लोक आस्था का महापर्व छठ भगवान सूर्य और उनकी दो पत्नियों ऊषा और प्रत्यूषा को समर्पित है। ‘छठ’ नामकरण के पीछे इसका अमावस्या के छठे दिन या षष्ठी को होना है। इस बार आज शुक्रवार (17 नवंबर, 2023) से नहाय-खाय के साथ सूर्योपासना के महापर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान की शुरुआत हो चुकी है। 19 तारीख को डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। 20 नवंबर को उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही 4 दिन के महापर्व का समापन हो जाएगा।
पहले दिन छठ व्रतियों ने सुबह-सुबह नदियों में स्नान किया। शनिवार को खरना पर पूरे दिन उपवास कर शाम में सूर्य देव की पूजा कर प्रसाद ग्रहण किया जाएगा। वहीं 19 नवंबर रविवार की शाम डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। इसके बाद सोमवार 20 नवंबर को उगते सूर्य को अर्घ्य देकर आयु-आरोग्यता, यश, संपदा का आशीष लेते हुए पर्व संपन्न होगा।
सूर्य देव और छठी मईया (ऊषा देवी के लिए प्रयुक्त नाम) इस पर्व के आराध्य हैं। इसकी तैयारी अत्यंत श्रमसाध्य और सघन होती है। ऊषा और प्रत्यूषा सूर्य देव की दो शक्ति मानी जाती हैं और उन्हें अर्घ्य दिया जाता है। संध्या काल में दिया जाने वाला पर्व का प्रथम अर्घ्य उनकी अंतिम किरण प्रत्यूषा को दिया जाता है और प्रातः काल का अर्घ्य सूर्य की प्रथम किरण ऊषा को।
छठ पर्व और सूर्य देव की पूजा का उल्लेख भारत के दोनों महाकाव्यों महाभारत और रामायण में है। श्रीराम के वनवास से लौटने के बाद देवी सीता के अयोध्या के राजपरिवार के कुल देवता के रूप में सूर्योपासना और महाभारत में इंद्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी के इस पर्व को मनाने के बारे में लिखित प्रमाण हैं। सूर्य पुत्र कर्ण महाभारत के प्रमुखतम किरदारों में एक है। यही नहीं, देवी ऊषा स्वयं वैदिक काल की देवी मानी गईं हैं, जिनकी उपासना में कई वेद मन्त्र और ऋचाएँ हैं।
समकालीन परम्परा की बात करें तो दीवाली खत्म होते ही विभिन्न राज्यों में बसे आस्थावानों के साथ ही खास तौर से बिहार के लोग 6 दिन बाद होने वाले छठ की तैयारियों में लग जाते हैं। राज्य के हर कोने में छठी मईया के गीत गाए जाते हैं। सबसे प्रचलित गीत बिहार की अपनी बेटी और पद्मश्री से सम्मानित शारदा सिन्हा के होते हैं। “उग हो सुरुज देव” से लेकर “मारबो रे सुगवा धनुष से” तक इन गीतों का जुड़ाव हर बिहारी से होता है।
गाँव-कस्बों में साफ़-सफाई चालू हो जाती है, जो एक सामुदायिक प्रक्रिया होती है। केवल पगार पाने वाले सफाई कर्मचारी ही नहीं, छठ के दौरान साफ़-सफाई पूरे बिहार का जिम्मा होता है। घर से लेकर घाट तक, जहाँ पानी के किनारे अर्घ्य देना होता है, कंकड़-पत्थर, गंदगी, घास-फूस का नामोनिशान मिटा दिया जाता है।
पहला दिन: नहाय-खाय
इस दिन व्रतिन (व्रती महिलाएँ) सुबह-सवेरे नहा कर मौसमी सब्ज़ियों, चावल और दाल का भोजन करती हैं। दाल में अमूमन चना सबसे अधिक प्रचलित है, जबकि सब्ज़ियों में लौकी (जिसे ‘कद्दू’ के नाम से जाना जाता है); साथ में चने का साग भी होता है। व्रतिन का बिना नमक का भोजन प्रसाद होता है, जिसे बाद में पूरा परिवार ग्रहण करता है।
इसी दिन (या अगले दिन, सुविधानुसार) व्रतिन अपने घर के अन्य लोगों की मदद से सूर्य देवता को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद को बनाने में प्रयुक्त होने वाले गेहूँ को धोकर सूखने के लिए फैला देती हैं। घर के बच्चों की ज़िम्मेदारी होती है ध्यान रखना कि गेहूँ में कोई गंदगी न गिर जाए या चिड़िया जूठा न कर दे या बीट न कर दे।
इस दिन सबसे चर्चित मिठाई ठेकुआ की भी तैयारी जम कर होती है। गेहूँ को या तो घर ही में जाँते में पिसा जाता है या पास की चक्की से पिसवाया जाता है। इसी आटे से मिठाइयाँ, रोटी, पूड़ी आदि बनती हैं।
दूसरा दिन: खरना
व्रतिन का पूरे दिन उपवास होता है- वह भी निर्जला। इसके अलावा उन्हें स्वच्छता, शौच-अशौच के भी कठोर नियमों का पालन करना होता है। शाम को वही घर वालों के लिए भोजन भी बनाती हैं, जिसमें पूड़ी और तस्मई (गुड़ या शक़्कर की खीर) प्रमुख होते हैं। तस्मई में एक बूँद पानी का प्रयोग नहीं होता है और दूध उसी गाय का इस्तेमाल किया जाता है जिसका बछड़ा जीवित रहता है।
शाम को भोजन बनाने से खाली होकर व्रतिन पूजा पर बंद कमरे में बैठती हैं। विभिन्न देवताओं, जिनमें ग्राम और कुल के भी देवी-देवता शामिल होते हैं, को नैवेद्य का भोग लगता है। इस नैवेद्य में रोटी, तस्मई और केला होता है, और यह भोग केले के पत्ते पर ही लगता है।
व्रतिन जब पूजा करतीं हैं तो पूरा घर दम साधे बैठे रहता है ताकि उनका ध्यान भंग न हो जाए। उसके बाद वे प्रसाद ग्रहण कर अपने उपवास का पारण करती हैं। वे अपने थाल में कुछ खाना छोड़ कर उठतीं हैं, जिसे घर के बाकी सदस्य प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। कई बार तो घरों में इस प्रसाद को ग्रहण करने के लिए आपस में होड़ लग जाती है, क्योंकि यह माँ के प्रसादों में सबसे अनुपम माना जाता है। इस नैवेद्य के प्रसाद के बाद पूरा घर तस्मई और पूड़ी ग्रहण करता है।
तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य
तीसरे दिन व्रतिन का उपवास फिर शुरू हो जाता है जो लगभग 36 घंटे चलता है। यह भी निर्जला ही होता है। इस दिन परिवार के बच्चे या युवा डलिया और सूप तैयार करते हैं जिनमें ठेकुआ, लडुआ, साँच और घर के पास उगने वाली कोई भी फसल (गन्ना, संतरा, सेब से लेकर मूली, केला, मूँगफली, मकई तक) हो सकते हैं। घर के पुरुष इन डलियों को सिर पर लेकर घर से घाट तक जाते हैं। रास्ते भर में सफाई, पानी के छिड़काव आदि से स्वच्छता और शुचिता बरकरार रखे जाते हैं।
डलिया को घाट पर खोल कर रख दिया जाता है। व्रतिन जल में स्नान कर ढलते सूर्य और प्रत्यूषा की वंदना करती हैं। इसके बाद वे हर डलिया को एक दिए के साथ हाथ में लेतीं हैं और वे और परिवार के अन्य सदस्य डलिया में जल और दूध द्वारा अर्घ्य देते हैं।
इसके बाद व्रतिन फिर एक बार स्नान करतीं हैं और उसके बाद घाट पर पूजा होती है। इसमें आराधना, पुष्पांजलि, धूप चढ़ाना और अगरबत्ती जलाना शामिल होते हैं। डलिया को पुरुष सदस्य वापिस घर ले आते हैं और इसे सहेज कर रात भर के लिए ऐसी जगह स्थापित किया जाता है जहाँ गलती से स्पर्श, पैरों का लगना आदि न हो।
चौथा दिन: ऊषा अर्घ्य
शाम के अर्घ्य की ही प्रक्रिया इसमें दोहराई जाती है। डलिया लेकर घाट पर पहुँचा जाता है, जहाँ व्रतिन पानी में उतर कर सूर्योदय का इंतज़ार करतीं हैं। जैसे सूर्य देव देवी ऊषा के साथ प्रकट होते हैं, युगल को जल और दूध का अर्घ्य शाम की ही भाँति पहली किरण के साथ दिया जाता है।
इसके बाद डलिया को वापिस घर ले जा कर परिवार के लोगों और पड़ोसियों में प्रसाद वितरित होता है। व्रतिन के जलाशय से बाहर आने तक पूरा परिवार भी उनके साथ खाली पेट प्रतीक्षा करता है।
व्रतिन जलाशय से बाहर आकर नए वस्त्र धारण करतीं हैं और घर की अन्य महिलाओं के साथ वापिस घर जातीं हैं। रास्ते में खेतों में वे मृदा (मिट्टी) की भी पूजा करतीं हैं। इसे भूमि की उर्वरा शक्ति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन माना जाता है।
जब व्रतिन घर पहुँचती हैं तो घर के सभी सदस्य उनके चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। उन क्षणों में जब वे अपनी सभी इन्द्रियों और अंगों के आवेश को स्थिर किए हुए होतीं हैं, तो उनकी वाणी में माता उषा या छठी मईया का निवास माना जाता है।
डलिया के प्रसाद के अलावा इस वक्त का मुख्य भोजन कद्दू (लौकी)-भात होता है।
डलिया की सामग्री की महत्ता
हर परिवार में अलग-अलग संख्या में डलिया होती हैं। एक, दो, तीन से लेकर किसी-किसी परिवार में संख्या दस के परे भी जा सकती है। यह संख्या इस पर निर्भर करती है कि घर के लोगों ने छठी मईया से कितनी डलिया की मनौती मानी थी।
कई बार मान लीजिए कि कोई अगर गंभीर रूप से बीमार है तो घर की वयोवृद्ध दादी-नानी कुछ वर्षों (या हो सकता है हमेशा के लिए भी) एक निश्चित बड़ी संख्या की मनौती मान लें। इसमें कई बार तो ऐसा भी होता है कि लोग अपने ही नहीं, आस-पड़ोस के लोगों के लिए मनौती मान लेते हैं, जैसे, “हे छठी मईया, मेरा ये बेटा (गाँव का मुखिया, जिसका मान लीजिए एक्सीडेंट हो गया था) बिस्तर से उठ खड़ा हो, तो मैं जब तक ये जिएगा, एक डलिया फल हर साल चढ़ाऊँगी।”
‘कष्ट लेना’
यह अर्घ्य के दो दिनों की शाम और सुबह में काफी आम है। कई लोग, अमूमन पुरुष, छोटी चाकू या ऐसी ही किसी धातु वाली वस्तु के साथ सूर्य की ओर चेहरा कर दंड प्रणाम करते हुए घाट तक जाते हैं।
असल में वे क्या कर रहे होते हैं:
वे अपने घर से निकल कर सूर्य को प्रणाम करते हैं, और ज़मीन पर लेट कर अपने शरीर की लम्बाई जितनी दूरी नापते हैं। इस दूरी का वे ज़मीन पर कील या चाकू आदि से निशान लगा देते हैं। उसके बाद वे उठ कर फिर से सूर्य को प्रणाम करते हैं, निशान वाली जगह पैर जमा कर फिर ज़मीन पर लेट जाते हैं, सिर की जगह पर निशान लगाते हैं… यह प्रक्रिया घाट पहुँचने तक जारी रहती है।
यह केवल सुनने में ही नहीं, करने में भी बहुत ही कठिन प्रक्रिया है। इसे करने वाला या तो खुद इसकी मन्नत माना होता है, या उसके लिए उसकी माँ, दादी-नानी ने उसके कल्याण के लिए यह मन्नत मानी होती है। इस आराधना विधि को ‘कष्ट लेना’ कहा जाता है।
यह इतना दुष्कर और जटिल है कि इस मन्नत का उपयोग केवल बहुत ही बड़ी विपत्ति के उपाय में किया जाता है- जैसे अगर किसी का एक्सीडेंट हो गया है, या किसी अन्य कारण से प्राण संकट में पड़ गए हों। तभी इस कष्ट के अर्पण के बदले देवताओं से सहायता माँगी जाती है।
हालाँकि यह ‘कष्ट लेना’ क्रिया अमूमन केवल पुरुष ही करते हैं, लेकिन इससे मिलता-जुलता एक संस्करण स्त्रियों के लिए भी होता है। उन्हें उसके लिए जलाशय में सबसे पहले पहुँच जाना होता है, उन महिलाओं के पहले जो ‘कष्ट’ वाली मनौती नहीं किए होतीं हैं और अर्घ्य की प्रक्रिया समाप्त होने पर उनसे बाद में निकलना होता है। अक्टूबर अंत-नवंबर के कड़ाके की ठंड में सूर्योदय के पहले से ऐसा करना बेहद मुश्किल होता है।
बिहार में सबसे प्रचलित छठी मईया से मॉं, दादी, नानी हमेशा ही प्रार्थना करती रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि माँ उषा अपने बच्चों का सदैव ध्यान रखतीं हैं। यह ‘कष्ट’ माँ उषा की संतान होने के प्रति आभार प्रकट करने का एक ज़रिया है।
विश्वास ही हम सब को एक सूत्र में पिरोता है। छठ पूजा पूरे परिवार को साथ ले आती है। व्रतिन को घर में सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है और बच्चों में उनके थके हाथ-पैर दबाकर, सिर पर मालिश कर उनका आशीर्वाद लेने की होड़ लगी रहती है।
यह पर्व पृथ्वी पर साक्षात् दिखने वाले एकमात्र देवता को धन्यवाद करने का एक तरीका है, जिनके अनुग्रह से पृथ्वी पर जीवन और प्राण का संचार होता है। यह उन सूर्य देव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का तरीका है, जिनकी किरणों के बिना पूरा ब्रह्माण्ड मृत हो जाएगा। वे केवल जीवन ही नहीं देते। अपनी किरणों से व्याधियों का नाश कर पालन भी करते हैं। छठ पर हम उन्हें और उनकी शक्तियों ऊषा और प्रत्यूषा को अपना आभार ज्ञापित करते हैं।
(पहली बार मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित पूर्व संपादक अजीत भारती के इस लेख में जरुरी एडिटोरियल बदलाव किए गए हैं।)