धर्मनगरी अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि पर बन रहे भव्य मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए पूरी तरह से तैयार है। 22 जनवरी 2024 (सोमवार) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों गर्भगृह में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा होगी। आक्रांता बाबर से लेकर अब तक 500 से अधिक समय तक चले इस संघर्ष में अनगिनत बलिदान हुए हैं। इस संघर्ष के कुछ जीवित गवाह भी मौजूद हैं, जिन्होंने राम के नाम पर स्वतंत्र भारत में भी मुगल काल से अधिक प्रताड़ना झेली है। उन्हीं में से हैं उत्तर प्रदेश के बस्ती निवासी रामकरन सिंह, हरिलाल सिंह व सांडपुर गाँव के कई अन्य ग्रामीण। ऑपइंडिया ने रामकरन सिंह के गाँव जाकर उन पर मुलायम सरकार के दौरान साल 1990 में किए गए अत्याचारों की जानकारी जुटाई।
रामकरन सिंह मूलतः बस्ती जिले के गाँव सांडपुर के निवासी हैं। 22 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों के होने की सूचना पर स्थानीय दुबौलिया थाना पुलिस ने उनके गाँव में दबिश दी थी। इसी दबिश में पुलिस ने गोलियाँ बरसाईं थीं। इसमें राम चन्दर यादव, सत्यवान सिंह उसी समय और बाद में जयराज यादव बलिदान हो गए थे। तब पुलिस ने FIR दर्ज करके बचे ग्रामीणों को बेरहमी से टॉर्चर किया था।
उस FIR में मुख्य अभियुक्त रामकरन सिंह को बनाया गया था। आज भी बस्ती जिले की अदालत में अपराध संख्या 132/90 सरकार बनाम रामकरन सिंह चल रहा है। जब हम रामकरन सिंह से मिलने उनके गाँव गए, तब वो घर पर ही थे। उनकी अवस्था लगभग 70 वर्ष हो चुकी है लेकिन उन्हें सन 1990 की वो घटना ऐसे याद है, जैसे उसे बीते 34 साल नहीं बल्कि 34 मिनट हुए हों।
कारसेवकों की सेवा ही बना अपराध
रामकरन सिंह से बताया कि सांडपुर गाँव के ग्रामीणों का अपराध केवल इतना था कि वो देश के अलग-अलग हिस्सों से आए कारसेवकों की सेवा कर रहे थे। वैदिक सिद्धांत ‘अतिथि देवो भवः’ का पालन करने वाले गाँव सांडपुर में रामभक्तों के आराम करने, खाना-पीना के साथ उन्हें सुरक्षित अयोध्या पहुँचाने की कोशिशों में तमाम ग्रामीण एकजुट होकर लगे थे। रामकरन का दावा है कि तब मुलायम सिंह द्वारा कारसेवकों को पनाह देने वालों को भी अपराधी समझ कर एक्शन लेने के निर्देश दिए गए थे। यहाँ स्कूल बंद करके दुबौलिया इंटर कॉलेज में एक अस्थाई जेल भी बना दी गई थी।
बनियान पहने ग्रामीण को घसीट कर ले जा रहे थे थाने
रामकरन सिंह ने हमें आगे बताया कि 21 अक्टूबर 1990 को तत्कालीन थाना प्रभारी दुबौलिया उनके गाँव में आए और एक स्कूल के प्रबंधक राघवेंद्र सिंह को तब घसीट कर ले जाने लगे, जब वो सिर्फ लुंगी और बनियान में अपने घर बैठे थे। थानेदार ने राघवेंद्र सिंह पर कारसेवकों को पनाह देने का आरोप लगाया था।
रास्ते में पुलिस को रामकरन सिंह मिले। उन्होंने टोका और कपड़े पहन लेने की अपील की तो थाना प्रभारी ने वर्दी के तैश में उनको भी गालियाँ देनी शुरू कर दी और कहा, “हम नंगे ले जाना चाहेंगे तो वैसे ही चलना पड़ेगा।” माना जा रहा है कि तब राघवेंद्र सिंह को टॉर्चर करके कारसेवकों के ठिकानों और उनके अयोध्या जाने के गुप्त रास्तों के बारे में जानकारी उगलवाने की तैयारी थी।
रामभक्तों को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के थे आदेश
रामकरन का दावा है कि ग्रामीणों का विरोध देख कर तब थाना प्रभारी ने राघवेंद्र सिंह को छोड़ दिया और सीधे बस्ती जिले के पुलिस अधीक्षक के पास गए। वहाँ SP द्वारा उन्हें गाँव में मौजूद रामभक्त और कारसेवकों को पनाह देने वाले ग्रामीणों को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने के निर्देश दिए गए। इस काम के लिए पुलिस अधीक्षक ने ऊपर से मिले आदेश के बाद थानेदार को अतिरिक्त फ़ोर्स भी दी।
पुलिस टीम ने 22 अक्टूबर 1990 को सुबह 4 बजे भोर में दबिश दिया। तब महिलाओं, वृद्ध और बच्चों में जो भी मिला, उनको बेरहमी से पीटा गया। हालाँकि ग्रामीणों को पुलिस की दबिश की भनक पहले लग गई थी, इसलिए उन्होंने बाहर से आए कारसेवकों को गाँव से सुरक्षित निकाल दिया था।
अति हुई तो जुटे ग्रामीण
महिआओं को भी टॉर्चर करने के लिए पुरुष पुलिसकर्मी लगाए गए थे। इस काम में PAC, पैरामिलिट्री और 4 थानों की फ़ोर्स जुटी थी। रामकरन सिंह ने बताया कि भोर में ही गाँव सांडपुर से औरतों और बच्चों की चीख-पुकार उठने लगी। इससे आसपास के गाँवों के लोग भी जमा होने लगे।
ग्रामीणों का विरोध पुलिस को रास नहीं आया और उन पर गोलियाँ बरसा दी गईं। इन गोलियों से राम चन्दर यादव और सत्यवान सिंह मौके पर भी बलिदान हो गए। जयराज यादव और महेंद्र प्रताप सिंह को गोलियाँ लगीं और वो घायल हो गए।
औरतों के गहने लूट ले गई पुलिस
रामकरन के अनुसार पहली पंक्ति में मौजूद पुलिस के जवानों ने गोलियाँ बरसा कर निहत्थे लोगों को मार डाला और कुछ को घायल कर दिया। तभी दूसरी पंक्ति के जवान आए। उन्होंने लाशों को परिजनों को देने के बजाय अपने कब्ज़े में ले लिया। साथ में वो घायलों को भी अपने साथ समेट ले गए, जिन्हें बिना बेहतर उपचार के जेल भेज दिया गया। 32 साल बाद जयराज यादव की मौत की वजह भी यही हरकत बनी।
इसके बाद तीसरी पंक्ति के पुलिस के जवान गाँव में घुसे। इन्होनें घरों में मौजूद बेगुनाहों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। साथ ही तलाशी के नाम पर छिपा कर रखे गए औरतों के गहने तक लूट लिए। विरोध करने पर बीमार बुजुर्गों की चारपाई तक तोड़ डाली गई।
ग्रामीणों की कहीं नहीं हुई सुनवाई
थोड़ा रुक कर रामकरन सिंह ने बताया कि मुलायम सिंह की सरकार में हुए सांडपुर नरसंहार में ग्रामीणों को एकतरफा कार्रवाई का शिकार होना पड़ा। तब ग्रामीणों की हत्या के बावजूद पुलिस पर कोई भी एक्शन नहीं लिया गया।
रामकरन सिंह और अन्य ग्रामीणों ने मिल कर जिला प्रशासन पर कार्रवाई के लिए लखनऊ तक हर सक्षम अधिकारी और नेता को तहरीर दी। हालाँकि ये तमाम शिकायतें डस्टबिन में डाल दी गईं। उलटे अपने लोगों को गँवा चुके और गोली खाकर घायल 40 नामजद ग्रामीणों को कई अन्य अज्ञात के साथ मुल्जिम बना दिया गया।
इंसान तो दूर गाँव के जानवर भी हुए थे प्रताड़ित
सांडपुर के पड़ोसी गाँव रामनगर के स्थानीय जनप्रतिनिधि सुरेश कुमार पांडेय ने ऑपइंडिया को बताया कि वो 22 अक्टूबर 1990 की घटना से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। तब वो इंटरमीडिएट के छात्र थे। उन्होंने कहा कि तब सड़क के मुख्य मार्ग तो दूर छोटी-मोटी पगडंडियों को भी सील कर दिया गया था।
सुरेश ने दावा किया कि तब पुलिस ने सांडपुर में घुस कर जो बर्बरता दिखाई थी, वो शायद गुलाम भारत में नहीं देखने को मिली होगी। बकौल सुरेश सिर्फ इंसान ही नहीं बल्कि पुलिसिया बर्बरता से गाँव में पाले गए जानवर भी कई दिनों तक भूखे रहे गए थे। उन्हें चारा खिलाने वाला भी कोई नहीं बचा था।
चौपट हो गए युवाओं के करियर
सुरेश कुमार पांडेय का यह भी दावा है कि 22 अक्टूबर 1990 की घटना में पुलिस ने कई ऐसे युवा ग्रामीणों को भी नामजद कर दिया था, जो घटना के दिन गाँव में थे ही नहीं। केस में नामजद होने और जेल जाने की वजह से उन सभी नौजवानों का करियर भी चौपट हो गया।
सुरेश के अनुसार यह सारी निर्ममता तत्कालीन मुलायम शासन के आदेश पर हुई थी। तब नामजद ग्रामीणों की पैरवी करने जो भी थाने पर जाता था, उसे पीट कर कारसेवक बता दिया जाता था। लोगों को झूठे केस में जेल भेज दिया जाता था।
SC/ST, OBC, सामान्य वर्ग – सभी को टॉर्चर
इस पुलिसिया बर्बरता के शिकार कइयों की जमानतें इलाहबाद हाईकोर्ट से हुई। कुछ ने पुलिस के डर से लम्बे समय तक फरार रहने के बाद कोर्ट में सरेंडर कर दिया था। इस केस में पुलिस द्वारा मुख्य अभियुक्त रामकरन सिंह को बनाया गया था। अभियुक्त बना कर टॉर्चर किए गए ग्रामीणों में हिन्दू समाज के SC/ST, OBC और सामान्य वर्ग के लोग शामिल हैं।
रामकरन के अनुसार पुलिस द्वारा पीटे गए सुक्खू, राम सुमेर, दधिबल सिंह 6 महीने बिस्तर से भी नहीं उठ पाए थे। यह केस अभी भी बस्ती जिले की अदालत में चल रहा है। इसके सभी आरोपित अपनी जमीन-जायदाद बेच कर या गाढ़ी कमाई खर्च करके केस लड़ रहे हैं।
40 नामजद आरोपितों में से लगभग 20 ग्रामीणों की मौत अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न कारणों से हो चुकी है। ऑपइंडिया से बात करते हुए एक अन्य ग्रामीण हरिलाल सिंह ने बताया कि वो भी इसी केस में नामजद अभियुक्त बना दिए गए थे।
हरिलाल का दावा है कि उनका विवाद से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था लेकिन घर के आगे से उन्हें पुलिस ने उठा लिया और जेल भेज दिया था। तब 16 दिन तक जेल काटने के बाद हरिलाल सिंह जमानत पर बाहर आ पाए थे। बकौल हरिलाल पुरुषों के जेल जाने के बाद महिलाओं को उनके रिश्तेदार अपने घर लेकर चले गए थे और हालात ऐसे बन गए थे कि काफी समय तक तो गाँव में चिराग जलाने वाला भी कोई नहीं बचा था।
अच्छा हुआ पुलिस को कारसेवक नहीं मिले
रामकरन सिंह ने बताया कि 1990 में वो एक स्कूल में प्रिंसिपल थे। पुलिस की इस कार्रवाई से वो और उनका परिवार तबाह हो गया था। बहुत मेहनत और मुश्किल से पिछले 34 वर्षों में मेहनत करके रामकरन का परिवार को फिर से पटरी पर आने की जद्दोजहद कर रहा है। हालाँकि रामकरन सिंह को इस बात का संतोष है कि अच्छा हुआ तब पुलिस के हाथ बाहरी कारसेवक नहीं लगे वरना उनके साथ क्या अनहोनी होती, इसका कोई अनुमान ही नहीं लगा सकता।
आज भी राम के नाम पर बलिदान देने को तैयार
अपने गाँव में हुए पुलिसिया उपद्रव के बारे में रामकरन ने आगे कहा:
“जो मर गए, वो स्वर्ग सिधार गए। हम जैसे जो भी लोग जिन्दा हैं, वो जरूरत पड़ने पर राम के नाम पर अभी भी बलिदान होने को तैयार हैं।”
रामकरन सिंह को जरा सा भी अफ़सोस नहीं है कि कारसेवकों का गुस्सा अपने सिर पर लेने की वजह से उन्होंने और उनके परिवार न क्या-क्या झेला। रामजन्मभूमि पर भगवान राम का भव्य मंदिर बनने से रामकरन और उनका परिवार बेहद खुश है। वो इस बात को लेकर भी गौरवान्वित हैं कि इस काम में उनके परिवार का भी त्याग और बलिदान शामिल है।