अभी चुनावों के कुछ चरण बाकी हैं, और रह-रह के वाराणसी का ज़िक्र आ जाता है। जब भी ऐसा ज़िक्र होता है तो मुझे लगता है कि बनारस बड़ी अजीब जगह होगी। अजीब इसलिए कि जब यहाँ से चुनाव लड़ने की बात चली तो मैदान में एक तो भगोड़ा सिपाही उतरा। दाल के मनमोहनी दौर के बाद से ही हम कहते हैं कि दाल फ्राई के लिए रोने वाली कौमें जंग नहीं लड़ा करती मियाँ! और ये भगोड़ा दाल के लिए ही भागा था! दूसरी जो घोषित सूरमा थी वो पहले भगोड़ी नहीं थी, लेकिन वाराणसी जैसे पुराने शहर और विपक्षी जैसे पुराने राजनीतिज्ञ के लिए शायद उन्हें अपनी नई नाक दाँव पर लगाना उचित नहीं लगा। वो बाद में भगोड़ी हो गईं।
किताबों में रुचि होने की वजह से हमें वाराणसी के साथ-साथ ‘काशी का अस्सी’ भी याद आ जाती है। एक वामी मजहब के लेखक की इस किताब को पढ़ने के बाद शायद ही कोई उर्दू भाषा से प्रेरित गाली होगी, जिसे सीखना बाकी रह जाता होगा। जी हाँ उर्दू गालियों की ज़बान है, उसके इस्तेमाल के बिना गालियाँ देना मुश्किल होगा। यकीन ना हो तो सोचकर देख लीजिये कि ‘मादर’ लफ़्ज कौन सी जबान का लगता है। वैसे तो बिहार-यूपी के इलाकों में ये अनकहा सा नियम चलता है कि स्त्रियाँ या बच्चे-बुजुर्ग अगर आसपास से गुजरते दिख जाएँ तो भाषा तुरंत संयमित हो जाती है। पता नहीं क्यों, वामी मजहब के लेखक ने ‘काशी का अस्सी’ में इस सांस्कृतिक पक्ष पर ध्यान नहीं दिया और सबको भाषाई तौर पर उच्छृंखल ही दर्शाया है।
वाराणसी के ज़िक्र पर और कौन सी किताबें याद आती हैं? हिन्दी में भी वाराणसी को पृष्ठभूमि बनाकर लिखी गई किताबों की कमी नहीं है। समस्या है हिन्दी साहित्य की गिरोहबाजी। साहित्यिक गिरोहों ने कभी अपने विरोधी विचारों को पनपने नहीं दिया। उन्हें अच्छा या बुरा कहना तो दूर, उनके जिक्र तक से परहेज रखा। अछूत घोषित कर दिए गए ऐसे साहित्यकारों की कृतियाँ हैं तो, मगर आमतौर पर उनके बारे में कुछ भी कहा-सुना नहीं जाता। उदाहरण के तौर पर अगर आप शिवप्रसाद शर्मा की ‘वैश्वानर’ को इन्टरनेट पर ढूंढें तो शायद ही आपको कोई समीक्षा मिल पाएगी। कुछ लोग सोच सकते हैं कि 1928 में जन्मे और 1998 में दिवंगत हो गए लेखक की कृतियों पर समीक्षा का इन्टरनेट पर न होना आश्चर्य का विषय क्यों होगा?
अब आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में सोचिये। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ जैसी कृतियों के रचनाकार आचार्य खासे प्रसिद्ध भी थे और काफी पुराने दौर के भी थे। वो शिक्षक भी थे और उनके दो शिष्य काफी प्रसिद्ध रहे हैं। उनके एक शिष्य थे वामी नामवर सिंह। उनकी समीक्षाओं ने कई लेखक बनाए और बिगाड़े। निर्मल वर्मा को कथाकार और गजानन माधव मुक्तिबोध को कवि के तौर पर स्थापित करने वाले भी नामवर सिंह ही थे। उसी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के दूसरे प्रसिद्ध शिष्य थे शिवप्रसाद सिंह। संभवतः ‘गली आगे मुड़ती है’ और ‘नीला चाँद’ जैसी रचनाओं के लिए आपने इनका नाम सुना होगा। ये दोनों उपन्यास भी वाराणसी की पृष्ठभूमि पर ही लिखे हुए उपन्यास हैं।
कभी-कभी उनकी ‘अलग अलग वैतरणी’ की तुलना आंचलिक उपन्यासों के कीर्तिमान ‘रागदरबारी’ से भी होती है। हरिवंश राय बच्चन मानते थे कि ‘रागदरबारी’ का शिवपालगंज और ‘अलग-अलग वैतरणी’ का करैता दोनों एक ही हैं। शिवप्रसाद सिंह ने काशी या वाराणसी पर दो नहीं बल्कि तीन किताबें लिखी थीं, जिन्हें वो काशी-त्रयी भी कहते थे। इस त्रयी का पहला उपन्यास है ‘वैश्वानर’, जिसका शाब्दिक अर्थ अग्नि या आग होता है। वो आग जिसे वैदिक मान्यताओं में स्वयं भी पवित्र माना जाता है, और ये भी माना जाता है कि ये जिसे छुएगी उसे भी पवित्र कर देती है। ये मुख्यतः धन्वन्तरि नाम के एक वैद्य की कहानी के साथ-साथ चलता उपन्यास है।
उपन्यास की कथा के मुताबिक सरस्वती नदी के सूखने के काल में कुछ आर्यजन गंगा और वरुणा नदी के संगम के क्षेत्र में आकर बस जाते हैं। इस शाखा के लोगों के प्रमुख धन्वन्तरि हैं और अग्नि यानी वैश्वानर इस शाखा के कुलदेवता हैं। यहीं वाराणसी में एक महामारी फैल जाती है और वैद्य धन्वन्तरि इस रोग का निदान ढूँढने में जुटे होते हैं। जब तक वो बीमारी से निदान पाते, तब तक हैहयवंशी सहस्त्रार्जुन काशी पर कब्जा जमाने की सोचने लगता है। यहाँ से बूढ़े धन्वन्तरि के परपोते की भूमिका शुरू हो जाती है। अपनी छोटी सी सेना के बल पर वो कैसे
सहस्त्रार्जुन से मुकाबला करेगा, ये इस पौराणिक उपन्यास का आधार बन जाता है। कह सकते हैं कि इसमें दो कथाएँ मिली हुई हैं। एक करुणा दर्शाती है तो दूसरी शौर्य।
वैश्वानर काफी मोटी सी किताब है, इसलिए इसे पढ़ने में समय लगेगा। मेरे खयाल से ये किताब रोचक है, इसके मोटे होने से डरने की जरुरत नहीं है। इसमें वेदों के कई संस्कृत वाक्य हैं, लेकिन उनके साथ ही उनका अर्थ मिल जाएगा, इसलिए कोई हिस्सा समझ नहीं आया, ऐसी शिकायत भी नहीं रहती। अगर कहीं मदालसा का नाम सुना हो, तो वो इस किताब की नायिका है, यानि धन्वन्तरि के परपोते प्रतर्दन की प्रेयसी। उसके होने से उपन्यास में नायिका की कमी या प्रेम का ना होना जैसी शिकायत भी जाती रहती है। 1996 में प्रकाशित ये उपन्यास कम चर्चा में क्यों है, हमें मालूम नहीं। बाकी काशी के बारे में कथेतर के बदले कथा ढूँढने निकलें तो इसे भी देखिएगा। ऐतिहासिक उपन्यासों में रुचि के लिए तो देखा ही जा सकता है।