पूरे देश में हर वर्ष गणेश चतुर्थी का त्योहार धूम-धाम से मनाया जाता है, ख़ासकर महाराष्ट्र में तो घर-घर में गणपति बप्पा विराजते हैं और हर गली-मोहल्ले में एक पंडाल तना हुआ दिख जाता है। महाराष्ट्र में गणपति पूजा के प्रति उत्साह को फिर से जीवित करने का श्रेय महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक को जाता है। लेकिन, क्या आपको पता है कि बिहार के मधेपुरा में उससे पहले गणेश पूजा भव्य तरीके से आयोजित की जाती थी। हालाँकि, कुछ कारणों से ये आयोजन थम गया था।
बिहार के मधेपुरा में महाराष्ट्र से भी पहले भव्य गणेश पूजा मनाए जाने का जिक्र महामहोपाध्याय सर गंगानाथ झा की आत्मकथा में मिलता है। दिसंबर 1872 में मधुबनी के सरिसब पाही में जन्मे गंगानाथ झा के बारे में बता दें कि वो संस्कृत के अलावा भारतीय व बौद्ध दर्शन के जानकार थे। उन्होंने कई संस्कृत पुस्तकों का अनुवाद किया। वो दरभंगा के राजपरिवार से ताल्लुक रखते थे। वो दरभंगा राजपरिवार के लाइब्रेरियन और इलाहाबाद के मुइर कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक रहे थे।
उन्होंने अपनी पुस्तक में बताया है कि भाद्रपद के महीने में हर वर्ष गणेश पूजा का आयोजन किया जाता था। उन्होंने बताया है कि महाराजा के भाई श्रीनंदनजी इसे भव्य स्तर पर आयोजित कराया करते थे और ये पूरे एक सप्ताह तक चलता था। खुद गंगानाथ झा इसमें बड़े उत्साह से हिस्सा लेते थे। इस दौरान उनका मन करता था कि वो भी इस पूजा में इस पूजा को करने की तीव्र इच्छा रखते थे। उन्होंने श्रीनंदनजी को बताया तो उन्होंने भी इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।
मधेपुरा के शंकरपुर में भव्य गणेश पूजा
श्रीनंदनजी ने सुझाव दिया कि उनके ही स्थान पर दोनों मिल कर गणपति पूजा करें और एक की जगह 2 मूर्तियाँ स्थापित की जाएँ। गंगानाथ झा को भी ये पसंद आया। हालाँकि, उस दौरान महाराजा और श्रीनंदनजी के बीच कुछ विवाद भी चल रहे थे और गंगानाथ झा श्रीनंदनजी के करीबी थे। महाराजा ने खुद दरभंगा में गणेश पूजा की शुरुआत कर दी। उन्होंने अगले ही साल गणेश पूजा के आयोजन की घोषणा की और गंगानाथ झा को इसे संपन्न कराने का पूरा प्रभार सौंपा।
हालाँकि, गंगानाथ झा ने उन्हें पत्र में लिखा कि उन्होंने श्रीनंदनजी के साथ मधेपुरा स्थित शंकरपुर में ये पूजा करने की शपथ ली है, ऐसे में वो उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर पाएँगे। पत्र पढ़ कर महाराजा नाराज़ हुए। जब गणेश पूजा आई तो महाराजा राजनगर चले गए और राज की अनुमति से गंगानाथ झा ने भी शंकरपुर जाकर पूजा आरंभ कर दी। श्रीनंदनजी ने दरभंगा महाराज से 1 सप्ताह के लिए उनके राजपंडित की सेवाएँ माँगी और इसे भी उन्होंने स्वीकार कर लिया था।
हालाँकि,. इस घटना से काफी पहले महराजा रूद्र सिंह के पोते और महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह के भाई और आप्त सचिव बाबू जनेश्वर सिंह ने 1886 के आसपास ही वर्तमान मधेपुरा जिले के शंकरपुर में सार्वजनिक रूप से गणेश पूजा की शुरुआत की थी, यानी महाराष्ट्र से लगभग 7 वर्ष पहले। उस समय कोसी क्षेत्र में शंकरपुर रियासत का बड़ा प्रभाव था। 19वीं शताब्दी के आखिर में गंगानाथ झा को दरभंगा राजपरिवार की नौकरी से निकाल दिया गया था, क्योंकि उन्होंने उनकी बात न मान कर शंकरपुर में गणेश पूजा करने का अपना वादा निभाया था।
राजपंडित ने पूजा के दौरान उन्हें ये जानकारी दी थी और इसके अगले ही दिन डाक से इसका आधिकारिक आदेश आ गया। इसमें लिखा था कि चूँकि गंगानाथ झा ने तब मुख्यालय छोड़ा है जब उनकी ज़रूरत थी, इसीलिए उन्हें नौकरी से निकाला जाता है। उन्होंने इस बात से भी नाराज़गी जताई कि श्रीनंदनजी ने उनकी सेवाएँ लेने के लिए महाराजा की अनुमति नहीं ली थी। इसके बाद गंगानाथ झा इलाहाबाद की तरफ रवाना हो गए थे और वहाँ प्रोफेसर बने। 1923 में उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कुलपति का पद सँभाला। वहाँ उनके नाम पर हॉस्टल भी है।
उस समय दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह हुआ करते थे, जबकि उनके भाई जनेश्वर सिंह शंकरपुर में शासन करते थे। दोनों ही महाराजा रूद्र सिंह के पोते थे। जनेश्वर सिंह ने शंकरपुर में पुस्तकालय, संस्कृत पाठशाला, लक्ष्मीवती एकेडमी, और धर्मशाला का निर्माण कराया। आज भी मधेपुरा में गणेश पूजा धूमधाम से मनाई जाती है। महाराष्ट्र में इस उत्सव ने ऐसा रूप लिया कि इसका राष्ट्रीयकरण हो गया और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में ये भारतीयों की एकता का भी प्रतीक बना।
The common belief that Ganesh Chaturthi public celebrations began in Maharashtra is incorrect. In reality, the public celebrations were started in Shankarpur, Madhepura district of Bihar, in 1886, 7 years prior to its adoption in Maharashtra. The practice ended after a few years… https://t.co/NF80aGmn4h
— Sanjeev Singh (@sanjeevsinghx) September 7, 2024
महाराष्ट्र की तरह बिहार में गणेश पूजा को राजनीतिक संरक्षण नहीं मिल पाया, राजपरिवारों से सहयोग न मिलने के कारण ये सरकारी उपेक्षा का भी शिकार हुआ और इसे बंद करना पड़ा। शंकरपुर अब मधेपुरा का एक प्रखंड है और एक महत्वपूर्ण स्थल है, लेकिन यहाँ की गणेश पूजा की परंपरा पर सरकारों ने ध्यान नहीं दिया। दरभंगा राजपरिवार के आप्त सचिव जनेश्वर सिंह को भी धीरे-धीरे लोग भूल गए। अब कोसी और सीमांचल को मिथिला से अलग प्रदेश माना जाता है।
महाराष्ट्र में तिलक ने गणेश उत्सव को किया जीवित
ये बात है महाराष्ट्र के उस दौर की जब कट्टरपंथी मुस्लिमों ने हिन्दुओं की नाक में दम कर रखा था और एक तरफ अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरें तो थीं ही। सन् 1894 में उन्होंने अपने समाचार-पत्र ‘केसरी’ में लोगों को गणेश उत्सव मनाने की सलाह दी। बाल गंगाधर तिलक का मानना था कि प्राचीन काल में मेले आदि देश की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के सूचक थे। उन्होंने बताया था कि कैसे प्रबुद्ध लोगों का साथ मिल जाए तो ऐसे आयोजन देश के बड़े काम आ सकते हैं, लोगों को इनके माध्यम से शिक्षित कर राजनीतिक आंदोलन को विस्तार दिया जा सकता है।
बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीयता को मजबूत करने के लिए धर्मबुद्धि को जागृत करने का रास्ता सुझाया। गणेश उत्सव पहले भी मनाया जाता रहा था, लेकिन घरों में ही। सार्वजनिक रूप से इसे नहीं मनाते थे। पुणे (तब पूना) में इसकी शुरुआत हुई। मंदिरों और चौराहों पर गणेश जी की मूर्तियाँ स्थापित होने लगीं। इस दौरान भजन-कीर्तन भी होता था। दारुवाला पुल के पास इस उत्सव के दौरान हिन्दुओं और मुस्लिमों में झड़प भी हुई। हालाँकि, गणेश उत्सव के दौरान इसका ध्यान रखा जाता था कि किसी की सांप्रदायिक भावनाएँ आहत न हों।
इसी तरह सन् 1895 में धूलिया में दंगे हो गए थे। मुस्लिम भीड़ इतनी उग्र हो गई थी कि कलक्टर की हत्या को ही उतारू हो गई। पुलिस को गोली चलानी पड़ी। मुस्लिम भीड़ की तब वही माँग थी, जो आज है। उनकी सोच थी कि वो भले 5 बार दिन भर में मस्जिदों से चिल्लाएँ, लेकिन कोई हिन्दू अपने उत्सव पर बाजा न बजाए। तिलक ने इसे निरर्थक और तर्कहीन बताया। इस तरह गणेश उत्सव भारत की सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण के साथ-साथ राजनीतिक शिक्षा का भी माध्यम बना, यहाँ जात-पात का भी कोई भेद नहीं था।
तब मुस्लिमों को प्रशासन मुहर्रम को लेकर विशेष सुविधाएँ देता था, प्रत्युत्तर में गणेश उत्सव में भी हिन्दुओं ने वही सुविधाएँ माँगी। वर्ग भेद को मिटा कर हर साल हजारों गणपति प्रतिमाएँ स्थापित और विसर्जित की जाने लगीं। तिलक ने इस दौरान नरम दल और कॉन्ग्रेस की आपत्तियों को दरकिनार किया। इसी तरह सन् 1895 में रायगढ़ में पहला शिवाजी उत्सव प्रारंभ हुआ, उससे पहले छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि उपेक्षित अवस्था में थी। बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय व सांस्कृतिक एकता के लिए 2 महँ उत्सवों को जीवित किया।