सावन के महीने में आपने सड़क पर शांति से काँवड़ लेकर जाते भक्तों को देखा होगा, जिन्हें काँवड़िया भी कहते हैं। नदी से जल भरने से लेकर शिवलिंग पर अर्पित करने तक, ये काँवड़िए रास्ते भर बाबा का ध्यान करते रहते हैं, उसी सोच में मगन रहते हैं। इनकी संख्या हजारों में हो, फिर भी ये बिना किसी को परेशान किए अपनी राह चलते जाते हैं। तभी इनके स्वागत में जगह-जगह लोग इनकी सेवा के लिए लगे रहते हैं। यही तो है हिन्दू धर्म की महानता!
काँवड़, इसमें एक डंडे के सहारे दो पात्र दोनों तरफ लटके होते हैं, जिनमें जल होता है। डंडे वाले हिस्से को कंधे पर रखा जाता है। सजावट के लिए काँवड़ में फूल और रंगीन कपड़े भी लगे होते हैं। प्राचीन काल से ही काँवड़ यात्रा चली आ रही है। भगवान शिव की जब से पूजा हो रही है, जब से उन्हें जल चढ़ाया जा रहा है, तभी से इस यात्रा का अस्तित्व है। 12 ज्योतिर्लिंगों ही नहीं, शिव के हजारों अन्य मंदिरों तक काँवड़ यात्रा निकाली जाती है। भगवान परशुराम को पहला काँवड़िया माना गया है।
उदाहरण के लिए झारखंड के वैद्यनाथ धाम को ले लीजिए। बिहार और झारखंड के अधिकतर लोग यहीं जल चढाने आते हैं। आपको कई काँवड़िए तो ऐसे मिलेंगे, जो कई दशकों से लगातार जल चढ़ाने आ रहे हैं, किसी भी वर्ष गैप किए बिना। कोई कुछ प्रार्थना लेकर आता है, तो किसी की प्रार्थना पूरी हो जाती है तो बाबा के यहाँ हर वर्ष उपस्थिति दर्ज कराता है। कई निःस्वार्थ भाव से जाते हैं। कइयों के पास घूम-घूम कर तीर्थाटन के लिए धन या समय नहीं होता, वो भी एक बार काँवड़ यात्रा में समय देकर धन्य पाता है खुद को।
बाबा वैद्यनाथ को जल अर्पित करने के लिए काँवड़िए सबसे पहले गंगा नदी के दक्षिण में स्थित और भागलपुर शहर से 25 किलोमीटर पश्चिम में स्थित सुल्तानगंज में पहुँचते हैं। इसके लिए वो बस, ट्रेन, कार या किसी भी माध्यम का इस्तेमाल कर सकते हैं। फिर यहाँ से वो 111 किलोमीटर की यात्रा पर निकलते हैं, देवघर के लिए। केवल सावन महीने में कम से कम 10-15 लाख काँवड़िए अकेले बाबाधाम पहुँचते हैं।बाकी ज्योतिर्लिंगों के लिए भी यात्री पहुँचते हैं। ये यात्रा धैर्य की है, अनुशासन की है, साथ की है।
श्रावणी मेला इस दौरान आकर्षण का मुख्य केंद्र होता है। इनमें से अधिकतर बातें आपको पता हैं। लेकिन, क्या आपने गौर किया कि सावन महीने में काँवड़ यात्रा में कैसे जाति से लेकर लिंग और अमीर-गरीब तक का फर्क मिट जाता है और बाबा के सामने सब समान हो जाते हैं, एक-दूसरे से समान व्यवहार करते है। सब एक-दूसरे को यात्रा के दौरान ‘बम’ कह कर ही पुकारते हैं। ना किसी का कोई उपनाम होता है, ना कोई जाति।
जब गाँव से काँवड़ियों का जत्था निकलता है, तो उसमें सभी जाति के लोग होते हैं। इस दौरान स्वतः ही सब एक-दूसरे के नाम मर ‘बम’ लगा कर पुकारते हैं। ‘अरे वो अभिषेक बम किधर गया?’, ‘फलाँ गाँव वाले बम कितने बजे निकले?’ – इस तरह के सवाल आपको भोजपुरी, मैथिलि और मगही में सुनाई देंगे। कौन नाई है, कौन धोबी है, कौन ब्राह्मण है, कौन चर्मकार है, कौन क्षत्रिय है, कौन वैश्य है – इस दौरान सब ये भूल जाते हैं।
सबके कपड़े समान रहते हैं। अगर आपने काँवड़ियों के कपड़ों पर गौर किया तो पाएँगे तो सभी भगवा वस्त्र ही धारण किए होते हैं। कोई हाफ पैंट तो किसी ने धोती पहन रखी होती है। ऐसा नहीं कि कोई अमीर है तो वो सूट-बूट में चल रहा होता है और बेचारा गरीब है तो उसने धोती पहन रखी है। यहाँ बाबा के दरबार में हाजिरी लगाने के लिए सबके तन पर उसी प्रकार का वस्त्र होते हैं। हाँ, थोड़ी-बहुत भिन्नता डिजाइन या प्रकार में हो सकती है, लेकिन वो नगण्य ही।
इस दौरान बहुतेरे महिला-पुरुष का भी ऊँच-नीच वाला भेद नहीं रहता, महिलाएँ भी ‘बम’ ही होती हैं। अक्सर काँवड़ियों के किसी एक गाँव या रिश्तेदारी के समूह का नेतृत्व करने वाले को ‘सरदार बम’ कह दिया जाता है तो जो रुपए-पैसों के खर्च को देख रहा हो, वो ‘खजांची बम’ हो गया। बच्चे ‘बाल बम’ हो जाते हैं। इस दौरान बुजुर्ग ‘बमों’ का खास ध्यान रखा जाता है और गाँव में किसी से मतलब न रखने वाले लोग भी यहाँ आकर सामाजिक हो जाते हैं।
किसी को नायक उसकी जाति या रुतबा देख कर नहीं बना दिया जाता, बल्कि उसके अनुभव और कितनी बार उसने काँवड़ यात्रा की है, ये मायने रखता है। नियम-कायदे किसी अमीर के लिए भी होते हैं, जो किसी गरीब के लिए। रास्ते में भोजन-पानी से लेकर सब कुछ समान होता है। सुल्तानगंज से बाबाधाम की दूसरी सबके लिए वही है, सबको साथ जाना है। एक ही प्रकार के वस्त्र में सभी जाति और सभी हैसियत वाले लोग एक-दूसरे की कदर करते हुए आगे बढ़ते हैं।
तभी तो रास्ते में जगह-जगह उनके स्वागत के लिए लोगों ने टेंट लगाए होते हैं। उनके पाँव धोए जाते हैं। उन्हें खाने को थमाया जाता है। रास्ते के स्थानीय लोग खुद ये पहल करते हैं, जिसमें बच्चों से लेकर युवाओं तक हिस्सा लेते हैं। शीतल जल देकर काँवड़ियों का थकान मिटाया जाता है। ये यात्रा नहीं कर रहे होते हैं तो काँवड़ यात्रियों की सेवा कर के ही उस फल को प्राप्त कर लेते हैं। किसी की सेवा करते समय जाति या संपत्ति का ब्यौरा नहीं पूछा जाता, काँवड़ यात्री होना ही काफी है।
कोई ज्योतिर्लिंग ही क्यों, छोटी-छोटी काँवड़ यात्राएँ भी होती हैं। जैसे मैं बिहार के मोतिहारी से हूँ तो वहाँ से कुछ ही दूरी पर स्थित अरेराज के सोमेश्वर महादेव तक भी लोग काँवड़ लेकर जाते हैं, जिनके पास दूर जाने का समय नहीं है। या उम्र के कारण जो दूर नहीं जा पा रहे। मुजफ्फरपुर में बाबा गरीबनाथ तक भी काँवड़ यात्रा जाती है। पूरे भारत में ऐसे सैकड़ों शिवालय हैं और ज्योतिर्लिंगों तक न जा पाने वाले लोग यहाँ ख़ुशी से लेकर महादेव को जल अर्पित करते हैं।
उज्जैन में त्रिवेणी घाट से महाकालेश्वर मंदिर तक काँवड़ यात्रा निकलती है। उत्तराखंड के हरिद्वार और फिर गोमुख और गंगोत्री तक भी काँवड़ यात्रा जाती है। इसी तरह हर मंदिर के लिए जल भरने का स्थान और यात्रा का रूट पहले से तय होता है। हाँ, रास्ते में असामाजिक तत्व कभी-कभी उन्हें ज़रूर परेशान करते हैं, ऐसे सीलमपुर के मुस्लिम बहुल इलाके में उन पर मांस फेंक दिया गया। लेकिन, जाति-धन के भेद को मिटाती ये काँवड़ यात्रा सनातन काल से जारी है, सतत चलती रहेगी।