।
अचानक आंदोलनजीवी यादव के हौले रफ्तार को लगी ब्रेक। काली स्क्रीन पर था अब मैग्सेसे कुमार का प्राइम खेल। उनके विषाद भी भारी थे। कुटिलता, घुइंया, मक्कारी संग पेगासस पर टूटे थे। नमस्कार का विलोप था, साहस की मंदी का स्वर में रोष था। शब्द जहर रहे थे- यह सरकार ही मेरे सवालों से नहीं घबराती है। पेगासस भी मेरे गली में आने से डरती है। मैं तो कहता हूँ इसमें भी स्कैम है। जो टू बीचएके वाली के घर तक जा सकती है, वो मेरे ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी में क्यों नहीं आ सकती है। इस साजिश में सब मिले हैं। यह गोदी मीडिया का विस्तार है। पेगासस ने आपके मोबाइल की सूचना नहीं खाई है। इसने खाई है आपकी रोटी। आपकी जिंदगी। आपकी अर्थव्यवस्था। वो सारे सवाल जो आपसे जुड़े थे। जिससे ये सरकार डरती है। इसलिए तो कहता हूँ टीवी मत देखिए। अखबार मत पढ़िए। सारे झंझट यहीं हैं। पेगासस आया-पेगासस आया, इसका शोर किसने मचाया। इसी मीडिया ने। इसी गोदी मीडिया ने। ये शोर न होता तो आज लोकतंत्र भी खतरे में नहीं होता। पर आप क्या जाने मैग्सेसे कुमार होना। अच्छा हुआ भाई पुलित्जर सिद्दीकी। बिरादरों ने आपको ये दिन देखने को नहीं छोड़ा। वरना आज पुलित्जर भी टूबीएचके के सामने बेमोल था। फासिस्ट सरकार से सब डरते हैं, फिर भी मैं पेगासस को लानत भेजता हूँ…
अचानक मैग्सेसे कुमार की आवाज दब जाती है। स्क्रीन काली से रंगीन हो जाती है। बड़े-बड़े अक्षर में ब्रेकिंग न्यूज फ्लैश होता है: राज मुंबई में गिरफ्तार। ढन-ढन करता म्यूजिक और पट्टी पर लिखा हवस का माहौल। मैग्ससे कुमार कुढ़ते मन से गुनगुनाते निकल पड़े;
स्टूडियो में आके भी मुझको ठिकाना न मिला
ग़म को भूलाने का कोई बहाना न मिला
राज तू क्या जाने फ़ोन में एक पेगासस की तलाश को
जा मुनव्वर अब तू भी देख यूपी से बाहर के हालात को