मध्य प्रदेश का धार जिला अपनी भोजशाला के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन अब यह भोजशाला विवादों में है। दरअसल, यहाँ माँ वाग्देवी की प्रतिमा के प्रकट होने का दावा किया जा रहा है। वहीं प्रशासन ने इस दावे को नकारते हुए प्रतिमा हटा दी है। भोजशाला का मामला कोर्ट भी पहुँच चुका है।
क्या है ताजा मामला
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 9 सितंबर की रात सोशल मीडिया पर एक वीडियो तेजी से वायरल हुआ। वीडियो में एक प्रतिमा दिखाई दे रही थी। इसको लेकर दावा किया जा रहा है कि यह प्रतिमा माँ वाग्देवी की है और यहाँ प्रकट हुई है। यह भी दावा किया जा रहा है कि उसी रात व्हाट्सएप्प पर भी प्रतिमा प्रकट होने को लेकर मैसेज वायरल हुआ था।
प्रतिमा प्रकट होने का वीडियो वायरल होने के बाद प्रशासन ने सुबह करीब 4 बजे भोजशाला से यह प्रतिमा हटाकर किसी गुप्त स्थान पर रखवा दी। साथ ही भोजशाला को बंद कराकर वहाँ की सुरक्षा चाक-चौबंद करा दी गई। एसपी इंद्रजीत बाकलवार ने इसे शरारती तत्वों की साजिश बताया है। साथ ही कहा कि भोजशाला की सुरक्षा के लिए लगाई गई तार को काटकर कुछ लोगों ने यहाँ प्रतिमा रखी है। सीसीटीवी फुटेज के आधार पर मामले की जाँच की जा रही है। उन्होंने सोशल मीडिया पर भ्रामक खबर फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की भी बात कही है।
‘अमर उजाला’ ने अपनी रिपोर्ट में हिंदू संगठनों के हवाले से लिखा है कि उनका कहना है कि जिस तरह से अयोध्या के राम मंदिर में रामलला प्रकट हुए थे। ठीक उसी तरह यहाँ माँ वाग्देवी की प्रतिमा प्रकट हुई है। ‘भोज उत्सव समिति’ के संयोजक अशोक जैन का कहना है कि प्रशासन ने जो मूर्ति हटाई है उसे वापस स्थापित की जाए। माँ वाग्देवी प्रकट हुईं हैं, यहाँ उनकी विधिवत पूजा की जाएगी। मूर्ति अगर वापस स्थापित नहीं की गई तो उग्र आंदोलन होगा।
क्या है विवाद की जड़
हिंदू संगठन इस भोजशाला को माँ वागेश्वरी यानी माँ सरस्वती का मंदिर मानते हैं। हिंदुओं का कहना है कि धार के राजा ने यहाँ कुछ मुस्लिमों को नमाज पढ़ने की इजाजत दी थी। वहीं मुस्लिम इसे भोजशाला-कमाल-मौलाना मस्जिद कहते हैं। उनका दावा है कि वह यहाँ सालों से नमाज पढ़ते आ रहे हैं। बताया जाता है कि साल 1909 में धार रियासत ने इसे संरक्षित इमारत घोषित किया था। यह भोजशाला आमतौर पर शुक्रवार के शुक्रवार ही खुलती थी। इसके बाद साल 1935 में तत्कालीन राजा ने यहाँ मुस्लिमों को शुक्रवार को नमाज पढ़ने की अनुमति दे दी।
साल 1995 में हिंदू संगठनों ने नमाज पढ़ने का विरोध किया। इसके बाद यहाँ प्रत्येक मंगलवार को माँ वागेश्वरी की पूजा करने की भी अनुमति दे दी गई। हालाँकि 12 मई, 1997 को तत्कालीन कलेक्टर ने न केवल भोजशाला में लोगों के आने पर प्रतिबंध लगा दिया बल्कि मंगलवार को होने वाली पूजा पर भी रोक लगा दी। हालाँकि, बसंत पंचमी को मंदिर खुलता था और हिंदू पूजा करते थे। दिलचस्प बात यह है कि हिंदुओं की पूजा पर तो रोक थी। लेकिन शुक्रवार को होने वाली नमाज पर रोक नहीं लगाई गई थी। हालाँकि विरोध के बाद 31 जुलाई, 1997 को पूजा पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया।
प्रतिबंध लगने और हटने का यह सिलसिला यहीं नहीं थमा। साल 1998 में पुरातत्व विभाग ने यहाँ किसी के भी प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन 2003 में यह प्रतिबंध फिर हटा दिया गया। मंगलवार की पूजा और शुक्रवार की नमाज के साथ ही यहाँ हर साल बसंत पंचमी पर पूजा चली आ रही थी। लेकिन साल 2013 और 2016 में बसंत पंचमी और शुक्रवार एक ही दिन पड़ने के चलते तनाव का माहौल बन गया था।
भोजशाला का इतिहास
परमार राजवंश के शासक राजा भोज ने धार में एक महाविद्यालय की स्थापना की थी जिसे बाद में भोजशाला के रूप में जाना जाने लगा। राजा भोज माता सरस्वती के महान उपासक थे और संभवतः यही कारण था कि उनकी रुचि शिक्षा एवं साहित्य में बहुत ज्यादा थी। राजा भोज ने ही सन् 1034 में भोजशाला के रूप में एक भव्य पाठशाला का निर्माण किया और यहाँ माता सरस्वती की एक प्रतिमा स्थापित की। इसे तब सरस्वती सदन कहा था। भोजशाला को माता सरस्वती का प्राकट्य स्थान भी माना जाता है।
भोजशाला मंदिर से प्राप्त कई शिलालेख 11वीं से 13वीं शताब्दी के हैं। इन शिलालेखों में संस्कृत में व्याकरण के विषय में वर्णन किया गया है। इसके अलावा कुछ शिलालेखों में राजा भोज के बाद शासन सँभालने वाले राजाओं की स्तुति की गई। कुछ ऐसे भी शिलालेख भी हैं जिनमें शास्त्रीय संस्कृत में नाटकीय रचनाएँ उत्कीर्णित हैं। माता सरस्वती के इस मंदिर को कवि मदन ने अपनी रचनाओं में वर्णित किया था। यहाँ प्राप्त हुई माता सरस्वती की मूल प्रतिमा वर्तमान में लन्दन के संग्रहालय में है।
माता सरस्वती का मंदिर होने के साथ भोजशाला भारत के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक था। इसके आलावा यह स्थान विश्व का प्रथम संस्कृत अध्ययन केंद्र भी था। इस विश्वविद्यालय में देश-विदेश के हजारों विद्वान आध्यात्म, राजनीति, आयुर्वेद, व्याकरण, ज्योतिष, कला, नाट्य, संगीत, योग, दर्शन आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते थे। इसके अतिरिक्त इस शिक्षा केंद्र में वायुयान, जलयान तथा कई अन्य स्वचालित (ऑटोमैटिक) यंत्रों के विषय में भी अध्ययन किया जाता था।
इस्लामिक आक्रमण
ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, सन् 1305 में मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला पर आक्रमण किया और उसे नष्ट कर दिया। बाद में सन् 1401 में दिलावर खां ने भोजशाला के एक भाग में मस्जिद का निर्माण करा दिया। अंततः सन् 1514 में महमूद शाह खिलजी ने भोजशाला के शेष बचे हिस्से पर मस्जिद का निर्माण करा दिया। समय के साथ यहाँ विवाद बढ़ता गया और अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया।
हिन्दू जनजागृति समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1305 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय भोजशाला के शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भी खिलजी की इस्लामिक सेना का विरोध किया था। खिलजी द्वारा लगभग 1,200 छात्र-शिक्षकों को बंदी बनाकर उनसे इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया लेकिन इन सभी ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इसके बाद इन विद्वानों की हत्या कर दी गई थी और उनके शव को भोजशाला के ही विशाल हवन कुंड में फेंक दिया गया था। इस तरह एक और हिन्दू मंदिर इस्लामिक कट्टरपंथ की भेंट चढ़ गया।
इसके बाद 1875 में इस भोजशाला में खुदाई हुई थी। इस खुदाई में माँ वागेश्वरी की प्रतिमा निकली थी। अंग्रेजी आक्रांता इस प्रतिमा को ब्रिटेन ले गए। अब यह प्रतिमा लंदन स्थित संग्रहालय में रखी हुई है। भोजशाला मुक्ति आंदोलन इस भोजशाला को मुस्लिमों से मुक्त कराने के साथ ही लंदन में रखी प्रतिमा को वापस लाने की माँग करता रहा है। इसको लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच में याचिका भी दायर की गई है। याचिका में पूरे भोजशाला परिसर की फोटो और वीडियोग्राफी कराकर यहाँ नमाज बंद कराने की माँग की गई है।