साहित्य अकादमी पुरस्कार का विवादों से पुराना नाता रहा है। न सिर्फ़ पुरस्कार, बल्कि पुरस्कार इसे लेने वाले भी विवाद खड़ा करने में अव्वल रहे हैं। इस वर्ष भी कुछ ऐसा ही हुआ। साहित्य अकादमी पुरस्कार का इंतजार देश भर के लोगों को था और जब इसकी घोषणा हुई तो फिर विवाद हुए। विवाद की शुरुआत तभी हो गई थी, जब मैथिली भाषा के संयोजक प्रेम मोहन मिश्र ने इस्तीफे का मेल भेजा। उन्हें इस पुरस्कार को देने की प्रक्रिया पर संदेह था और उन्होंने जूरी पर ही सवाल खड़े कर दिए। उनका आरोप था कि जूरी के गठन को लेकर एक रैकेट सक्रिय है।
मिश्रा का आरोप था कि पुरस्कार किसे दिया जाना है, इस वर्ष यह सब पूर्व-निर्धारित था। उनकी माँग है कि जूरी के चयन और पुरस्कार की प्रक्रिया गोपनीय रखी जानी चाहिए। वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार अनंत विजय ने ‘दैनिक जागरण’ में रविवार (दिसंबर 22, 2019) को एक लेख लिखा, जिसमें इस पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। अनंत विजय ने इस लेख में बताया है कि साहित्य अकादमी में हर भाषा के प्रतिनिधि ही अब तक जूरी के सदस्यों के नाम प्रस्तावित करते रहे हैं। इसमें इसका ध्यान रखा जाता है कि एक ही सदस्य दो साल तक जूरी में न रहे। इसका अर्थ है कि आरोप लगाने वाले मिश्रा ने भी जूरी के एक सदस्य का नाम प्रस्तावित किया होगा।
प्रेम मोहन मिश्र कहते हैं कि उन्होंने आपत्ति जताई थी। लेकिन, उन्होंने तब आपत्ति जताई थी जब पुरस्कार के लिए चयन की प्रक्रिया पूरी हो गई थी। अनंत विजय कहते हैं कि वामपंथियों के दबदबे वाले जमाने में जूरी के गठन व पुरस्कार दिए जाने में एक रैकेट ज़रूर सक्रिय रहता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसा देखने को नहीं मिला है। उस वक़्त लोगों को महीनों पहले पता चल जाता था कि पुरस्कार किसे मिलेगा? तो क्या अब वामपंथियों और विपक्ष के इस आरोप में दम है कि मोदी सरकार स्वायत्त संस्थाओं को नष्ट कर रही है और तानाशाही भरे रवैये से उन्हें प्रशासित कर रही है?
इस आरोप की हवा निकालने के लिए एक उदाहरण देखते हैं। अगर ऐसा होता तो क्या इस वर्ष तिरुअनंतपुरम से सांसद और वरिष्ठ कॉन्ग्रेस नेता शशि थरूर को उनकी पुस्तक ‘एन एरा ऑफ डार्कनेस’ के लिए पुरस्कार मिलता? आप साहित्य अकादमी के पिछले 6 दशक का इतिहास उठाइए। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी विपक्षी सांसद को अवॉर्ड मिला हो। अनंत विजय लिखते हैं कि आरएसएस से जुड़े लोगों या लेखकों को तो छोड़िए, भारतीयता की बात करने वालों तक के नामों पर भी इस पुरस्कार हेतु विचार नहीं किया जाता था। ऐसा हिन्दू कौन हुआ फिर? अपनी विचारधारा दूसरों पर कौन थोपता था, स्पष्ट दिख जाता है।
पुरस्कार वापसी के ‘खेल’ में शामिल ज्यादातर साहित्यकार फिर से अकादमी में सक्रिय हो गए हैं। क्या भारत में लगनेवाले डर समाप्त हो गया, क्या लेखक सुरक्षित हो गए, क्या मोदी सरकार सहिष्णु हो गई? साहित्य जगत को और देश को इन ‘पुरस्कार वापसियों’ से उत्तर तो चाहिए। दैनिक जागरण का मेरा स्तंभ pic.twitter.com/YCWbPkTryl
— अनंत विजय/ Anant Vijay (@anantvijay) December 22, 2019
आपको 2015 बिहार विधानसभा चुनाव याद होगा। तब उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल और अशोक वाजपेयी जैसे लेखकों ने अवॉर्ड-वापसी में हिस्सा लिया था। लेकिन, यही लेखक अकादमी अवॉर्ड्स मिलने की बात अपनी शान में गर्व से प्रस्तुत करते हैं। अनंत विजय लिखते हैं कि उनलोगों का एक ही लक्ष्य था- चुनाव से पहले भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल बनाना। इस बार ऐसे सभी लेखक बेनकाब हो गए हैं। जैसे- सच्चिदानंद सिंह। उन्होंने तब विरोधस्वरूप सलाहकार समिति से इस्तीफा दे दिया था लेकिन इस वर्ष वो जूरी में शामिल रहे। सोचिए, इसी व्यक्ति ने तब ऐलान किया था कि वो साहित्य अकादमी से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
जीएन देवी और सुकान्त चौधरी जैसे ऐसे और भी नाम हैं। एक और नाम है- नन्द भारद्वाज। इस आदमी ने पुरस्कार वापसी कर के रुपए भी लौटा दिए लेकिन बाद में जो चेक लौटाया था, उसे वापस भी ले लिया। ये सब गुपचुप तरीके से हुआ। अनंत विजय पूछते हैं कि जिन लेखकों को मोदी सरकार से डर लगता था, क्या उनका डर अब ख़त्म हो गया है? वो पूछते हैं कि क्या इन लेखकों के पास नैतिकता नहीं है या फिर उस नैतिकता को स्वार्थ और लोभ ने ढक लिया है?