खबर आ रही है कि केरल के वन विभाग के मुताबिक सबरीमाला के मंदिर में दर्शन के लिए आने वाले भक्तों (भगवान अय्यप्पा के भक्त) के ‘स्वामिये शरणं अय्यप्पा’ का जप करने से आसपास के जंगलों में ध्वनि प्रदूषण होता है। इसे रोकने के लिए वन विभाग द्वारा केंद्र सरकार को दी गई रिपोर्ट में अय्यप्पा के दर्शन के लिए आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या पर लगाम कसने की अनुशंसा की गई है। इस खबर की कोई ‘व्याख्या’ बेकार है क्योंकि रिपोर्ट लिखने वाले, पढ़ने वाले, जिसे अनुशंसा दी गई है- उन सभी को पता है कि यह क्यों किया गया है। यह ‘सेक्युलर’ सरकारी मशीनरी द्वारा एक और हिन्दूफ़ोबिक आघात है हिंदुत्व/हिन्दू धर्म पर।
महज़ अपमान नहीं, खुला हमला है
मंदिर में श्रद्धालुओं की आवक रोकने का यह प्रयास केवल एक मंदिर, एक आस्था या धार्मिक भावना, एक परम्परा का “अपमान” नहीं है- यह एक पूरे ‘इकोसिस्टम’ पर, मंदिरों के इर्द-गिर्द बुने हुए सामाजिक ताने-बाने पर हमला है। यह कोशिश है अय्यप्पा के आसपास खड़े पतनमतिट्टा जिले के (जहाँ सबरीमाला मंदिर स्थित है), और केरल राज्य के पूरे हिन्दू समाज के आपसी धार्मिक संबंध को नष्ट करने की।
यह कोशिश है सबरीमाला और अय्यप्पा के प्रति श्रद्धा की वो डोर तोड़ने की, जिससे लोग ऐसे जुड़े कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के मुकदमे के खतरे के बाद भी देश के हर कोने से लाखों (या शायद करोड़ों) लोगों ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर में ‘स्वामिये शरणम्’ लिखकर अपना आक्रोश जताया, अपने स्थानीय संघ-भाजपा-कॉन्ग्रेस नेताओं से मिलकर इस फ़ैसले को बदलने का दबाव बनाया और लिबरल गैंग के खिलाफ सबरीमाला-अय्यप्पा संघर्ष और प्रतिरोध के देवता बन गए हैं।
मंदिरों की महत्ता
मंदिर कई स्तरों पर हिन्दू धर्म या हिंदुत्व (Hindu-ness) को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह केवल एक ‘प्रतीक’ मात्र नहीं हैं ईश्वर का, जिसका केवल ‘कथित’ महत्त्व हो। अध्यात्म और योग के स्तर पर भी मंदिर महत्वपूर्ण हैं, और सामाजिक स्तर पर भी। हिन्दू समाज मंदिरों के इर्द-गिर्द बना समाज रहा है, और हर गाँव-शहर के छोटे-बड़े ग्राम देवता-कुल देवता के मंदिर से लेकर ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ आदि श्रद्धालुओं के समुदाय के, उनके ‘इकोसिस्टम’ की धुरी रहे हैं।
जब लोग शाम को काम-धंधे से घर लौटते समय मंदिर में भगवान को हाथ जोड़ने जाते थे, या रात को खाना खाने के बाद शयन-आरती में शामिल होते थे, तो उनमें से अधिकाँश केवल वहाँ पंद्रह मिनट बैठकर भजन-ध्यान-जप नहीं करते थे, बल्कि महत्वपूर्ण बातों का आदान-प्रदान, आस-पास के समाज में क्या चल रहे है, फलाने विषय पर धर्म और शास्त्र क्या कहता है, किस हद तक सैकड़ों या हज़ारों वर्ष पहले कही गई वह बात समकालीन महत्व रखती है- इन सब पर चर्चा होती थी।
धर्म की धारा ऐसे ही हर स्थानीय समुदाय में अपने विशिष्ट ‘स्वाद’ के साथ जीवित और जीवंत रहती थी। वही शिव ऐसे ही स्थानीय आस्था और भक्ति के प्रभाव के चलते नेपाल में पशुपतिनाथ हैं, गुजरात में सोमनाथ, और झाखण्ड में बैद्यनाथ और तमिल नाडु में रामेश्वरम्- और फिर भी सभी शिव हैं, इसमें कोई शंका नहीं। और ऐसा दैनिक जुड़ाव होने के चलते मंदिर और धर्म केवल एक विचार या विचारधारा नहीं थे, सामुदायिक जीवन के केंद्र में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते थे।
और इसी की बानगी सबरीमाला में देखने को मिली। मंदिर के ‘क्षेत्रम्’, उसके आगम शास्त्र के नियम और मंदिर के देवता की ही शास्त्रोक्त इच्छा के विपरीत जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू करने में केरल की कम्युनिस्ट सरकार को नाकों चने चबाने पड़ गए। दो-तीन महीने तक श्रद्धालु वहाँ घेरा बनाकर पहरा देते रहे ताकि कोई अविश्वासी महिला उनके देवता के क्षेत्रम् को भङ्ग न कर दे।
अंत में केवल अपने अभिमान की तुष्टि के लिए दो महिलाओं का प्रवेश भी आसुरिक केरल सरकार को अँधेरी रात में ही कराना पड़ा- और उन दो के बाद पूरा मामला फिर से ठप हो गया। लेकिन इस अनुभव से हिन्दूफ़ोबिकों की इस पीढ़ी को वह समझ में आ गया जो उनसे पहले कम्युनिस्ट इतिहासकारों और नीति-निर्माताओं, उससे पहले हिंदुस्तान में ईसाईयत फैलाना चाह रहे ईसाई मिशनरियों को समझ में आया था (इस्लामिक आक्रांताओं को यह शुरू से पता था, यह उनके हमलों से साफ़ पता चलता है)- बिना मंदिर-इकोसिस्टम को विखंडित किए, उससे लोगों का ‘तलाक’ कराए, ‘कॉकरोच’ की तरह न मरने की ज़िद पकड़े हिन्दू धर्म को नहीं मारा जा सकता।
हर मंदिर, हर परम्परा पर हमले का template एक ही होता है
हिन्दूफ़ोबिक मीडिया, राजनीतिक और सरकारी गिरोह का एक ही template है- जो वे बार-बार इस्तेमाल करते हैं हिन्दू मंदिरों और परम्पराओं को प्रतिबंधित करने के लिए। और हिन्दू हर बार उसमें फँस जाते हैं- और इसका अहसास उन्हें तब होता है, जब बहुत देर हो जाती है।
पहले चरण में पर्यावरण, प्रगतिशीलता, नारी-अधिकार आदि की आड़ लेकर हिन्दुओं की परम्पराओं का दानवीकरण होता है। और कुछ नहीं मिलता तो केवल ‘चलो, सुधार-के-लिए सुधार करते हैं’ के बहाने हिन्दू आस्था पर कीचड़ उछाला जाता है। (उदाहरण के तौर पर, एक महिला के हिन्दू रीति-रिवाजों से इतर शादी करने के निजी निर्णय को, जिसमें अपने-आप में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, हिन्दूफोबिया की मानसिकता के चलते हिन्दू विवाह-प्रणाली को पूरी तरह दानवीकृत करने के लिए इस्तेमाल किया गया) इस चरण में मीडिया (पहले मुख्यधारा, और अब मुख्यधारा के अलावा सोशल मीडिया भी) के इस्तेमाल से ‘माहौल’ बनाया जाता है।
याद करिए दही-हांडी, जल्ली-कट्टू, दिवाली पर ‘प्रगतिशील’ प्रतिबंध लगने के सालों पहले से कैसे इन उत्सवों के खिलाफ विभिन्न राजनीतिक, सांस्कृतिक, और यहाँ तक कि ‘लाइफस्टाइल’ पत्र-पत्रिकाओं में लेख छपने लगे थे। यही सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है- इसमें टीवी पर आ रहे विज्ञापन, फ़िल्में, पत्रकार, और यहाँ तक कि स्कूल की किताबों की सहायता से ‘हिन्दू धर्म समाज के लिए खराब है’ का संदेश धीरे-धीरे करके घोला जाता है।
दूसरे चरण में मीडिया के माहौल बना लेने के बाद सरकारी और गैर-सरकारी मशीनरी ‘सक्रिय’ हो जाती है। अदालतों में दही-हांडी और दिवाली के खिलाफ याचिकाएँ लगने लगतीं हैं, सरकारों में बैठे व्यक्ति अय्यप्पा भक्तों के द्वारा ध्वनि-प्रदूषण की सरकारी ठप्पे वाली रिपोर्ट देकर ऐसे प्रोपेगण्डे पर अपनी मुहर लगाकर उसकी विश्वसनीयता बढ़ाते हैं, और इस चरण का अंत सरकारी या अदालती आदेश से हिन्दूफ़ोबिया गिरोह के मंसूबों की पूर्ति में होता है।
लेकिन इनका ‘गेम’ यहीं खत्म नहीं होता, चालू रहता है। इनका मन केवल एक बार किसी प्रथा को क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित कर के नहीं भरता, बल्कि अगर उसके ख़िलाफ़ कोई व्यक्ति अगर अपने आस्था, अपने धर्म का पालन जारी रखे तो उसे ‘कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट’ के डंडे से सीधा कर दिया जाता है। सबरीमाला में यही हुआ, यही दही-हांड़ी के मामले में हुआ, और यही दिवाली के मामले में हुआ।
हिन्दू है कि जागता नहीं
हर बार, हर एक बार शुरुआती चरणों में इन आसुरिक वृत्ति वालों की हाँ-में-हाँ मिलाने के बाद हिन्दू यह उम्मीद करते हैं कि अंत में नतीजा अलग होगा। यह खुद को छलने या पगला जाने के अलावा कोई तीसरी चीज़ नहीं हो सकती। और अभी भी यही हो रहा है। इस रिपोर्ट पर ना कहीं कोई जनाक्रोश है, न ही हिन्दू आक्रोश की सोशल मीडिया में फसल काटने वालों में से अधिकांश ने इस पर एक ट्वीट भर भी करने की जहमत उठाई है।
और जब इस रिपोर्ट के आधार पर कुछ सालों में वामपंथी दो-चार सौ लेख लिख डालेंगे, उन लेखों के आधार पर कोई सरकार को ज्ञापन या अदालत में याचिका दे देगा, सबरीमाला में श्रद्धालुओं की आवक कम या बंद हो जाएगी, तो उसके बाद ‘जागा हुआ हिन्दू’ सड़कों पर तब उतरकर सोचेगा कि वह ‘सेक्युलर’ मशीनरी को झुका लेगा।
लोहिया हिंदूवादी नहीं थे, शायद अपने समकालीनों की तरह उनके लिए भी हिन्दूफ़ोबिया सार्वजनिक जीवन का सामान्य स्तर रहा हो (मैंने लोहिया को पढ़ा नहीं है, इसलिए उनकी पीढ़ी के एवरेज पर बात कर रहा हूँ) लेकिन उनका कथन ‘ज़िंदा कौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करतीं।” अगर हिन्दू सीख कर आत्मसात कर लें, अपना उद्धार खुद, और आज से ही, अपने जीते-जी करने की कमर कस लें तो बड़ी कृपा होगी।
आगे की राह
आगे की राह किसी ‘कल्कि अवतार’ के आने या ‘भगवान विष्णु के ‘एक्स्ट्रा’ वाले अवतार’ के भरोसे बैठे रहने की बजाय अगर ‘अप्प दीपो भव’ की हो तो बेहतर होगा। सबसे पहले तो हिन्दुओं को ‘स्व-केंद्रित’ सामाजिक और सामुदायिक जीवन की मानसिकता से बाहर आना होगा। चाहे आप स्वयं ईश्वर में विश्वास रखें या न रखें, अगर आप हिन्दू शब्द से अपनी पहचान जोड़ते हैं, या हिन्दू संस्कृति और सभ्यता के हितैषी हैं तो अपने स्थानीय मंदिर और पुजारी का हाल-चाल लेना प्रारंभ करें।
पता करें कि वह सरकार के चंगुल में है, किसी निजी व्यक्ति या संस्था द्वारा संचालित है या एक सार्वजनिक ट्रस्ट के अंतर्गत आता है। उसके कार्यकलापों में भागीदार बनें- भले वह भागीदारी साल में एक बार बंदनवार लगाने जितनी ही क्यों न हो।
जिन्हें पढ़ने में रुचि हो, वे कोई भी शास्त्र– नाट्यशास्त्र, व्याकरण, पुराण, चित्रकला यहाँ तक कि कामशास्त्र भी, उठाकर यह जानने का प्रयास करें कि किसी भी विषय पर हिन्दू मत क्या है। योग, ध्यान, तंत्र, क्रिया- इस सब को आप सीखना शुरू कर सकते हैं। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर से लेकर जग्गी वासुदेव और ओम स्वामी तक बड़ी आध्यात्मिक संस्थाओं की कमी नहीं है, और हर शहर में छोटे-छोटे योग गुरु भी मौजूद हैं।
अपने बच्चों की किताबों को जानें- और उन्हें किताबों से इतर हिंदुत्व का, हिन्दू धर्म का असली सत्य बताएँ। एक मशहूर लेखक (शायद प्रेमचंद, लेकिन यकीन के साथ नहीं कह सकता) अंग्रेज़ों के समय में इतिहास के सरकारी अध्यापक थे। एक घंटे की क्लास में 20-25 मिनट में इम्तिहान में सवाल के जवाब में क्या लिखा जाना है, इसकी बात खत्म कर बाकी का समय किताबों में हिन्दुस्तानियों के खिलाफ जो प्रोपेगैंडा भरा था वह कितना झूठा था, उसे काटने में बिताते थे। अंग्रेज़ों के समय में जेल जाने और नौकरी खोने का खतरा उठाकर कोई अगर यह कर सकता था तो आपको अपने बच्चों को आज़ाद देश में सच बताने से कौन रोक रहा है?
हिन्दू धर्म न किसी एक मसीहा, किसी एक किताब की बदौलत पैदा हुआ है, न किसी एक माई-बाप के भरोसे इसका संरक्षण किया जा सकता है। आपके हाथ में केवल यह निर्णय है कि आप इसके संरक्षण में कुछ करेंगे, या किसी मसीहा के चुटकी बजाने का इंतजार करेंगे।
‘आगे की राह’ खण्ड के कुछ विचार लेखक नितिन श्रीधर के इंडियाफैक्ट्स ब्लॉग से साभार।