आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अहोबिलम मंदिर को लेकर एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि कुरनूल में अहोबिलम मंदिर के संचालन और संरक्षण के लिए एक ‘कार्यकारी अधिकारी’ को नामित करने का राज्य का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 26 (डी) का उल्लंघन है और मठाधिपतियों के अधिकारों में हस्तक्षेप करता है। मुख्य न्यायाधीश प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डीवीएसएस सोमयाजुलु की खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि मंदिर तमिलनाडु में अहोबिलम मठ का एक अंग है।
अदालत ने राज्य के इस दावे से असहमति जताई कि मंदिर और मठ अलग-अलग संगठन हैं। पीठ ने कहा कि मठ वर्तमान में तमिलनाडु राज्य में स्थित है और मंदिर आंध्र प्रदेश राज्य में स्थित है, इसलिए यह दावा गलत है कि मंदिर मुख्य मठ से संबंधित धार्मिक पूजास्थल नहीं रह जाता है। अदालत ने यह भी कहा कि एक समय दोनों स्थान एक ही संयुक्त राज्य मद्रास के अंतर्गत थे।
अदालत ने कहा, “अहोबिलम मंदिर अहोबिलम मठ का एक अभिन्न और अविभाज्य हिस्सा है, जिसे हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार और श्री वैष्णववाद सम्बंधित आध्यात्मिक सेवा प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था। जीयार अहोबिलम देवस्थानम के ट्रस्टी हैं और चूँकि सरकार अहोबिलम मठ के लिए एक कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति नहीं कर सकती है, इसलिए इसे मठ से अलग मानकर मंदिर के लिए एक कार्यकारी अधिकारी नियुक्त करने की कोई अधिकार नहीं है। मंदिर मठ का एक हिस्सा है, इसलिए एक कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 26 (डी) का उल्लंघन है। सरकार द्वारा कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति जीयार/मठाधिपतियों के प्रशासन के अधिकार को प्रभावित करता है।“
अदालत ने आगे कहा कि आध्यात्मिक/धार्मिक या सांप्रदायिक एकरूपता होने के बावजूद मठ और मंदिर के दूर होने का तथ्य महत्वहीन है। भले ही मठ और मंदिर भौगोलिक रूप से अलग हों, अगर संप्रदाय, प्रथाओं, अनुष्ठानों आदि में एकता या एकरूपता है, तो मंदिर को मठ से जुड़ा होना चाहिए। कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति से मठाधिपतियों की शक्तियों को नकारा या छीना नहीं जा सकता है।
पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य को मठ की निगरानी और शासन करने का सामान्य अधिकार नहीं दिया गया है और इसके संचालन में हस्तक्षेप केवल तभी किया जाना चाहिए, जब ऐसा करने का उचित कारण (जैसे खराब प्रबंधन) हो। हालाँकि, इस मामले में यह पाया गया कि राज्य द्वारा अधिकारी को नामांकित करने करने का कोई आधार नहीं था।
अदालत ने कहा कि 1927 के बंदोबस्ती अधिनियम से शुरू होकर 1951, 1959 और 1966 के अधिनियमों से होते हुए 1987 के अधिनियम तक, मंदिर मठाधिपतियों के प्रबंधन के अधीन रहा। याचिकाकर्ताओं (अधिकांश भक्त) ने इससे पहले कहा था कि एपी चैरिटेबल और हिंदू धार्मिक संस्थान और बंदोबस्ती अधिनियम के अनुसार, राज्य को मठ या मंदिर के लिए कार्यकारी अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि अधिनियम के अध्याय 5 के तहत मठ को एक विशिष्ट दर्जा और अपने स्वयं के मामलों को विनियमित करने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
सरकार के प्रतिनिधि, महाधिवक्ता एस श्रीराम ने तर्क दिया कि अहोबिलम मठ और मंदिर स्वतंत्र संगठन हैं। उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि एक मंदिर, मठ के विपरीत सार्वजनिक धार्मिक पूजा का स्थान है, जो एक निश्चित समुदाय की सेवा करता है और आध्यात्मिक सेवाओं जैसी गतिविधियों की मेजबानी करता है। उन्होंने कहा कि मठ के संबंध में अधिनियम द्वारा लगाई गई सीमाएँ मंदिर पर लागू नहीं होती हैं।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद, अदालत ने अपने आदेश में कहा, “आंध्र प्रदेश राज्य के पास कानून के तहत श्री अहोबिला मठ परम्परा अधिना श्री लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी देवस्थानम (अहोबिलम मठ मंदिर) के कार्यकारी अधिकारी को नियुक्त करने का कोई अधिकार क्षेत्र या अधिकार नहीं है।”